सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, April 10, 2024

"पूर्णता" अब अयोध्या पूरा नजर आता है

का भैया पकौड़ी कैसे दिए?

२० रूपया प्लेट।

प्लेट मतलब, कितना रहेगा भाई? 

अब राम जी के नावे जितना हाथ से उठ जाए। 

अच्छा ठीक बा पकौड़ी संगे एक चाय और देई दीहो। 

अच्छा.. अच्छा आप बैठो। 

चाय की चुस्की लेते हुए मैं,हम्म... ठीक है। 

बगल की बेंच पर बैठा व्यक्ति, का एक नंबर चाय? 

नहीं-नहीं बस पीने लायक है। थकान मिटाने लायक नहीं बस थोड़ा आराम देने लायक।

तबै तो कहे भोंसड़ी वाला गंगा ब्रांड दूध का चाय बनाता है। साला उसमें पहले से हीं गंगा जी का पानी ज्यादा और कैमिकल वाला दूध कम रहता है। 

 मतलब ठीक है... लेकिन एक नंबर वाली चाय हमारे बनारस में मिलती है। 

आप बनारस से हैं? 

नहीं उसके आसपास से। 

बताईए हम अब तक भोले के नगरी नहीं जा पाए।

कोई बात नहीं कभी जाए के कोशिश करिहो। उहवां गंगा जी भी हैं और एक नंबर वाली चाय भी।

आप कहां से हैं? बड़ा झंडा लिए हैं किसी यात्री दल के साथ आए हुए हैं क्या? 

नहीं,हम तो यहीं के हैं रामनगरी के। यहीं लोगों को रास्ता बताते हैं। ई चोरवा मेरा दोस्त है जो चाय पकौड़ी बेच रहा है। 
अरे! मूत पिलाव थोड़ा सा। 

अरे! तुम पैसा तो दोगे नहीं बस चाय पेलोगे।

तो क्या चाहते हो तुम्हारे झांट बराबर चाय का पैसा दें? सरयू का पानी थोड़ी डाल बना रहे हो। 

नहीं-नहीं अपना मूत मिला के पिला रहे हैं तुमको। 
पकौड़ी कैसा है भैया? 

एकदम मजेदार। लेकिन मेरा दोस्त बोल रहा है ढे़रे महंगा दे रहे हैं। 

माल पड़ा है भाई साहब। वो तो आज भीड़ कम है। 

कैसे कम है? आपके यहां लोग कम आ रहे हैं या मंदिर में कम आए हैं? 

शहर में कम आए हैं। आज सुबह घाट गया तो सरयू में पानी अधिक दिख रहा था भीड़ कम। 

आप सरयू देखने जाते हैं या नहाने? 

पहले नहाने जाता था अब जब से मंदिर बना है तब से सुबह की बेला में देखने चला जाता हूं। 

क्या दिखता है आपको भीड़ और पानी के अलावा? 

"पूर्णता" अब अयोध्या पूरा नजर आता है। संघर्ष, इंतजार , तपस्या सारा कुछ श्रृद्धा में बदल चुका है। ये भोंसड़ी का जो अभी मेरा मूत पीकर हंस रहा है कुछ दिन पहले रो रहा था। अब सब ठीक है। सारा कुछ सही अनुपात में है। 
और दूं पकौड़ी? 

नहीं, सारा कुछ सही अनुपात में था। शायद मुझे कहीं और की पकौड़ी पसंद भी ना आए। 

#अयोध्या

Tuesday, February 20, 2024

देखा है कैसे नदी किनारे के पेड़ों को नित्य खा रही है?

शाम धीरे-धीरे थक रहा था। सुबह से शाम होने तक के सफर में दोपहर का धीरे-धीरे गुजरना अब तक शाम को हल्का बचा रखा था। और अब चांद आसमान को अपनी रोशनी से आकर्षक बना रहा था। धुंधली रोशनी में गांव वाले अपने दिन भर की सारी थकान लिए घर की ओर जा रहे थे। वहीं एक पूराने विद्यालय में घने पीपल के पेड़ के नीचे बैठे दो दोस्त भोलू और बोलू सालों बाद मिल अपनी आम जिंदगी की बातें कर रहे थे। उन दोनों के बातों के मध्य पत्तों का मधुर संगीत, हवा का सुकून और पंक्षियों की चंचलता थी। विद्यालय की बाहरी दीवारों पर पत्थर से खरोंच कर बनाए हुए अतरंगी चित्र थे। पिछली होली पर बच्चों द्वारा लगाए गए पंजो के निशान।
कभी दोनों दोस्त भी ऐसे करतब किया करते थे। बोलू पत्थर से दीवार पर पहाड़ बनाता और भोलू दो पहाड़ियों के बीच मुस्कुराता सूरज बनाकर बोलता देखो बिल्कुल हमारे गांव का पहाड़ है। बोलू बोलता पागल है? हमारे यहां सूरज पहाड़ों से नहीं पूरब से निकलता है। पूरब में तो मंदिर है। पहाड़ तो उत्तर में है। भोलू बोला उत्तर में तो नदी भी है। फिर तुने नदी क्यों नहीं बनाई? बोलू ने बोला तु पागल है अब वहां नदी नहीं बस रेत है, नदी तो सूख गई। तो सूरज वहीं बनाते हैं इससे ऐसा लगेगा जैसे नदी को सूरज ने सुखाया है। अच्छा फिर बादलों का क्या करेगा? फिर तो बादल भी बनाने होंगे, बोलू ने बोला। फिर तो बारिश भी करानी होगी और बारिश तेज हुई तो बाढ़ भी आ सकती है फिर हमारा गांव डूब जाएगा। अरे यार! भोलू ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा। फिर हम कहां जाएंगे हम तो बेघर हो जाएंगे। मिट्टी के घर ढ़ह जाएंगे। जानवर नदी के पानी के साथ तैरते हुए कहीं दूर चले जाएंगे। पेड़ की जड़ें कमजोर पड़ जाएंगी। देखा है कैसे नदी किनारे के पेड़ों को नित्य खा रही है? मिटा देते हैं सब मिटा देते हैं। दोनों ने पत्थर से खरोंच कर सारा सूरज पहाड़ मिटा दिया फिर एक शुकून भरी मिठी मुस्कुराती सांस ली और सीने को फूलाया। उनके होंठों पर मुस्कान पसर आई थी जो जायज भी था उन्होंने अपने गांव को बाढ़ में डूबने से बचा लिया था। जो काम सरकारें नहीं कर पातीं, जिसे करने में लाखों रूपये खर्च हो जाते हैं उसे इन दोनों ने कितनी सरलता से पूर्ण किया था। सरकार के हिस्से में घटना के घटने के बाद का रोड मैप हमेशा तैयार रहता है लेकिन उससे पहले की सड़क टूटी हुई रहती है। ठीक ऐसी हीं जर्जर  सरकारी विद्यालय के प्रांगण में पेड़ को घेरे चबुतरे पर बैठे दोनों अपने बचपन की पुरानी और मनोहर स्मृति में खोए दीवार पर अपनी कला ढूंढ रहे थे। इनकी यादें कितनी पुरानी हैं यह तो इन्हें याद है लेकिन यह विद्यालय कितना पुराना है यह दोनों में से किसी को सही से याद नहीं। बस इतना पक्का है कि जितनी पुरानी इनकी दोस्ती है उतनी तो है हीं। वास्तविकता में यह स्कूल इनकी उम्र से कहीं ज्यादा पुराना है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले यहां गांव के भद्र जनों की बारात रूका करती थी। कुछ वर्षों तक यह यात्रियों के लिए सराय भी बना। फिर जब क्षेत्र नक्सलवाद की आग में जल रहा था उस वक्त यहां सुरक्षा बलों की भी तैनाती थी। मास्टर साहब पढ़ाते हैं और बच्चे पढ़ते हैं वाले किस्से में यहीं कहावत चलती है कि साधु गुरूजी हेडमास्टर थे जो बिल्कुल काले हुआ करते थे और बिल्कुल सफेद कपड़ा पहनते थे साथ हीं सफेद ताजा माठा बिना नमक डाले ३ ली. एक बार में निपटा देते थे। और बच्चे उन्हें देखा करते थे। देखते-दिखाते स्कूल को चारों और से घेर दिया गया और फिर अब भीतर क्या होता है किसी को नहीं दिखता। 
आज से कुछ साल पहले भी दोनों अपने बचपन के दिनों में रात होने से पहले वाली शाम को यहीं बीताते थे। तब से जब से वह अच्छे दोस्त थे। आकांक्षाओं के घेरे से मुक्त। बस जिंदगी जीने की जिद थी और सांस लेने की आदत। ये दोनों तब बस इतने छोटे थे जहां से यह अपनी रोज की जिंदगी में चल रही बातों को समझ सकते थे। और दूसरे उसे कैसे देखते है, क्या सोचते है? कि परवाह नहीं। बस इतना समझना होता था कि दोनों एक दूसरे को समझ लेते। कोई एक दूसरे पर ऊंगली नहीं उठाया करता था। इन दोनों की बात में किसी तीसरे के लिए कोई स्थान नहीं होता। हर वो तीसरा इनका दुश्मन था जो इनकी आजादी को, आदतों को अपने शर्तों में बांधने की कोशिश करता। इस पेड़ के नीचे मिट्टी की महक और पत्तों की सरसर के मध्य भरी दोपहरी में आम के बागीचे से डंडे मार आम तोड़ने की बातें। और सही निशाना न लग पाने का दुख, तो कभी बब्बन के ठेले से इमली की चोरी की घटनाओं का जिक्र होता। कभी पढ़ाई वाले मास्टर जी ने किस गलती पर किसका कान ऐंठ दिया। और मास्टर जी को सबक सिखाने की अलग से तर्कसंगत तैयारी भी होती थी। कभी तो बोलू मास्टर जी को मुर्गा बनाने की बात भी कर देता। लेकिन भोलू बोलता जब अंडा मुर्गी देती है तो मुर्गा क्यों बनाना? पर बोलू कहता नहीं मास्टर जी आदमी हैं और आदमी मुर्गा बनता है मुर्गी नहीं। बातें होती थीं मोहल्ले की सबसे खूबसूरत हमउम्र लड़की अभिलाषा की, जिसके ख्याल में दोनों कभी-कभी खो जाते पर हांसील करने की जिद किसी में नहीं होती। और अगर थी भी तो किसी ने इसका जिक्र नहीं किया। दोनों कभी चर्चा करते अभिलाषा से सपनों में हुए बातों की। उसके होने के सोच से शरीर में हुए गुदगुदी की,स्वयं में बड़े हो जाने के अभिलाषा की।
पर इन बातों का स्वाद तब फिका पड़ गया जब भोलू ने पूछा तु अब भी यहां आता है? इतना सुन बोलू आसमान ताकने लगा। मानों वह कोई निर्जन स्थान हो। अब चारों तरफ शांति पसरी हुई थी। सूरज छुप गया था। चांद, तारों के सामने अपना बखान कर रहा था। गुमटियां बंद हों गई थीं। काम से थके हुए और बाजार से रूठे हुए लोग अपने घरों को लौट रहे थे। बोलू ने एक बार भोलू की ओर आंखों में मौन लिए देखा। वह भोलू में हुई बदलाव को ढूंढ रहा था जो कुछ साल पहले नहीं था। जब भोलू आठवीं के बाद गांव छोड़ शहर चला गया।
भोलू के शहर जाने पर बोलू इस पेड़ के पास आता पेड़ से अपनी बातें कहता और घर लौट जाता। कभी-कभी भोलू से फोन पर बातें हो जातीं पर उन बातों में गांव कभी शामिल नहीं रहता। भोलू का अपना स्कूल और उसके नए दोस्त शामिल रहते। बोलू को इन बातों से असहजता होती अपने सबसे अच्छे दोस्त भोलू को खो देने का डर उसके मन में बैठ जाता। शहर की भीड़ में उसके खो जाने का डर। 
पर पिछले दिनों भोलू ने बोलू से फोन पर बात की। सूचना दिया की वह गांव आ रहा है। इतना सुन बोलू ने ढेरों तैयारियां शुरू की अपने दोस्त से मिलने की। उसने खुद को खूब डांटा, उसे अफसोस था अपनी सोच पर। उसने भोलू के बारे में ग़लत सोचा। भोलू अब भी उसका दोस्त है। बोलू ने भोलू के स्वागत में जिए हुए यादों को और कुछ भोलू के गांव छोड़कर जाने के बाद की बातों को नत्थी करना शुरू किया। कहीं कुछ छूट न जाए बताने को। वो मुझसे हमारे गिल्ली डंडा वाले श्याम भैया के बारे में पूछेगा तो मैं क्या कहूंगा? और मास्टर जी? रूको सबका हाल पूछ आता हूं। भोलू ने मुझसे पूछ लिया तो। मैं क्या कहूंगा उससे? मन में अपने बुदबुदाते हुए बोलू यादों को नत्थी करता रहा।
आखिरकार वह दिन आया जब दोनों लगभग ३ साल बाद वापस मिले। जगह पहले से तय था पूराने विद्यालय का पीपल के पेड़ वाला चबूतरा। यह चबूतरा पहले नहीं था। पर भोलू के शहर जाने के बाद गांव में बस यहीं कुछ अलग सा काम हुआ था। बोलू ने बड़ी प्रसन्नता से भोलू को यह चबूतरा दिखाया और बोला तेरे जाने के बाद यही मेरा दोस्त था। मुझे तो लगता है कि यह चबूतरा तेरे हीं याद में बना है। वो अलग बात है कि ऐसा सिर्फ मैं मानता हूं। भोलू का पहनावा बदल चुका था। अब हाफ पैंट की जगह फूल पैंट ने ले ली थी। अब पैंट के पिछे दाग नहीं थी। सर्ट चमचमाती हुई स्त्री की हुई। बाल बिलकुल भी उलझे नहीं। इसके अलग बोलू अब भी बोलू हीं था। बस अब हाफ पैंट की जगह फुल पैंट थी। बोलू ने चबूतरे पर हाथ फेरते हुए मुंह से हवा मारी और अपने हाथ को पैंट के पिछे पोछतें हुए बैठने को बोला। 
भोलू हल्का सिर हिलाते हुए बोला और बता तु यहीं रहेगा? गांव से बाहर नहीं जाएगा? बोलू उसकी और चुप देखता रहा। भोलू ने बोलना जारी रखा, सोच. तुझे यह चबूतरा इतना अच्छा लग रहा है तो सोच शहर में तो तु गुम हो जाएगा। बोलू इन बातों के लिए तैयार नहीं था। उसके पास तो इसका जबाव हीं नहीं था। वह तो श्याम भैया की गिल्ली डंडे की कहानी और मास्टर जी के समझावन देवता के किस्से लेकर आया था। अभिलाषा से जुड़ी कुछ सवालों के जवाब में बने बनाए सपने। बोलू तो उससे बचपन की बातें करना चाहता था जहां वो वापस उन दिनों में जा सके। उसने तो यादों का संसार बसाया था अपने भीतर वर्तमान से दशकों दूर की यादें। ताकि अपनी नादानी पर मुस्कुरा सके। वह तो अपने जेब में बब्बन के ठेले की ईमली लाया था जो उसे खाने के लिए देने वाला था। फिर बोलू अपनी जेब में इमली को टटोलता हुआ बोला। पता नहीं, बाबा बोलता तो है शहर जाने को लेकिन लेकर नहीं जाता। पर मैं खुश हूं भोलू गांव की महक मुझे अच्छी लगती है। बस तुझे याद करता हूं। बस तेरी कमी हमेशा रहती है। इतना कह बोलू शांत हो गया। उसके ज़बाब में भोलू अपने शहर की कहानी सुनाता रहा। बड़ी-बडी इमारतों और चौड़ी सड़कों का जिक्र करते हुए भोलू ने अपनी एक दोस्त सुलेखा का भी जिक्र किया। बोलू अपने भीतर एक सड़क ढूंढ रहा था। वहां से दूर भाग जाने के लिए। लेकिन सामने धूल में सनी सड़क थी जिसपर भागना आसान नहीं था। पर वो सुनता रहा और यह सोचता रहा कि इस तीन वर्ष की दूरी में भोलू उससे तीस वर्ष दूर जा चुका है। और वह ठहरा हुआ है अपने बचपन के किस्सों को लिए तीन साल पहले कहीं। भोलू मानों बड़ा हो गया था। इतना बड़ा की वह इस पेड़ की जड़ों को भी छोटा बता दे। और कह दे ये तो कुछ भी नहीं वो शहर का पेड़ देखेगा तो बोलेगा।
ऐसी ना जाने कितनी बातें भोलू के पास थीं। बातें बोलू के पास भी थी। पर दोनों की अलग-अलग। एक की कहानी में अभिलाषा थी। तो दूसरे की कहानी में सुलेखा। एक की कहानी में शहर की पक्की सड़कों पर दौड़ती बड़ी गाड़ियों का रेला था तो दूसरे की कहानी में गांव की कच्ची सड़क पर अपना कल लिखते लोग। बस अंतर इतना था कि बोलू अपनी कहानी सुनाना नहीं चाहता और भोलू वो सब बताना चाहता था जो उसे गांव से अच्छा लगता था। 
चांद आसमान में पूरी तरह फ़ैल चुका था। बोलू ने ऊपर नजरें घुमांई और खुद को चांद से दूर पड़े उदास तारों जैसा महसूस किया। अब उसे यकीन हो गया कि उसकी दोस्ती खतरे में है। या शायद समाप्त हो गई है
अचानक भोलू ने बोला चल, कल बागीचे चलते हैं। आम खाने भोलू ने बोलू से आंख चमकाते हुए कहा। बोलू चबूतरे को देखते हुए बोला। भोलू अब मेरा निशाना आम पर नहीं लगता। तुम अकेले चले जाना। और बिना पिछे मुड़े घर की ओर भाग निकला। चार कदम चलते हीं अपने जेब से उसने बब्बन के ठेले की सारी ईमलियां बाहर फेंक दीं। बिना पिछे मुड़े अपने हाथ को पैंट में पोंछा और अपनी यादों की नत्थी को घर जाकर आंखों के रास्ते बहा दिया। भोलू ने ईमली उठाई और चबूतरे को देखने लगा। जो शायद उसकी याद में बना था, ऐसा बोलू मानता था। ईमली का एक टुकड़ा उसने मुंह में डाला,अब भोलू के आंखों में आसूं थे।
 

Monday, January 1, 2024

कुछ है..… कोई है.....

क्या कुछ छूटा है बीते वर्षों में?
कितना कुछ साथ ला पाया हूं मैं बीते वर्षों से छीनकर इस साल में?
इस वर्ष में कितना कुछ मैं प्राप्त करूंगा? और कितना कुछ समेटकर अगले साल में कूदूंगा? 
कितना जीवन को जी पाया हूं? 
आगे कितना उससे लड़ पाऊंगा? 
क्या साथ लेकर मैं वर्ष दर वर्ष भविष्य में कूद रहा हूं? 
एक नियत और सुनिश्चित यात्रा में कितना कुछ अपना पाया हूं? 
कितना कुछ समेट पाया हूं? 
कितना कुछ अभी में मेरे पास है? 
कितना कुछ बाकी है? 

कुछ है...
कोई है...
जो बता रहा है कि साल बदल गया है। 
तुमने आज की तारीख में पिछला साल लिख दिया है।
तुम अभी वहीं अटके हुए हो।
तुम्हें यहां भटकना है, जहां सारा कुछ नया है। 

क्या नया है?

"जलता सूर्य
मौन चंद्रमा
मैले आकाश
नुचती पृथ्वी
धुंधलाते तारे
बंधते नदी 
कटते पहाड़ 
सूखते झरने 
बिखरते बादल 
विषैली हवा 
कटता जंगल
लड़ता धर्म
मरती जाति सभी शाश्वत हैं।"

देंह पुरानी है।
कपड़े पुराने हैं।
आदतें पुरानी हैं।
विचार पुराने हैं।‌
दुख पुराने हैं। 

फिर नया क्या है? 

दिन नया है। 
तारीख़ नई है। 
सुख की कल्पना नई है।
संघर्ष नया है।
उम्मीद नई है।
शरीर पर रेंगती कुछ रेखाएं नयी हैं। 
आंखों की थकान नई है।

और फिर बीतते समय के साथ....

नफ़रत नई होगी।
अहंकार नया होगा।
प्रेम नया होगा।
प्रेम में जीया हुआ सारा कुछ नया होगा।
वो सारा कुछ नया होगा जब हम उसे प्रेम की परिधि में समेट लेंगे।
फिर हमारा यह स्वीकार करना नया होगा, कि नया कुछ भी नहीं था।
सारा कुछ शाश्वत था। 

"उगते सूरज
शीतल चंद्रमा 
फैले आकाश 
घूमती पृथ्वी
टिमटिमाते तारे
मुक्त नदी
स्थिर पहाड़ 
बहते झरने
एकत्रित बादल
स्वच्छ वायु
घने जंगल
अखंडित धर्म और जीवित जाति की तरह।"

Sunday, December 17, 2023

मैं उनके साथ घट सकता हूं?


पिताजी की मेरे साथ कोई तस्वीर नहीं है। कुछ दिनों तक मैं मां की नजरों से बचता हुआ खाली समय में कमरे में स्वयं को बंद कर बक्सा खोल एल्बम लिए बैठ जाता। मां पूछती की का अर्थ बड़े? मैं कहता कुछ नहीं और एलबम को पलटने लगता १ पन्ने पर ३ तस्वीरों वाली एल्बम। घर के सारे एलबम में खुद को पिताजी के साथ ढूंढ़ता उस संवाद की शुरुआत करते हुए जो मुझे करनी थी। जिससे मुझे जुड़ना था। कोई वो यादगार पल जिसमें मेरी पूरी सघन उपस्थित दर्ज हो। लेकिन हर बार मेरे निराशा हीं साथ लगी। इस कार्य की बारंबारता होती रही इस उम्मीद के साथ की शायद कहीं कुछ रह गया हो जो आंखों से छुपा बैठा हो। किसी बड़ी सी तस्वीर के नीचे किसी छोटे तस्वीर के शक्ल में। लेकिन मैं यह भूल गया कि वह दौर आज की आधुनिकता सा छिछला नहीं हुआ करता था। वह दौर नीरव लेकिन सघन था। उसी शून्यता में मैंने पिताजी के बचपन की तस्वीर को पाया। फिर भी उदासी की मैल नहीं साफ कर पाया आज भी उस आशा का अभाव मेरे लिए बिते हुए कल का बोझ है। इसलिए पूराने तस्वीरों क़ो देखकर अजीब सी टिस उठती है। शायद यहीं कारण है कि मैं तस्वीरों से भागता हूं। 
अतीत में मैं पिताजी के साथ था लेकिन तस्वीर में नहीं हूं। चित्र में होने की भूख हमेशा अधूरी रहेगी का यथार्थ मुझे अतीत से दूर फेंक देता है। उस फेंके हुए स्मृति की मदद से मैंने इस तस्वीर की कल्पना की थी।


मैंने "कला" (शुरूचि) को कहा मेरे पास मेरे पिताजी कि तस्वीर है। क्या कुछ ऐसा हो सकता है जहां से मैं उनके साथ घट सकता हूं? क्योंकि कला हीं वो माध्यम है जिससे हम अतीत को ठीक-ठाक सूंघकर , महसूस कर , छूकर उसे जी सकते हैं।कला ने कहा आप तस्वीर भेजिए मैं देखती हूं। मैंने उसे अपनी और भैया की तस्वीर भेजी जो स्पष्ट थी। लेकिन पिताजी की तस्वीर थोड़ी धुंधलाई हुई उस तक पहुंच पाई थी। मैंने कला को कहा पिताजी को थोड़ा बूढ़ा और मुस्कुराता हुआ देखना है। क्या यह संभव है? 
मैं हृदय से कोशिश करूंगी अभी मेरी ऊंगली भी हल्की कमजोर है। लेकिन प्रयास पूरा रहेगा। 
मैं समयांतराल में कला से प्रश्न करता रहता। 
क्या हुआ? 
कैसा बन रहा है? 
मैंने कुछ आधी अधूरी तस्वीरें देखीं तो हृदय में गुदगुदी सी हुई। रेखाएं ठीक कल्पना के आसपास भटक रहीं थीं। फिर एक दिन अचानक से कला ने कहा आपके पिताजी के होंठ को स्पष्ट रूप नहीं दे पा रही मैं। आप कुछ सहायता कर सकते हैं? 
मैं पिताजी स्मृति चिन्ह ढूंढने लगा। मुझे उनका मुस्कुराना मेरे हृदय को स्वस्थ कर रहा था। उस स्मित को मैं पी रहा था लेकिन होंठ कैसे थे का जबाब किसी भी चिन्ह से बाहर नहीं आ रहा था। कुछ तस्वीरें जो अलग-अलग वेशभूषा में थी। प्रसन्न , मुक्त अपनों के संग जागता हुआ। कुछ अंजान लोगों के साथ स्वयं को व्यवस्थित करता हुआ। घास पर लेटे हुए कुछ जवानी की तस्वीरें। जनहित कार्यक्रमों को सजीव करती। कुछ जीवन के अंतिम दिनों को छूती क्लांत तस्वीरें। जिसपर ऊंगली रखते हीं मेरे अंदर कुछ तैरने लगा था। जो तैरता हुआ मेरे आंखों से बाहर निकल रहा था। कोई संताप जो भीतर जमा हुआ था। सारा कुछ मेरी आंखों में तैर रहा था लेकिन होंठ पत्थर के समान जमे हुए थे मानों उनपर जीवन में आगे भागते हुए पिछे उड़ती धूल जमा हो गई है जिसने उसे बांध दिया है। जहां होंठ थोड़े अव्यस्थित सा कुछ बुदबुदा रहे हों। बोलने और चुप रहने के मध्य किसी स्पंदन को महसूस करती हुई। जिसके बंधन ने मुझे क्षुब्ध कर दिया है की मानों वर्तमान की सीलन में सांस लेता मैं अतीत के जाले साफ करना भूल गया हूं। जो मैंने अपने कैशौर्य रहते वहां छोड़ आया था। मुझे तो वहीं रहना था अतीत के ठीक पास। बिल्कुल निर्लिप्त। लेकिन मैं बहुत आगे निकल आया हूं। पीछे उड़ती धूल अतीत को मैला करती जा रही है। मैं कुछ-कुछ भूल रहा हूं जो मुझे नहीं भूलना था। 
मैं हारा हुआ कला के सामने नहीं जाना चाहता था। मैंने उससे कहा भैया ने पिताजी को प्राप्त किया है। वह ठीक-ठीक उनके करीब हैं। मैं जितना सतही,छिछला और यायावर हूं वह उतने हीं सघन और प्रौढ़ हैं। पिताजी के होंठ भैया के होंठों की तरह फड़फड़ाते थे। उन होंठों से कूदते शब्दों की आवाज भी वैसी हीं मुझको प्रेमपूर्ण मेरे कानों को स्पर्श करती हैं। स्नेहिल, स्निग्दध, समतल धुली हुई। 


आप उनके होंठों को छूकर वहां तक पहुंच सकती हैं। उस रेखा के आसपास वो चिन्ह आपको मिल जाएगा जो मेरी स्मृति से बाहर निकल चुका है। मेरी परिधि से बहुत दूर। उन कटे हुए पेड़ों की तरह जिसे पिताजी ने सींचा था जो ठूंठ हो चुके हैं। जिनकी संख्या मुझे कभी याद नहीं थी। बस उस स्थान को याद रख पाया हूं जो अब ऊसर हो चुकी है। बिल्कुल मेरे वर्तमान की तरह बंजर जहां भविष्य की कोई कामना नहीं। 
क्योंकि मेरा पिताजी के साथ रहना सिर्फ त्यौहारों और अपने मुक्तता के दिनों में संभव हो पाया था। मैं उनके अंतिम दर्शन ना कर पाने का अभाग्य कभी अपने उपस्थित से नहीं झाड़ पाऊंगा। कैसे अपने विलाप की पिपासा को बहाता हुआ, अपने प्रिय को खोने के दुख में उस पल को मुक्त छोड़ गया जिसे मुझे पूरी ताकत से सारी कमजोरी को बाहर धकेलता हुआ निगल जाना था। 
इस तस्वीर का पूर्ण होना मेरा उस स्मृति को दोबारा छूने जैसा है जहां दुख को अपने भीतर से झारता हुआ मैं थोड़ा हल्का महसूस कर रहा हूं। 
जब तस्वीर बात करने योग्य मेरे सामने आई तो कला ने पूछा कैसा बना है? 
मैंने कहा धन्यवाद।‌ जैसा मैं तब देख सकता था ठीक उसी के करीब। और पिताजी के बचपन का आरेख मैंने उन्हें भेज दिया।

Friday, December 15, 2023

मैं सुन रहा हूं

तुमने इसे मार दिया? 

नहीं मैंने नहीं।

मैंने देखा था पिछले इतवार यह तुम्हारे देह पर कूदी थी। 

हां लेकिन आज शुक्रवार है। 

तुमने उस रोज इसके स्पर्श के बाद स्नान नहीं किया था शायद इसीलिए मर गई? 

पता नहीं। छिपकली तो पूरे घर में घूमती है। जाले नोचती है। मकड़ियों को खाती है। फिर घरों को कौन स्नान कराता है? 

जालों को साफ तो करते हैं। 

हां लेकिन पानी से नहीं धोते। 

छिपकली को नहाते देखा है तुमने? 

क्यों? 

मतलब जब छिपकली हमारे संपर्क में आती है तो वो भी नहाती है? 

पता नहीं,कभी देखा नहीं। गिरगिट को देखा है। भींगते हुए उससे हमारे गांव में लोग बारिश का भविष्य नापते हैं।

उसकी लम्बाई से? 

नहीं, उसके गर्दन हिलाने से।

छिपकली भी तो गर्दन हिलाती है। 

हां, लेकिन बारिश नहीं होती। 

तुमने छिपकली से पूछा है कभी? 

क्या? 

यहीं बारिश। 

नहीं दूसरी चींजे पूछी है बारिश का नहीं पूछा। 

क्या बोला उसने? 

कुछ भी नहीं। 

क्यों? 

क्योंकि वो सुनती है। 

बोलती नहीं तो बात क्यों करते हो? 

क्योंकि वो सुनती है। 

फिर बोलती क्यों नहीं? 

शायद उससे बोलती होगी जो उसे सुनता होगा।

तुम क्यों नहीं सुनते? 

मैं तो बोलता हूं ना। और वो सुनती है। फिर सुनते हीं भाग जाती है।

तुम छिपकली से ऐसा क्या बोलते हो? 

वो सारा कुछ जो कोई सुनने के लिए तैयार नहीं।

कौन नहीं सुनता?

ढ़ेर सारे लोग। 

फिर हो सकता है वो तुम्हे सुनकर भागते-भागते थक गई हो और उसे सुनने वाला कोई नहीं मिला फिर उसकी सांस टूट गई। 

यह एक संभावना है लेकिन अभी मुझे नहाना चाहिए या नहीं? 

तुमने उसे छुआ है? 

नहीं, जिंदा थी तो छुआ था। 

कहते हैं छूते हीं नहाना चाहिए। अब देर हो चुकी है। 

किस बात के लिए देर हो गई है?

अपने दोष को काटने की।

नहाने से दोष कट जाता है? 

हां नानी कहती है।

कैसा दोष? 

पता नहीं। मैं तो सुन रहा था। 

पूछा नहीं कभी? 

नहीं,नानी डांटने लगती थी।

बिल्कुल छिपकली की तरह? 

मतलब? 

जैसे छिपकली भागती है ठीक वैसे हीं नानी डांटती है। छिपकली बड़ी होती तो शायद वो भी डांटती। वैसे नानी के मरने पर तुमने स्नान किया था? 

नहीं। 

ठीक है। 

क्या हुआ, तुम सुन रहे हो? 

हां, तुम बोलो मैं सुन रहा हूं।

Thursday, November 16, 2023

हमारे हाथ लगती है कुछ टूटी हुई खुशियां जिसे देखकर हम मुस्कुराते हैं और कुछ हताश दुख जिसके सहारे हम सुबकते हैं

गांव की यात्रा का प्रथम उद्देश्य गांव की महक और दिनचर्या अपने भीतर ठूंसकर शहर ले जाना होता है। ठीक उतने दिन का सामान जिसके सहारे गांव आने से ठीक पहले तक शहर को निगलता काला धुआं हमें बीमार ना कर दे। मैं ऐसे हीं जिता आया हूं। ऊबन सी जिंदगी। मैं एक निश्चित कार्य की पुनरावृत्ति से ऊब जाता हूं। फिर साप्ताहिक अवकाश में अपने ऊबन को गहरी आलस और मौन लेखकों की मदद से देह से झाड़ देता हूं।
गांव से मुझे ऊबन नहीं होता। लेकिन गांव के अस्थाई जीवन ने हमारे भीतर की शांति को खोद दिया है। जैसे कोई घाव से जूझता व्यक्ति अपने दुखद स्थिति को खोदता रहता है इस उम्मीद में कि सूखती पपड़ी उसके चोट को आराम देगी। कुछ ऐसा हीं गांव के लोग सोचते हैं कि शहर उनके दुखों को निगल जाएगा और एक सुख जिसकी कल्पना उन्होंने शहर से आए हुए लोगों को देखकर चेहरे पर फैलाया था वह उनके होंठों से चिपक जाएगी। 
लेकिन क्या यह संभव है? 
शहर जो किसी ग्रह के समान हैं जहां किसी युग में विदेशियों द्वारा सुख-सुविधा से उड़ते जीवन की खोज की गई थी। वहां गांव अपने इक्छाओं की पूर्ति के लिए भागता है और शहर के उड़ते हुए जीवन में रेंगने लगता है। एक चीथड़ा हुआ जीवन जीता है। जहां जहाज उड़ते हैं। गाड़ियां दौड़ती हैं। मसीनें चलती हैं और इन सब पर अपना अधिकार प्राप्त करते लोग घिसटने लगते हैं।
धूसर देह की अक्षमता उन्हें गांव की सड़क पर सरकने लायक भी नहीं छोड़ती। नीला स्वच्छ व्योम जो उन्होंने अपने गांव में देखा था वहां वह जहाज कभी नहीं पहुंच पाता जहां उन्हें वापिस लौटना था। उन पगडंडियों तक कोई गाड़ी नहीं पहुंच पाती जिसका निर्माण अपने पैरों से धरती को रौंदते हुए घासों की हत्या कर किया था।‌
हमनें बनी बनाई जगहों पर जाना हीं छोड़ दिया है। हम जाते हैं एक बनाई हुई जगह पर। जिसके अस्तित्व में आने के इतिहास को हम पहचानते हैं। शहर जो हमें थोड़ा अवकाश देता है उसमें हम अपना खांसता हुआ वर्तमान समेटते हैं और गांव की ओर भागते हैं। गांव जो बहुत दिनों के बाद देखे जाने पर बूढ़ा नजर आने लगता है। घर के बाहरी हिस्से अनजाने जान पड़ते हैं उसमें अपने खांसते वर्तमान के साथ प्रवेश करते हीं हर कोना हमारी अतीत को लिए खड़ा रहता है। मानों उसने हमारे लिले हुए अतीत को उतना हीं हरा रखा है जितना हमारे जीवित रहने के लिए जरूरी है। जितने में हम अपने अतीत में जीवित रहें और वर्तमान से लड़ते रहें। 
मेरा इस बार गांव आना वर्तमान से लड़ने जैसा नहीं था। बीते अगस्त में जीवन में मनोहर यथार्थ.. 
..घटित हुआ जो वर्तमान की सीलन को अपनी धूप से दूर किया है। उसकी सड़न को कहीं दूर फेंक दिया है। घर के पीछे वाले पहाड़ की झाड़ियों में। जो सुलगते पहाड़ के साथ कहीं समाप्त हो जाएगा। एक स्वस्थ वर्तमान की टोह में मेरे बीमार पड़े विचार थोड़ा मुस्कुरा लेंगे। अपनी थकती इच्छाओं की बाट जोहते हुए थोड़ा अवकाश प्राप्त करेंगे। अब तक मेरे लिए कल्पना का आलिंगन यथार्थ से कहीं अधिक सुखदायी था। लेकिन यथार्थ के जन्म लेते हीं मेरी अधिकतर कल्पनाएं यथार्थ से संबंधित रहती हैं। हालांकि यथार्थ का मेरी कल्पना में स्थान नहीं था। 
मैंने पार्थवी की इच्छा की थी लेकिन हमारी इच्छित आशा कभी पूर्ण नहीं होती। 
हमारे हाथ कभी भी वह उस रूप में नहीं आता जैसी हम कामना करते हैं। हर बार सारा कुछ मिलने से पहले हीं कुछ रह जाता है जो उसकी पूर्णता को निगल लेता है।
हमारे हाथ लगती है कुछ टूटी हुई खुशियां जिसे देखकर हम मुस्कुराते हैं और कुछ हताश दुख जिसके सहारे हम सुबकते हैं। अब यथार्थ का होना इच्छा और उम्मीद से कहीं दूर सुख को छूने जैसा है। ऐसा सुख जो बादल की तरह होता है। जो सपनों की पतली झिल्ली जिसे वर्तमान में कभी देखा गया था उसे खोदकर बाहर निकलता है जैसे कोई पक्षी। उसके आकाश में उड़ते हीं हृदय के सतह से बादल उड़ना आरंभ करते हैं और आंखों के कोरों में आकर टिक जाता है। यथार्थ उसी सपने जैसा है जिसे गर्भ की दीवारों को छूकर हम सभी ने महसूस किया था। सांसारिक जीवन का भोग करते हम कितना कुछ अपने जैसा अपने पीछे छोड़ जाते हैं। 
रूप
रंग
चाल
आवाज
संस्कार
विचार और भी ढे़र सारी जिम्मेदारियां जो हमारे बुजुर्ग होते हीं हमारे झुरमुट सी जीवन यात्रा को सहलाएंगे और और उस मधुर स्पर्श के संपर्क में आते हीं उसके बचपन को हड़प लेंगे जैसे किसान अपनी फसल को हड़प लेता है। उन्हें यह आभास दिलाने के प्रयास में कि अब तुम बड़े हो गए हो। हम तुम्हारी जिम्मेदारी हैं। इतना तटस्थ भविष्य जो कभी वर्तमान का रूप धरेगा। बिल्कुल बदले की जिंदगी काटने जैसा। 
लेकिन मैं इस वर्तमान को निगलकर हृदय के सबसे कोमल हिस्से में छुपा लेना चाहता हूं। जहां किसी भी प्रकार का विरोध नहीं। ठीक वहीं जहां से बादल उड़ना शुरू करते हैं। 
दुनिया के झालों से दूर। सबसे मुलायम भाग को, रूई से भी मुलायम जिसकी छुवन अतीत के सारे अंधकार को समाप्त कर दें। सारा पीब सूखा दे और पहाड़ उसकी महक को सोख ले। मेरी बहुत सी इच्छाएं जो मैंने अपनी थकी हुई नींद में देखा था। जिसके लिए जागते हुए संघर्ष किया था। मैं उनकी स्थिति से अब भी पूरी तरह परिचित नहीं हूं। मात्र प्राप्त चीजों का धन्यवाद लिख देता हूं। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद बोलने में कुछ अधूरा सा लगता है। लिखा हुआ भी पूरा नहीं लगता। अधूरा भी नहीं लगता लेकिन स्वच्छ लगता है। जहां धन्यवाद मैला नहीं होता। शायद पूरी तरह से साफ सुथरा धन्यवाद कहा भी नहीं जा सकता। कहने के प्रयास में भी सभी को शुक्रिया नहीं कहा जा सकता। 
मैं सोनी फूआ को हर बार ठीक-ठाक धन्यवाद कहने से ठीक पहले ठिठक जाता हूं। हम उसका धन्यवाद कैसे कर सकते हैं जो आपके विचार और उपस्थिति से सतही तौर पर ना जुड़ा हो। जिसका लगाव छिछला ना होकर नीरव सघन हो फिर भी उसने आपके एकांत को मैला ना होने दिया हो। उस मैलापन के पनपते हीं सारा कुछ थू.थू.थू...थू..कर आपके देह से झाड़ दे और मुक्त कर दे। जैसे कोई मां अपने बच्चे का नजर उतारती है। 

मां का धन्यवाद कोई कैसे कर सकता है? जिसे बिना विज्ञान की किताब पढ़े शिशु पालन की हर महिन जानकारी प्राप्त है। 
बच्चे के रोने का कारण। उसका रोना भूख से बना है या डर से?
उसके हंसने का कारण। जो पौरूष से सजी महानता नहीं जान पाती जिसे शोधकर्ता नहीं सुलझा पाते उसे मां कैसे पढ़ लेती है? क्या उस मौन के पढ़ने का धन्यवाद किया जा सकता है। 
शायद हम मां का धन्यवाद नहीं कर पाते इसलिए प्रतिशोध की जिंदगी जीने लगते हैं। 
जैसे हम बड़े होकर रोना छोड़ देते हैं। गिरते हैं तो स्वयं हीं उठकर भागने लगते हैं। अपने संघर्ष को बड़ा मान लड़ने लगते हैं। अपनी भूख को शांत करने के लिए स्वाद के अनुसार भोजन का चयन करने लग जाते हैं। यह साबित करने के क्रम में यह कोई असंभव नहीं था। या धन्यवाद ना कह पाने की खीझ में। लेकिन उस उम्र में खुद को रखते हीं हमारी सारी आत्मनिर्भरता स्वाहा हो जाती है। जिसे किसी भी भगवान की स्तुति कोई भी दिशा प्रदान नहीं कर सकती।
जैसे मैं अब तक मां को धन्यवाद नहीं कह पाया। सिंदू फूआ को भी नहीं जिन्होंने मेरे वात्सल्य को सींचा था। बचपन के भुरभुरेपन को पकाया था। मेरी खुरदुरी जुबान को साफ किया था। देह के गंदगी को रगड़-रगड़कर मुझे मैलेपन से बचाया था।
ठीक वैसे हीं मैं प्रकृति का धन्यवाद करते हुए अपने भीतर पल रहे चुहल की हत्या होता महसूस करता हूं। जैसे पेड़ पर रह रहे पक्षियों की कोई हत्या कर रहा हो। 
मैंने भी की है। इस बार गांव आया तो देखा मृत पेड़ ठीक उसी जगह इकट्ठे धरे हुए हैं जहां कभी बेल का पेड़ हुआ करता था। जिसकी महक से स्याही वाला कमरा अपने अस्तित्व को प्राप्त करता था। जिसकी छांव में बैठा मैं स्वयं से संवाद करता था। उस बेल को दीमक चाट खाई थी। बचे हुए पेड़ों का हमनें अपने थकी हुई आयु में थोड़ा और वायु खींचने के लालच में वध कर दिया। उस पेड़ के अस्थी पंजर से मिलने वाले रूपए का हिसाब लगाते हुए जिसका देह व्यापार की आग में झोंका जाना बाकी है। "सुना है किसी ने २० लाख की बोली बताई है। सुना भी उसे २० लाख हीं गया है। शायद पेड़ भी २० हीं कटे भी होंगे। २० के आसपास पेड़ अभी भी बचे होंगे। मैं बीस का पहाड़ा पढ़ रहा हूं। हर पेड़ पर २० डालियां थीं। प्रत्येक डाली पर लगभग ४० अलग-अलग प्रजाति कि पक्षियां कलरव करती थीं। जिनकी जड़ें ६० फिट जमीन के भीतर धंसी हुई थीं। जिसके ठीक-ठाक ८० गट्ठे बनने चाहिए थे। जिन्हें लगभग १०० वर्ष की आयु तक जीवित रहना था। लेकिन २ बाल्टी पानी बहुत वर्षों से उनकी निर्जीव होती जड़ों ने किसी भी अधिकारी, विवेकशील व्यक्ति के हाथों नहीं प्राप्त किया। उसकी जलहीन आधार अब भी प्यासी है। अपने नए खोंते की उम्मीद में पक्षियां उन डालियों को छोड़ बेघर हो गई हैं। जो चिड़िया बरामदे में दीवार से चिपकी मूर्ति के खोखल में अपना घर बसाती थी उसने तिनके बटोरना बंद कर दिया है। अपने टूटे हुए पंखों से उसकी सजावट करना भूल गई है। अब चिड़िया की चहचहाहट को बांस की सांय सांय ने निगल लिया है। जिसकी अस्थियों को सजाकर बेचा जाएगा। जिससे घरों की शोभा सुसज्जित होंगी। पत्तियां प्रतिरोध शून्य होकर मिट्टी हो गई हैं। जिससे उसके सारे मौसम छीन लिए गए हैं।
पेड़ को धन्यवाद ना कहने के अहंकार में गमले में कुछ फूल लगा दूंगा। दूब को जिंदा रखने की कोशिश करूंगा। बादल को बनता देख अपनी आंखें मूंद लूंगा। पेड़ कटने की खट-खट में आकाश को तकूंगा फिर बरामदे में बने पक्षी के घोंसले की जांच करूंगा। जहां घर की सफाई करने की बेईमानी में मैंने इसे चोट पहुंचाई थी। और अंत में अपने खांसते हुए वर्तमान को समेट शहर लौट जाऊंगा। वहां की काली हवा में अपनी ऊबन से लड़कर मौन लेखकों को पढूंगा फिर अपनी अकर्मण्यता को थोड़े समय के लिए जी लूंगा। 

Wednesday, September 27, 2023

यथार्थ और कल्पना

"स्याही वाला कमरा"
कमरे के रोशनदान से भीतर आती सूर्य की किरणें यथार्थ है।
मैं उस रोशनदान से बाहर झांकता हुआ उस यथार्थ को पा सकूं यह मात्र कल्पना।
खिड़की से भीतर आती ध्रुव तारे की रोशनी यथार्थ है।
मैं उसे लाखों तारों के मध्य ठीक-ठीक पहचानता हूं यह कल्पना। 
सामने पेड़ों पर पंक्षियो की बातें यथार्थ हैं।
मैं उन्हें समझ सकता हूं यह मेरी कल्पना।
मैं यथार्थ हूं।
मेरा जीना, मेरी कल्पना। 
मैं हूं यह यथार्थ है।
मेरा होना, मेरी कल्पना।
-पीयूष चतुर्वेदी

Saturday, August 5, 2023

"मां और सूरज"

सूरज पूरब से उगता है।
या सूरज जिस ओर से उगता है वह पूरब है।
मां सुबह उठती है।
या मां के उठने से सुबह होती है।
जैसे सूरज उगता है वैसे मां भी उठती होगी। 
सूरज की हीं भांति मैंने मां को थकते नहीं देखा।
ना गहरी नींद में खोते देखा है।
मां जितनी मेरी है उससे पहले घर की है। 
शायद घर के हर कोने ने कनखियों से देखा होगा।
देखा होगा मां का भोर उठ घर के लिए समर्पित हो जाना। 
हर कोने को बुहार घर की खुशियां इकट्ठा करते।‌
दिवार पर चिपके झाले से लड़ते। 
चूल्हे के धूओं में सारे दुख को बहते।
मैंने मां के माथे पर जिम्मेदारी की लकीर।
गालों पर उम्र की झुर्रियां।
और होंठों पर मुरझाईं हंसी देखी है।
बाकी सारा कुछ मां ने मुझसे छुपाया है। 
जैसे सूरज हमें रोशनी देता है। बादलों की छाया में मीठी अलसाए सी यादें देता है।
वैसे हीं मां हर पल बिखेरती है अपना अनुराग। जैसे पौधे बनाते हैं धूप में अपना भोजन मां पालती है हमारा बचपन, हमारा जीवन। 
मां हमारे बचपन में अपनी तरूणाई व्यय करती है। 
हम अपने बचपन में जीते है उसका उधार तरुणपन।
सूरज की धूप से पहले शरीर को स्पर्श करती है मां। मां वास्तव में हमारे लिए धरती भी है और सूरज भी। हम उसपर फलते-फूलते पौधे हैं जिसे दोनों ने मिलकर इंसान बनाया है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Thursday, July 13, 2023

सभी की अपनी सीमाएं हैं - 7 जुलाई 2023

झूठ कैसा होता है? 
झूठ का चेहरा कितना विवर्ण होता है? किसी ने नहीं देखा। झूठ का सबसे सटीक मानक यह है कि झूठ,झूठ होता है। एक लंबी जीवन के भटकाव में मैंने झूठ को सच के आसपास भटकता हुआ देखा था। मेरे साथ जीवन को चखता हर व्यक्ति हर रोज झूठ बोलता है। मैं भी उस झूठ को हर रोज अपनी संतुष्टि और सुख का कपड़ा पहनाता हूं। 
जैसे कोई मुझसे पूछता है कैसे हो? और मैं बिना अपने सच को कुरेदते हुए अपने संतोष को उनके आगे फेंक देता हूं। सामने खड़े व्यक्ति के लिए मेरा संतोष हीं सत्य होता है। वो मेरे संतोष को सच मानते हैं या मेरे कहे को? मैं कभी भी उस झूठ में वापस प्रवेश नहीं करता। दूसरी छोर पर अपने जीवन को चखता व्यक्ति मेरे संतोष को अपने चखे हुए में शामिल करता है और "बढ़िया है" "बहुत अच्छे" जैसे संतुलित शब्दों के साथ बात खत्म हो जाती है। मिट्टी से किसी बच्चे का देंह सना हो और मां के झूठे भाव से दपटने पर वह बच्चा अस्पष्ट सी तोतली संभली हुई आवाज़ में एक मासूम झूठ बोले "नहीं मैं कुछ नहीं कर रहा था मैं तो अचानक से गिर गया"। 
बांस की छड़ी से डरा हुआ छात्र अपने अनुशासित और नियमित, समय के पाबंद अध्यापक से गृहकार्य करने का सुरक्षित झूठ बोल दे तो सच वहां शर्मिंदा नहीं होता। वहां सत्य की हत्या नहीं होती। सत्य का विश्वास कम नहीं होता। झूठ के विस्तार के बाद भी सत्य का फैलाव सर्वाधिक और प्रबल होता है। 
क्यों कि यह झूठ अमानवीय झूठ नहीं हैं। इस झूठ से किसी के हृदय को आघात नहीं पहुंचता। यह झूठ अपनी यायावर दुनिया में उलझे व्यक्ति को भी आत्मीय सुख परोसता है। इस प्रकार के बोले हुए झूठ से हमारा सत्य कमजोर नहीं होता। हमारे भीतर घृणा का घाव नहीं बनता। हम एक साधारण सा संतोष अपने आसपास देखते हैं। जिसमें सभी के लिए अनुराग छिपा होता है। जिसमें विकल्प के फूल सत्य के साथ जा मिलते हैं। मानों कोई छोटा बच्चा घर में छुपा कर रखे हुए बादाम को चुपके से खा रहा हो इस झूठ के साथ कि मैं नहीं खा रहा और मां उस झूठ को पकड़ चुकी है कि यहीं सत्य है तुहीं खा रहा है और उसे झूठ हीं रहने दिया गया है। 
मानवीय झूठ से अलग पिछले दिनों मैं अमानवीय झूठ की यात्रा पर था। यह यात्रा 7 जुलाई रात लगभग 8 बजे आरंभ हुई और 8 जुलाई सुबह समाप्त हुई।
7 जुलाई को लखनऊ में छोटा सा कार्यक्रम फूफा जी और श्रीनय, अन्मय की जन्म दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित था। फूआ ने पूरी तैयारी कर रखी थी। भारतीय परंपरा के अनुसार भगवान की पूजा, गरीबों को अन्न दान और पश्चिमी देशों के सदृश केक कटिंग और रेस्टोरेंट में रात्रि का भोजन। भारत देश की यहीं सबसे बड़ी सुघरता है स्विकार्यता हमनें सभी धर्म,देश, संस्कृति,विचार आदि को स्थान दिया है। 
मैं दोपहर में कानपुर से लखनऊ के लिए निकला। 
शाम को केक काटने और उसे खाने के बाद हमें भोजन के लिए रेस्टोरेंट जाना था। केक को देखते हीं बनता था। वर्गाकार सुंदर सा जिसपर फूफा जी और दोनों बच्चों की तस्वीर उतारी गई थी। इस केक की पहचान उसके फ्लेवर से नहीं उसकी डिजाइन से थी। फूआ ने इसका नाम "फोटो केक" बताया था। उसे काटने और फिर खाए जाने के क्रम में उसे बच्चों से बचाना सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। उसपर बने फोटो ने उनकी जिज्ञासा को बढ़ा दिया था। वो उसे बार-बार छूना चाहते थे। उसे अपने मुठ्ठी में भर लेना चाहते थे। पास से आते उनके छोटे-छोटे हाथ को देख सभी सावधान हो जाते। कभी केक को उनसे थोड़ा दूर किया जाता कभी उन्हें केक से। दोनों ओर से समान गति,समान दूरी और समान वेग से आक्रमण होता देख दूर पास की लड़ाई और उसे सुरक्षित रखने के खेल में तालियां बजाते हुए केक को अंतिम विदाई दी गई। उसके छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन्हें छोटे बड़े सभी में बराबर बांटा गया। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें सभी उम्र के लोग खाना पसंद करते हैं बसरते वो बीमार ना हों। केक उन्हीं में से एक भोज्य पदार्थ है।केक काटने के बाद सभी को हज़रतगंज स्थित एक निजी रेस्टोरेंट "आर्यन" में रात के भोजन के लिए जाना था। संख्या के अनुसार साधन का आभाव था। फूआ ने अपने मोबाइल से उबर ऐप से राईड बुक की। बच्चों की चुहल, जल्दी की हड़बड़ाहट, बधाई के लिए आते लगातार फोन के बीच उबर बाला नीचे आकर खड़ा हो गया। फूआ ने अपना मोबाइल मुझे दिया। मुझे और नेहा को बच्चों के साथ इसी गाड़ी में जाना था। गाड़ी सड़क के दूसरी ओर लगी थी। मैंने बैठते हीं पिन नंबर उसके साथ सांझा किया और एक बहुत की छोटी यात्रा पर निकल पड़े। इतनी छोटी यात्रा जिसमें खुद को व्यवस्थित बैठाया नहीं जा सकता। कोई थकान महसूस नहीं होती। रास्ते में एक बार फूफा जी का फूआ के नंबर पर फोन आया जिसमें टेबल बुक होने की जानकारी थी। सड़कों के किनारे जगह घेरते ठेले वाले और थोड़ा हटकर सजे दुकानों को देखते हुए, चौराहों की सुंदरता को निहारते हुए यात्रा पूरी हो गई। 
मैंने उसे भुगतान किया और रेस्टोरेंट के भीतर प्रवेश किया। अंदर प्रवेश करते हीं उनका मैनेजर जिसकी दाढ़ी सुघरता से उसके चेहरे पर सजी हुई थी और रंग-बिरंगी रोशनी में चमक रही थी उसने हमारे सम्मान में "वैलकम सर" "वैलकम मैम" जैसे दो शब्द जोड़े और दाढ़ी के भीतर एक तीखी हल्की छुपी हुई मुस्कान के साथ हमारा स्वागत किया। उसकी मुस्कान झूठी थी या सही यह सिर्फ उसे पता था। लेकिन उसकी मुस्कान ईमानदार थी‌। अपने कार्य के प्रति अनुकूल। बिल्कुल जिम्मेदार मुस्कान जिससे किसी को कोई नुक्सान नहीं। मैंने उसे टेबल बुक होने की जानकारी दी उसने हमें पहले फ्लोर पर जाने के लिए रास्ता दिखाया। उसी दौरान बाकी सभी को भी मैंने आते हुए देखा। आते हीं फूआ ने जानकारी दी की हमें वेज सेक्सन में जाना है जो नीचे की ओर है। और व्याकुलता से पूछा "हमार मोबाइल क्यों आफ बा? फोन नईखे लगता" मोबाइल कहां बा? 
मैंने नेहा की ओर इशारा किया लेकिन नेहा ने तुरंत एक सुधार किया जिसमें मेरी ज़बाब देही थी‌। मैं जब बीते वक्त में झांका तो अंतिम समय मोबाइल को अपने पास पाया। लेकिन इस उम्मीद में कि मोबाइल कहीं आसपास होगा वहां ऊपर जहां मैं बैठा था या उन रास्तों में जहां से मैं चलकर आया था। लंबे कदमों से उन सभी जगहों को छूता हुआ मैं एक कोने में आकर बैठ गया। मैं उस ड्राइवर के नाम के अलावा सभी जानकारी से अनभिज्ञ था। जिसका नाम विवेक था और वह मोबाइल अपने साथ लेकर जा चुका था। तब तक मोबाइल के खो जाने की जानकारी सभी को मिल चुकी थी। फूफा जी ने सभी को बैठने का सुझाव दिया इस तर्क से की खड़े रहने से या घबराने से मोबाइल नहीं मिलेगा। पहले भोजन कर लेते हैं फिर देखते हैं। फूआ बार-बार एक हीं बात दोहरा रही थी "हमार मोबाईल खो गईल छोटू कैसे? नया फोन रहे, कैसे भूल गईले तू?" मेरे पास उस कैसे का तब भी जबाब नहीं था अब भी नहीं है। मैं अपने जीवन में आया हुआ आत्मीय सुख और पहाड़ सा बड़ा दुख भूल चुका हूं। अपने पुराने दोस्तों के नाम अब मुश्किल से याद आते हैं जब वो अचानक से सामने प्रगट हो जाएं शायद तब। मुझे अब उंगलियों के नाम याद नहीं हैं। 19 का पहड़ा मुझे जोड़कर बोलना पड़ता है। ऐशु को किए वादों से मैं मुक्त हो चुका हूं। मैं उसे इस शर्मिंदगी से भूल गया हूं जिसकी चर्चा करने से मैं डरता हूं। उसे कुछ किताबें भेज दिया करता हूं जिनमें उन वादों की महक शामिल होती है। मैं इन जबाबों से इतर फूआ की आंखों को देख रहा था जिनमें आंसू भर आए थे। उनकी पुतलियां धूंधली नजर आ रही थी। भावनाओं में तैरती उनकी आंखों को देख मैं उनसे बार-बार चुप होने के लिए कहता लेकिन वो एक गहरी सांस लेती मानों अपने आंसू को गालों पर लुढ़कने से पहले पी जा रहीं हों। फूफा जी का शांत ,स्थिर चेहरा जो मैं पिछले 7 वर्षों से देख रहा हूं वो अब भी उतने हीं शांत थे। जैसे इंद्र धनुष के रंग होते हैं जिनका बनना और बिगड़ना हम नहीं देख पाते जब भी देखो वो पूरा नजर आता हैं। जैसे किसी ने आकाश का बनना और बिगड़ना नहीं देखा। मैं उनसे सीधे तौर पर नजरें मिलाने से बच रहा था। फूआ की भावना और फूफा जी की शांति से अलग आजी किसी ऋषिका की भांति संतोष को साधे हुए एक हीं बात दोहरा रहीं थीं "भूला गईल त भूला गईल अब का रोए से मिल जाई जो खो चुप चाप" बाबा किसी साध्य दार्शनिक की भांति चैतन्य अवस्था में अपना फैसला उसी चिरपरिचित अंदाज में सुना चुके थे जिसमें जावेद अख्तर और उनमें भेद करना मुश्किल हो जाता है "नहीं मिलेगा भाई, नहीं ये चीजें थोड़ी मिलती हैं। मेरा कितना मोबाइल खो गया आज तक नहीं मिला। चलो भोजन करो।" "अब आप ये समझिए कि हमारी टबेरा बनारस चोरी हो गई आज तक नहीं मिली जो कोई भी ऐसा काम करता है वह वापस करने के उद्देश्य से थोड़ी करता है" मैं उबर की वेबसाइट से नंबर खंगाल रहा था लेकिन कस्टमर के लिए कोई ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं थी। मैंने वेबसाइट के सहायक सेक्सन पर शिकायत दर्ज कराई लेकिन कोई जबाब नहीं मिला। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी पास की खाली टेबलों पर लोग बैठते गए। शोर बढ़ता गया उस शोर में खुशियों की आवाज और चिंता की भुनभुनाहट दोनों शामिल थे। दोनों बच्चे उसी शोर में खेल रहे थे। यह उनके लिए खास दिन था। कुछ उदास चेहरे तो कुछ उल्लासित। मानों उस ड्राइवर ने संसार की परिभाषा दिखाने के लिए ऐसा कुछ किया हो। 
क्या एक साथ सभी खुश रह सकते हैं। क्या किसी के सुख में दूसरे के दुख के लिए स्थान है? या किसी के दुख में सामने वाले के सुख के लिए स्थान है? सभी की अपनी सीमाएं हैं। सभी उस सीमा में रहकर अपना जीवन जीना चाहते हैं। मैं अपनी सीमा में बैठा रोटी खा रहा था और अपने दोस्तों से इस विषय में उचित सलाह ले रहा था। लेकिन कहीं से कोई संबंधित ठोस जानकारी और मदद नहीं मिल रही थी। मैंने मैनेजर से कैमरे में गाड़ी की जानकारी देखने के संबंध में बात की वह वापस से अपनी तीक्ष्ण मुस्कान के साथ ज़बाब में कहा "हमारे यहां के कैमरे बाटम ब्यू पर सेट हैं आप दिख सकते हैं लेकिन गाड़ी का नंबर नहीं" इस बार मुझे उसके झूठे मुस्कान से कुछ ज्यादा चिढ़ महसूस हुई। लेकिन दाढ़ी के भीतर चमकते दांतों को दिखाते हुए उसने कहा सामने पुलिस का कैमरा है जो चौराहे की निगरानी करता है आप वहां देख आईए। मैं उसे धन्यवाद कहता हुआ वहां पहुंचा तो उसने मुझे कोतवाली में शिकायत दर्ज करने की सलाह जी। बिना उसके कैमरे को देखने की इजाजत नहीं है। मैं वापस भीतर गया फूआ के आंसू अब अचानक से कभी बढ़ जाते तो कभी एकदम से सूखे हुए मुझे ताक रहे थे। मैं इस उम्मीद में आंसूओं से भरे आंसू में मेरा चेहरा धूंधला नजर आता होगा खुद के लिए जगह ढूंढ लेता। मैंने अपने नए पहचान के व्यक्ति जिसके साथ मैं कैब में कानपुर से लखनऊ आया था जो उबर में कर्मचारी था उससे यह बात साझा की उसने हर संभव मदद करने का वादा किया। 
फूआ बीच-बीच में पूछती रहती "छोटू हमार मोबाईल मिल जाई न?" और मैं पहले तू रोना बंद कर के ज़बाब से अपने मोबाइल को घूरता रहता। मैंने फूआ को कहा तु घर जो हम लोग कोतवाली जाकर शिकायत कर देब। लेकिन फूआ की जिद जो भावना से लिप्त थी जिसमें अपने मोबाइल के खो जाने का दुख था उसने अपना फैसला यह कहते हुए सुनाया कि "मोबाइल हमार बा तो हम भी चलब"।
सभी लोग घर चले गए और बाबा,फूआ,फूआ और मैं हज़रतगंज कोतवाली में शिकायत दर्ज करने के लिए पहुंचे। कार्यालय का पता लगा जब हम वहां पहुंचे तो वर्दी में खड़ा व्यक्ति ने हमें नियम के तहत सारे कार्य करने की सलाह दी। मैंने यूपी पुलिस का ऐप्लिकेशन डाउनलोड किया और घटनास्थल से जुड़ी सभी जानकारी और विस्तृत जानकारी की मदद से शिकायत दर्ज कराई। बाबा फोन पर किसी पदस्थ व्यक्ति को इस बात की जानकारी दे रहे थे। सामने खड़ा मददगार इस बात से चिढ़ रहा था कि क्या जरूरत है इसकी हम काम तो कर रहे हैं ना.. । अभी आप फोन कर देंगे फिर भी सर्विलांस पर तो सुबह 10 बजे हीं नंबर लगेगा। मैं अपनी परेशानी में फूआ को खींच लाया। फूआ कि ओर इशारा करते हुए बोला सर, फूआ का फोन खो गया है वो बहुत परेशान हैं। नया फोन था और फूफा जी उन्हें उनके जन्मदिन पर पिछले महीने भेंट दिया था। आज फूफा जी का जन्मदिन है और आज सारा कुछ जैसे धुल गया है।
मैं समझता हूं आपकी बात लेकिन काम तो सुबह हीं होगा ना। 
मेरे पास कोई तर्क नहीं था। फोन के वापस मिल जाने की इच्छा थी। उस इच्छा पूर्ति के लिए जो भी योजना कारगर हो मैं उसपर चलने के लिए तैयार था। पिछले कुछ दिनों से फूआ आईफोन खरीदने की तैयारी में थी। मुझसे उसके बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रही थी। लेकिन अब फूआ ने इस मोबाइल के खो जाने के बाद कोई भी फोन लेने से इंकार कर दिया था। मेरे लिए इस फोन का खोना मेरे द्वारा फूआ को दिए गए सबसे बड़े दुख के समान था। कुछ दुख ऐसे होते हैं जिनका कोई मूल चेहरा नहीं होता मात्र कारण होता है। मैं वो कारण था चेहरा अब भी अपने झूठ को लिए कहीं चैन से भटक रहा था। 
सभी वापस घर पहुंचे। फूआ का जिंदा प्रश्न अब बदल चुका था।
हमार मोबाईल कैसे खो गईल, किस जगह...
अब का होई? 
अब मोबाइल मिल जाई?
अब पकड़ा जाई ना वो?
और नाई मिलल तो?
मैं हां.. हां में अपना सिर हिलाता रहा। 
फूफा जी ने जबाब में कहा, मिल जाएगा तो अच्छे है। 
फूआ ने झूठा रोष दिखाते हुए कहा आप तो चाहते हीं है कि ना मिले। 
घर पहुंचकर सभी अपना-अपना कोना पकड़ लिए थे। मैं बार-बार अपना मोबाइल चेक कर रहा था। दोस्तों के मैसेज, ट्विटर के ज़बाब के इंतजार में अपनी उंगलियां मोबाइल पर मार रहा था। तभी मुझे आशीष द्वारा ड्राइवर का नंबर मिला। नंबर मिलते हीं मेरे पूरे देंह में तेज झनझनाहट हुई मानों एक आदि काल से दबा हुआ क्रोध मस्तिष्क पर पहुंचने के लिए उफान मार रहा हो।
मैंने उसे फोन किया। 

विवेक? 

हां, कौन? 

मैं, जिसे आपने आर्यन पर ड्राप किया था।

हां भईया बोलिए।

आप मेरा मोबाइल लेकर चले गए महाराज।

अरे नहीं भाई आपका मोबाइल हमारे पास होता तो तुरंत दे दिए होते आपको। आप फोन करते तो घंटी तो बजती। 

मैंने फोन किया था आपने स्विच आफ कर दिया है। आपने हीं लिया है मेरा फ़ोन। 

अरे भैया हम नहिया लिए। का मिले हमके। 

मैं नहीं जानता, मैंने पुलिस में शिकायत दर्ज कर दी है अब आप समझिएगा। सुबह तक मुझे मेरा फोन चाहिए। 

अरे भैया क्या मिलेगा आपको हमारा कंप्लेंट करके गरीब आदमी हैं। हमार आदमी केतनन के मोबाइल गाड़ी में पाएन दे देहन। हमार दुल्हा पूरा सूटकेस पाएन फोन करी के वापस कई देहन जेकर रहा। यह आवाज महिला की थी।

मुझे नहीं पता आप चेक करिए गाड़ी में और मुझे बताइए। 

अरे!भाई साहब आप उतरे फिर हमको जो है दूसरी बूकिंग मिल गई अब कौनो पैसेंजर ले गवा होई तो हम का करबे? हमारे पास नहीं है। 

और मैंने फोन रख दिया। 

नेहा इन सारी बातों को सुन रही थी। उसने ताना देते हुए कहा इतना प्रेम से बतियइबा त नाई दीही। गांधी का दौर नहीं है मोदी का दौर है। 
मैं उसे ज़बाब दे सकता था लेकिन मेरी उलझन कुछ और थी। मैं गांधी जी के सत्य और अहिंसा के तर्क से आज के भ्रष्ट नेताओं पर गांधी के व्यक्तित्व खर्च नहीं करना चाहता था। गांधी के नाम पर मिलते सम्मान को कैसे उन्हें गाली देने में उपयोग किया जाता है इस लड़ाई से अलग मोबाइल को पाने के लिए गुल्लक में कैद सिक्कों की तरह भीतर से बज रहा था। जिसपर गांधी की तस्वीर नहीं होती। गरीब की उम्मीद होती है। 
नेहा ने सारी बात फूआ को बताई। 
फूआ का आत्मविश्वास थोड़ा सघन होता नजर आया। 
"अब हमार मोबाईल मिल जाई"
का बोललक साला? 
वहीं लिया है, पक्का वहीं लिया है। हम क्राइम पेट्रोल देखले ही। वहीं है साला।
फोन लगाव उसके हम बात करब। 
मैंने कहा फूआ वो सुबह बात करी अभी सूतल बा। 
तु चुप रहा इतना सीधा मत बन, हमार मोबाईल चोरी करके सुतल बा और हम लोग यहां परेशान ही। अभी फोन कर। साला के हडकाईब तो समझ में आई। जेल में डलवाईब साला के।
अरे! फूआ सुबह बात कर लिहे। और इस नोक झोंक में सुबह उससे बात करना तय हुआ। 
मैं पूरी रात बदलते करवट के सहारे सुबह का इंतजार करता रहा।
फूफा जी भोर में हीं बस्ती के लिए निकल गए। 
सुबह मैंने ड्राइवर का नंबर अवधेश भैया को इस व्याकुलता से डूबता हुआ दिया कि उनकी हड़क का असर उसपर ज्यादा मजबूती से पड़ेगा। शायद यहां मेरा शांति प्रिय व्यवहार उसके पोषित झूठ को नहीं तोड़ पाएगा। 
भैया ने फोन किया और बताया कि उन्होंने उसे डराया है। वह कुछ देर में फोन करेगा। 
इधर फूआ ने चिंता के स्वर में पूछा का भईल? और मेरे द्वारा दिए ज़बाब से वापस उखड़ पड़ी और खुद उससे बात करने का निर्णय लिया। 

भैया मैं वहीं बोल रही हूं जिसे आपने कल आर्यन पर ड्राप किया था। 

हा! हा! हा!  हंसते हुए अरे! मैडम मैंने आपका मोबाइल नहीं लिया है। मैं कल से परेशान हो गया हूं। इतना फोन आ रहा है मेरे पास। 

अरे! तो आएगा हीं ना आपने ऐसा काम किया है। मेरा मोबाइल रख लिया आपने। हम सभी लोग फोन लगाते रहे आपने तुरंत स्वीच ऑफ कर दिया। 

अरे! मैडम हम कौन का आपका मोबाइल लेके करोड़पति हो जाएंगे? 

तो क्यों लिया आपने फोन? देखिए मैंने पुलिस में आपका नंबर दे दिया है। अब आपके साथ जो होगा उसके जिम्मेदार आप खुद होंगे। 

इतने में बाबा इन बातों में कूद पड़े थे। उससे बोलो हम नहीं कह रहे कि आपने लिया है लेकिन आप चेक करिए अपने गाड़ी में दोबारा से। 

मैडम मैं चेक कर लिया हूं।

तो दोबारा चेक करिए। आपके हीं गाड़ी में है मेरा फ़ोन।

ठीक है चेक करके बताता हूं। 

ठीक है। 

और फूआ ने लंबी सांस ली मानों रात की चिंता में उसे सांस कुछ कम आई हो जो अभी पूरी हो रही हो। 
दूसरी तरफ बाबा ने किसी स्थानीय नेता को उसका नंबर भेज दिया जो किसी बड़े पद पर आसीन थे। 

कुछ देर बाद ड्राइवर का फोन आया...
बिल्कुल बत्तमिजी भरे स्वर में जहां चोरी का कोई अफसोस नहीं था। झूठ के लिए कोई ग्लानि नहीं थी। 

अरे! मैडम बैट्री नहीं था क्या ? मोबाइल स्विच आफ सीट के नीचे पड़ा मिला।

फूआ ने अपने शांत हाथ और चंचल आंखों से पहले हीं हमें सूचित कर दिया था कि मोबाइल मिल गया है। उसका झूठ हार गया है। उसका चालाक झूठ डर गया है। 

कोई नहीं भैया आप मोबाइल दे दीजिए। थैंक्यू भैया। 

गोल्डन कलर है ना? 

हां.. हां।

और फोन रख दिया गया। 
सभी ने सुख की सांस ली। एक चिंता जो मुझे छील रही थी मैंने उसके दर्द को पानी पीकर समाप्त किया‌‌।
फिर सभी ने अपने अतीत से जुड़े झूठ और सच को अपने नजरिए से तौला। सभी के पास ईमानदारी के किस्से थे। 
मेरे पास कोलकाता का किस्सा था जहां आई.सी.एच. के एक कर्मचारी की ईमानदार नियत की वजह से मैं दो घंटे बाद भी अपना मोबाइल वापस पाया था। बाबा के पास दिल्ली और कन्याकुमारी का।

मैं बैठा उस ड्राइवर के बारे में सोच रहा था जिसका झूठ बिल्कुल हीं अमानवीय था। जिसके झूठ से सभी घृणा कर रहे थे जिसने 7 जुलाई को एक दूर्दांत घटना के तौर पर हमारे दिमाग में दर्ज कर दिया था। जिसके कृत्य ने बहुत से सोचे हुए काम पूरे नहीं होने दिए। जिसने उस रात मनने वाली खुशियों को अपनी झूठ से काला कर दिया‌। मैं उसकी पिपासा पर हंस रहा था। झूठ कितना कमजोर होता है जो हल्की सी डांट और थोड़े दिखाए हुए डर से कांपने लगता है। कल का उसका बोला हुआ झूठ कैसे आज उसके आचरण से दूर भाग गया? 
क्या सत्य और झूठ के मध्य डर एक माध्यम है उसकी मूलता को परिवर्तित करने के लिए। 
क्या सच को भी डर दिखाकर झूठ में बदला जा सकता है? 
क्या सच के भी मानवीय और अमानवीय रूप होते हैं? 

थोड़ी देर में उसका फोन आया वो अपने बताए गए पते पर मोबाइल देने की बात कह रहा था लेकिन फूआ ने सूझबूझ से उसे 10 बजने और पुलिस द्वारा उस पर किए जाने वाले कारवाई का डर दिखाकर उसे मोबाइल देने के वाध्य किया। 

वह मूलतः अपने झूठ से बुरी तरह डरा हुआ था जिस कारण वह हमारे क्रोध और व्यग्रता से परिचित था। इस कारण वह आने से इंकार कर रहा था लेकिन कुछ समय बाद वह मोबाइल देने उसी गाड़ी से आया उसमें कुछ यात्री भी बैठे हुए थे। जिसमें हमनें कल त्रासदी भरी यात्रा की थी। और ड्राइवर झूठ के विस्तार को लिए आगे बढ़ रहा था। गाड़ी में बैठे लोग उस झूठ से अंजान थे। वो वैसी हीं बेशर्म सी हंसी हंसकर मोबाइल देता हुआ झूठी यात्रा पर निकल गया। 
घर आते हीं फूआ ने कहा..
"छोटू हमार मोबाईल मिल गईल"
"नेहा हमार मोबाईल मिल गईल"
"मम्मी हमार मोबाईल मिल गईल"... उ त हम.. कहते रही की मिल जाई। जब ओकर नंबर मिलल तबे हम जान गईली की मोबाइल मिल जाई। 
फूआ ने फूफा जी को फोन किया। 
"बाबू मेरा मोबाइल मिल गया"
"उसने क्यों लिया होगा मेरा मोबाइल?"

इसका एकमात्र कारण लालच हो सकता है और शायद कुछ भी नहीं। या गरीबी से ऊपजी कोई तृष्णा जिसे आलस से पूरा करने का एक रास्ता उसे मोबाइल को देख नजर आया हो। जहां उसका आलस स्वयं को विजयी मान बैठा हो।

बाबा ने यह जानकारी उसी स्थानीय नेता को संदेश के रूप में भेजने के लिए कहा। 
मैंने व्हाट्सएप खोला तो उसमें एक विनोद नाम के व्यक्ति का संदेश आया हुआ था। "भाई साहब मेरा बेटा नहीं रहा" 
मैंने बाबा से कहा, बाबा आप इनसे बात कर लीजिए।
उधर से आवाज आई भाई साहब सब बर्बाद हो गया। अब कुछ नहीं बचा। 26 साल का लड़का था मैं बचा नहीं पाया। कुछ नहीं बचा अब ऐसे हीं दिन कटेगा। बिना अर्थ के जीवन में भटकूंगा ‌ 
"सुन कर बुरा लगा विनोद जी क्या कर सकते हैं भगवान की यहीं आज्ञा थी। खुद को संभालीए। 
मिलता हूं आपसे।"

अभी-अभी मिली खुशी में इस दुख का प्रवेश हुआ था मेरे शांत मन में वापस से वहीं सवाल गूंजने लगा...
"क्या एक साथ सभी खुश रह सकते हैं। क्या किसी के सुख में दूसरे के दुख के लिए स्थान है? या किसी के दुख में सामने वाले के सुख के लिए स्थान है? सभी की अपनी सीमाएं हैं। सभी उस सीमा में रहकर अपना जीवन जीना चाहते हैं।"


फूआ पूरे दिन सभी को उत्साह से बताती रही कि हमार मोबाइल मिल गईल।
तोरा चलते हमार मोबाइल मिलल छोटू। 
मैं हल्का मुस्कुरा दिया। सच्चाई यह थी कि मेरे स्वतंत्र लापरवाही के चलते फूआ का मोबाइल गुम हुआ था। मेरी उस छोटी सी अनदेखी ने उस रात को काले बादलों से ढंक दिया था जिसमें फूआ के आंसू बरस रहे थे। जिसे देख भीतर से दुख अनुभव कर रहा था। ऐसा नहीं की फूआ को मैं पहली बार रोता हुआ देख रहा था और उस आंसू से पहली बार जुड़ा था। क्योंकि इस आंसू का कारण मुझसे होता हुआ उन तक पहुंचा था इसलिए मैं विचलित महसूस कर रहा था।
क्या इस चीज की माफी हो सकती है? एक वर्ष के सबसे यादगार दिन को इस प्रकार निर्ममता से बर्बाद करने की। जो पिछले वर्ष के तारीख दीवारों की खूबसूरती बढ़ा रहा था आज वो चुप था उदास। 
होटल की एक भी तस्वीर नहीं थी। सारा कुछ यदि योजना के तहत होता तो फूआ अभी तक मोबाइल से तस्वीरें चुन रही होती।
 
अच्छा ये बताओ अगर मोबाइल नाई मिलतक फिर? 
तु कल हीं चल जईते? का करते? 
पता नहीं फूआ, शायद इंतजार। मोबाइल ट्रेक होने तक।
भूल जो ये सब एक बुरे सपने की तरह। मत सोच ऐसा कुछ भी। तु आईफोन ले ले.. हमें अच्छा लगी‌।

पता नहीं कब लेब।
तु फूफा से पूछ।

हम का पूछब फूआ। 
उस दिन फूफा जी के देख के व्यथीत महसूस करत रही।
कितना शांत चेहरा बिल्कुल इंद्रधनुष जैसा जो आंसूओं की बारिश में निकल आया हो। 
जो सत्य था। व्याकुलता और आकुल के मध्य चैतन्य अवस्था हीं एकमात्र सत्य है।





Tuesday, June 27, 2023

शब्दों को सुना जा सकता है

शब्दों को सुना जा सकता है।
बोला जा सकता है। 
बिना कुछ बोले कुछ सुनने की प्रतीति हो सकती है। 
बिना कुछ सुने समझने की। 
अचानक से कोई संबंधित स्वप्न देखा जा सकता है जिसने नींद में जीवन को खांसता हुआ देखा हो।
और अगली सुबह तबीयत पूछी जाए। 
जहां वात्सल्य से सजी हुई चिंता है जो व्याकुल हो उठता है। 
शब्दों की सीमा और टूटती मात्राओं में नाराजगी का संशय मस्तिष्क पर घूमने लगे और फिर नाराज़ होने का कारण पूछ लिया जाए। नहीं-नहीं के ज़बाब में "चुप कर" अच्छे से पता बा।
फिर अपनी गलतियां स्विकार कर ली जाए।
कुछ उपहार हैं जो चुपके से, डांट कर बैग में रख दिए गए हैं। जैसे बड़ी बहन ने प्रेम की चंचल दृष्टि से कसमों की याचना में भेंट किया है। 
कुछ किताबें हैं जो जबरन भेज दी गई हैं। पढ़ें-अनपढे़ की द्वंद से अलग कुछ और उपयोगी भेजने की शिकायती स्वर में उन्हें स्थान दिया गया है। कुछ पढ़ा गया है कुछ के पन्ने अब भी अनछुए हैं।
एक नोट बुक है जिसे भेंट करना बाकी है।
प्रबुद्धता को उच्चतम स्थान पर रख अपनी परिपक्वता को संयमित रख चुप रहा जाए  फिर सारी पीड़ा बर्फ के ओलों सा टपकने लगे। 
चिंता,सुख,विपदा,करूणा,क्रोध,प्रेम के बाद जीवन की परिधि में तैरते हुए अपनी हिस्से की ली हुई गहरी श्वास को मैं पावन मानता हूं।
निश्छल
स्वच्छ।
जैसे गुल्लक में एकत्रित सिक्के जो बड़े वर्षों के अंतर के बाद भी उसी स्वर में खनखनाते है। मैं उसी 
स्वर,अनुराग,ईमानदारी को सजीव रखना चाहता हूं।
जन्म दिवस कि हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं फूआ। परमेश्वर आपको प्रसन्न रखें। जीवन के ऊहापोह में आपको शसक्त बनाएं। बिल्कुल स्वतंत्र।
डोर से बहुत दूर तक की सफर के लिए शुभकामनाएं।
मेरे लिए 27 जून हमेशा से "आम दिवस" रहा है। मैंने गांव के लोगों को आम के लिए झूठ बोलते हुए सुना है। अब उन्हें बोलते हुए भी सुनता हूं। झूठ या सच से अलग कहीं दंभ भरती हुई अहंकार से सजी भाषा। यह उसी आम का खास तोहफा है।.

Saturday, June 10, 2023

I am not afraid of my infamy




I am not afraid of my infamy. In the days of childhood, I have suffered hatred and wickedness down to the bottom layer regarding my face, body and form. I am burnt with anger generated in myself by that wickedness. Shyam Tripathi ji's stick has peeled off my body. Bonu Lata behen ji has taught me to speak by touching that shavings. Have seen people silently as well as those who make them silent. I will welcome even the worst of people into my world and embrace the best of the best. I am and will stand by who you are in response to who you are. I will love the books that inspired me. I will consider those people as God who happily accepted me with my good and bad. If I will be more happy then I will stand in front of the sadness sticking on Aishwarya's face. And if I feel too sad, I will dedicate myself in the middle of a book. I will write something on a blank page.
Https://itspc1.blogspot.com

Friday, May 26, 2023

चेहरा

बुरे वक्त का चेहरा कैसा होता होगा? 
ज़बाब अति कठिन है। 
बुरे वक्त को पहचानना सरल लेकिन उसका वर्णन करना कठिन।
हम उसकी रूप रेखा कभी नहीं खींच सकते। खींचने के प्रयास में हमें आंसूओं की बाढ़ हाथ लगेगी जिससे सभी दूर भागना चाहते हैं। 
अच्छे वक्त के चेहरे को मैं पहचानता हूं। 
मेरे लिए अच्छा वक्त जो इस तस्वीर में दिख रही हैं वो हैं। चाची।
मां का वर्तमान जब तक वर्तमान रहेगा इनका ऋणी रहेगा। जीवन पर किसी का हक नहीं होता लेकिन साथ जीवन को नई दिशा देता है। जब साथ कोई नहीं था तो चाची का हीं साथ था। अपनी स्थिति से उठकर करना हर व्यक्ति का स्वभाव नहीं होता। वह स्वभाव हर कोई अंगिकार नहीं कर सकता। वह चाची का स्वभाव था। उसी स्वभाव ने मेरे घर को सींचा है।
उस साथ को किसी भी लड़ाई द्वारा भुलाया नहीं जा सकता। नफरतों की खाईं भी यादों को गुम नहीं कर सकती। 
लड़ना व्यक्ति का हक हो सकता है। त्वरित क्रोध का उजजवलीत रूप हो सकता है। भीतर उठती टीस की तपिश हो सकता है लेकिन स्वभाव नहीं।

वेडनेसडे विथ मौरी

पिछले तीन महीनों में इनसे दूसरी बार मिलना हुआ। माईकल स्टीव हां यहीं नाम है जर्मनी से हैं। अजीब सी आवाजें निकालते हैं। चलते-चलते दौड़ने लगते हैं फिर अगले हीं पल जम जाते हैं। बैठे-बैठे सो जाते हैं। पहली नजर में हीं मुझे इन्हें देखकर मौरी की याद आई थी। 
मिच एलबम की किताब ट्यूजडे विथ मौरी के मौरी जी। 
इनका बाहें फैलाकर तेज हवा को महसूस कर उड़ने की कोशिश करना बिल्कुल मौरी जैसा है। बुझी हुई सिगरेट को कमरों के कोने में छुपा देना मौरी के अपने आसपास बिखरे गंदगी को छुपाने जैसा है। 
मैंने इनसे कहा आप मौरी जैसे दिखते हैं। आपके व्यवहार में समानता है। 
कौन मौरी? 
मैंने मौरी की नाचती हुई तस्वीर दिखाई उस मौरी कि जिससे किताब के माध्यम से जुड़कर मैं कई सपनों में उनसे मिलता रहा। निंद में बड़बड़ाता रहा। आंसूओं का गिलापन तकिए पर महसूस करता रहा। 
उन्होंने तस्वीर देखकर कहा , हां थोड़ा-थोड़ा। और नरम मुस्कान बिखेर दी। मेरे लिए इनसे मिलना मौरी से दूबारा मिलने जैसा था। मैं वेडनेसडे विथ मौरी कह सकता हूं। पिछली बार एक सप्ताह का साथ प्राप्त हुआ था। 
पिछली बार जब इन्हें सिगरेट पीता देख मैंने साथ के सुरेश के लिए कहा था यह भी सिगरेट पीता है तो उन्होंने आंखों को लाल कर कहा था नहीं यह तुम्हारी उम्र नहीं और कभी नहीं और अगले हीं पल एक सिगरेट आगे परोस दी थी। वो दिन भी वेडनेसडे था।
-पीयूष चतुर्वेदी

मिट्टी जितना मौन

शांत.. बहुत शांत..
वास्तव में हमें कितना शांत रहना था?
या हम वर्तमान में कितने हैं?
और भविष्य में हमें कितना शांत होना चाहिए?

नदी जितना शांत जो बह रही है मिठी ध्वनि खुद में पसारे।
या पेड़ के कांपते पत्तों जितना शांत जिस आवाज में पक्षियां पत्तों की चादर ओढ़ गहरी नींद में सो जा रही हैं।
उन चिड़ियों जितना शांत जिनकी चटचटाहट रात के अंधेरे में मौन हो जाती है।
या झींगुर जितना शांत जिसकी खीर-खीर की अटपटी आवाज दिन के उजाले में मानवों की भीड़ में खो जाती है।
या फिर उन जुगनू की तरह जिनका अस्तित्व दिन के उजालों में समाप्त हो जाता है।
या सूने खाली मकान में घर बनाते प्रकृति जितना शांत।
प्रसव पीड़ा से मुक्ति मिलने पर अपनी संतान को निरीह दृष्टि से निहारती मां जितना शांत।
या पुत्र की अंतिम यात्रा को आंखों से देखती मां जितना मौन।
या प्रकृति जितना शांत..
मिट्टी जितना मौन। 
या आर्द पत्तों जितना एकांकी।
-पीयूष चतुर्वेदी

मृत्यु को हम जीते हैं

जीवन और मृत्यु में हम जीवन को कभी नहीं चुनते। 
जीवन का चुनाव हमारे लिए एक घटना मात्र है। 
सत्य मृत्यु है। और जन्म सत्य पर चलने, भटकने , बिदकने , संवरने, बिगड़ने का मार्ग।
मृत्यु को हम जीते हैं। उसे चुनते हैं। हमारा क्रियाशील रहना जीवन को चुटकुले सुनाने जैसा है। जिन्हें सुनकर हंसते हुए जीवन को हम सत्य के साथ खड़ा करते हैं। अच्छे मृत्यु की कल्पना हीं हमें अच्छा जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है। 
मैं तब तक जीना चाहता हूं जब तक मृत्यु को नहीं चुन लेता। ठीक मृत्यु से पहले मैं समर्पण करना चाहता हूं। समर्पण उस मार्ग का जिस पर मैं चलता आया था। अपनी गलतियों का समर्पण। 
मैं भटकना चाहता हूं। तब तक जब तक मैं सत्य को प्राप्त नहीं कर लेता।
सत्य अच्छाई की पगडंडी पर रेंगता वह शख्स है जो अकेला चलता जा रहा है। 
उसने बोला...
उसने कहा..
उसने देखा.. 
उससे पूछो..
जैसे किस्सों में अपने को रखना चाहता हूं। उस रखे हुए में अपनी जबाबदेही तय करना चाहता हूं। 
चुप नहीं रहना चाहता। 
चुप्पी अक्सर हमें मनुष्यता से दूर फेंक देती है। आत्म सम्मान का ढींढ़ोरा पीटने वाले को अक्सर चुप रहते देखा। 
हंसने से मुस्कुराते फिर चुप होने तक के समय में चुप होना मृत्यु है। अधरों का समर्पण भी मृत्यु है। बुरा न देखो
बुरा न बोलो
बुरा न सुनो
के तर्क में बुराई के खिलाफ बोलने की मनाही नहीं थी बुरा बोलने की मना थी। 
शायद इसमें भी गांधी का कोई दोष हो। 
मैं बोलना चाहता हूं। जब तक मेरा मुस्कुराना शांत नहीं हो जाता। 
मैं जीना चाहता हूं जब तक सामने बैठा चुप सा व्यक्ति कुछ बोल नहीं पड़ता। जो उसे बोलना था।

वो चुप क्यों हैं?

मैं चुप रह नहीं पाता इसलिए चुप रहने वाले लोगों से दूर चला जाता हूं। 
किसी चुप सी जगह।
इतनी चुप जहां मेरी आवाज़ कुछ देर स्वयं को सुनाई दे। 
मेरे आसपास बड़े चुप से लोग रहते हैं। 
गांव भी अब चुप रहने लगा है।
पेड़, पत्ते, कागज सभी चुप हैं। 
पेड़ को काटने वाले।
पत्तों को जलाने वाले और कागज को जेब में छुपाने वाले भी चुप हैं। 
मेरा उनसे प्रश्न है कि वो इतने चुप क्यों रहते हैं? 
स्थान की चुप्पी समझ आती है इंसान की नहीं। 
स्थान हमेशा से चुप थे हैं और रहेंगे। स्थान की कहानी तो इंसानों ने सुनाई है।
स्थान का चुप होना उसके बूढ़े होने से संबध रखता है।
और इंसान का समझ पाना मुश्किल है। कुछ लोग जो चुप हैं वो खुद को सफल मानते हैं। कुछ लोग भी उन्हें सफल मानते हैं। क्या सफल होने के बाद लोग चुप हो जाते हैं? 
सही-गलत पर उनके विचार शून्य हो जाते हैं?
क्या वो डर जाते हैं? 
वो सफल क्यों हैं?
वो चुप क्यों हैं?
मैं वापस चुप सी जगह पर जाऊंगा और पूछूंगा वो चुप क्यों हैं।

Thursday, May 25, 2023

मैं इस गुणा भाग से दूर शून्य को लिख दूंगा

मैं अपने बोलने में झूठा हो सकता हूं। उस झूठ को सामने वाले अपने उपस्थित में जकड़ ले मुझे कोई अफसोस नहीं। पकड़े जाने का भी कोई डर नहीं।
लेकिन लिखे हुए में ईमानदार रहना चाहता हूं। ठीक वैसा जैसा मैं हूं। 
जैसा मैंने जीया है। 
जैसा मेरा दर्शन है। 
जैसा मैं ठीक-ठीक बोलना चाहता हूं। लेकिन नहीं बोल पाता हूं। 
मेरे ना बोल पाने की टीस मेरे लिखे हुए में चलती रहेगी। 
उस रेंगतीं टीस के साथ मेरे प्रति प्यार और नफ़रत को जीते लोग किसी पूर्ण विराम पर मेरे साथ अतीत की गहरी स्वांस लेंगे जहां उन्होंने जीवन को मेरे साथ चखा था?
या किसी प्रश्न पर ठिठककर मुझे ज़बाब देंगे? मुझसे संवाद करेंगे? अपनी 
दक्षता
सफलता
और दंभ को शून्य मान।
मैं इस गुणा भाग से दूर शून्य को लिख दूंगा उस शून्य को जो मैं बोल नहीं सकता। उस शून्य को जिसे मैं रिश्तों के दशमलव के पीछे नहीं लगाना चाहता।
उस निश्चिंतता में उड़ता हुआ कि मुझे उसके ज़बाब लिखकर भेजे जाएंगे या बोलकर।‌ जिसमें कोई संख्या दशमलव के आगे जोड़ी जाएगी या उसे काटकर शून्य ही रखा जाएगा। जो अतीत में कहीं दशमलव से आगे थी।
या उनके उत्तर कभी नहीं मिलेंगे। शायद वो भटकते रहें एक दूसरे के कानों में कूदते हुए। जो मेरे कानों तक पहुंचने में थक चुके होंगे। एक जर्जर सी आवाज लिए जो मेरे कानों के सतह पर आते हीं बूढ़ी दीवार सा ढ़ह जाएंगे। 
क्या वो ढ़हा हुआ शून्य होगा? या मैं एक हारे हुए अतीत के साथ 10 गिन रहा हूंगा? 
10 वर्ष
10 लोग
10 शिकायतें
10 हीला
10 उपालंभ 
या दस रूपए का नोट जो किसी उम्र में मेरे हाथ में चिपकी रहती थी।
वो ढ़हा हुए उत्तर मेरे जीवन का संतोष होगा। जिसे मैं अपने विश्वास से कहीं आगे किसी पन्ने पर फैला दूंगा। बिल्कुल उबड़-खाबड़ सा जीवन। जिसके पहाड़ बिल्कुल शांत और समतल होंगे। जिसकी नदी में एक लोटा पानी होगा। लोटा वहीं दस रूपए वाला जिससे मेरा मोह छूट चुका होगा।
जिस फैले हुए का विस्तार इतना वृहद होगा कि कोई भी हिसाब लगाना असंभव है।

Wednesday, May 3, 2023

क्या आपने मेरे दुख को चखा है?

संसार को जीया जा सकता है? 
या उसे देखा जा सकता है?
मैंने लोगों को बकबकाते सुना है मैंने जीवन जिया है। कुछ अपनी दंभ को छोटा रखते हुए अपने बड़े दर्शन का परिचय देते हैं और कहते हैं उसने जीवन जिया है। उसने दुनिया देखी है। 
मैं हमेशा इस मामले में खुद को हल्का महसूस किया है। मैंने दुनिया उतनी हीं देखी है जितना मैं चल पाया हूं। मेरा सारा देखा हुआ चलते हुए मेरे साथ चलता है फिर जैसे हीं मैं ठहर जाता हूं। मैं उसे जीने लगता हूं। मेरे देखी हुई दुनिया को अपने ठहराव में मैं जीवन जैसा पाता हूं। जैसे मेरा चलना मेरा दुनिया देखना है और ठहरना जीवन जीना। इन दोनों की बीच मेरा संसार अपनी सांसें ले रहा होता है। जब कभी मैं थक जाता हूं मेरा संसार भी थक जाता है। मेरे उदास होने पर संसार हंसता है। और मेरे हर्षित होते हीं वह मुझसे उत्तर मांगता है। जीवन को गालियां देता है फिर ठहरा हुआ जीवन दुनिया के दरवाजे को तेजी से खटखटाता है और उसके खुलते हीं दुनिया घूमने लगती है। 
मेरा देखा हुआ
जीया हुआ 
भोगा हुआ संसार मेरे दुनिया और जीवन के बीच भटकता रहता है। अपनी यात्रा दोहराता रहता है। मानों जैसे उसके शांत होते हीं दुनिया अंधी हो जाएगी और जीवन मौन। शायद यहीं कारण है कि मेरा डरा हुआ संसार दुनिया के घाव को कुरेदता है जिससे जीवन की सड़ांध पीब निकलती है। और उस मवाद से उपजे दुख को देंह पर ढ़ोता हुआ मैं रेंगता हूं। ताकि मैं कह सकूं देखो मैंने जीवन जिया है। 
मैं कोई अकेला नहीं जो अपने जीवन के मवाद को ढो़ रहा हूं। सभी उसे अपने देंह पर पपड़ियों सा लपेटे हुए चल रहे हैं। जिसे समय-समय पर दुख की कहानी के रूप में किसी के सामने झाड़ दिया जाता है। धीरे-धीरे यह दुख हमारे संघर्ष की कहानी बन जाती है। और संघर्ष हर सफल और असफल मनुष्य ने बराबर किया होता है। कुछ का संघर्ष सफलता के दरवाजे से भीतर प्रवेश कर बड़े मकान में कैद हो जाता है और कुछ अपने संघर्ष की खिड़की से उन मकानों को ताकते हैं जो उनके सपने में आता था। जो अपनी पीब की पपड़ी किसी के सामने नहीं झाड़ते वो किताब की दुकानें खोल लेते हैं। अपनी कहानी को किताबों में ढूंढते हैं। उस लेखक को बार-बार पढ़कर। पन्नों को कमजोर करके। उसके हिस्सों को रेखांकित कर उसे बताते हैं कि यह मेरी कहानी है। आपने इसे अपने संसार में मेरे संसार को जीया है जो मैं पढ़ रहा हूं। क्या कुछ लोग एक जैसी जिंदगी जी सकते हैं? क्या कुछ लोगों की कहानी एक जैसी हो सकती है? क्या आपने मेरे दुख को चखा है? मेरे सारे हल्के और खाली सवालों के ज़बाब में मैं आपको पढ़कर अपने दुख का फोड़ा फोड़ रहा हूं। जो इसी किताब में आपके लिखे शब्दों में हमेशा छुपा रहेगा। 
कानपुर स्टेशन पर एक बूढ़े बाबा दुकान पर बैठे किताब हाथ में लिए अपने घाव फोड़ रहे थे। उससे निकलती पीब का अक्स मैं उनके चश्मे में देख पा रहा था। जो उनकी आंखों को थका रही थी। मैंने उनसे विनोद कुमार शुक्ल की किताबों की इच्छा जताई तो उन्होंने कहा शुक्ल जी की केवल नौकर की कमीज है। मैंने कहा मैंने पढ़ लिया है। फिर उन्होंने मेरी पसंद को अपने घाव के आसपास कहीं खुजली करता हुआ महसूस किया। उन्होंने इस दौरान अपनी किताबें बंद कर दी थी। कहीं वह मेरे पसंद को खरोच ना बैठें और मवाद ना फूट पड़े उससे पहले वो मेरे लिए किताबें ढूंढने लगे। 
मनोहर श्याम जोशी
धर्मवीर भारती
शिवानी गौर
मोहन राकेश
तरूण भटनागर 
ज्ञान चतुर्वेदी
निर्मल वर्मा जैसे एकांत और उत्साहित लेखकों के रैक पर मुझे लेकर आए। ठीक उसी समय मैंने अपनी आंखों के नीचे हल्की खुजली महसूस की जो धीरे-धीरे पूरे देंह पर फ़ैल रही थी। और बाबा अब बिल्कुल शांत मुझे देख रहे थे। मानों मुझसे कह रहे हों आपका घाव इन किताबों में भी बैठा है। अपने देंह के घाव इन किताबों तक लेकर आइए। घाव को भी अपने साथी चाहिए होते हैं। वो मित्र यहां है। मैं उन्हें अपनी पथराई और सजल आंखों से देखता रहा। उन्होंने मुझे ढ़ेर सारी किताबें प्रस्तावित की‌। 
क्याप
कसप
पिली छतरी वाली लड़की
वेदावा
गुनाहों का देवता
एक चिथडा़ सुख
अंतिम अरण्य
नदी के द्विप 
रश्मिरथी 
अंधा युग के साथ और भी कई। जिनमें से कुछ पहले से पढ़ी जा चुकी थी। मैंने उनकी कही से कुछ सुनी हुई किताबें चुन ली। चुने हुए में से निर्मल वर्मा जी की एक पुस्तक "एक चिथडा़ सुख" मैं कानपुर से वाराणसी के यात्रा के दौरान पढ़ने लगा। जब मैं एक चिथडा़ सुख पढ़ते हुए अपने दुख को महसूस कर रहा था तभी मैंने अपने पैर की उंगलियों पर थोड़ा दबाव महसूस किया। एक छोटी सी लड़की मेरे पैर पर अपने पैर से कूद रही थी। मेरी नज़र उसपर पड़ते हीं वो थोड़ा ठिठकी। उस ठिठक में मैं मुस्कुरा दिया। फिर वो बार-बार मेरे पैर पर कूद रही थी मानों वह अपने बचपन के वर्तमान पर खड़ी मेरे अतीत के बचपन पर कूद रही हो। मेरे भीतर दबे बचपन को कुरेद रही हो। जो कह रही हो तुम्हारे उम्र में खुशियां नहीं हैं। मात्र उनका समझौता है। कुछ देर बाद जब समझौता शांत हुआ मैं वापस किताब में वापस अपने घाव ढूंढ रहा था। सबसे नजदीकी घाव जो हृदय के सतही मांस के आसपास कहीं पनपी रही हो। बनारस में लगभग रात के १२ बजे मैं स्टेशन के शोर से शहर की भीड़ में पहुंचा। स्टेशन पर हजारों की भीड़ में लोग अपने घर को बैग में कैद कर पीठ पर टांगे आगे बढ़ रहे थे। मानों संसार का हर व्यक्ति वर्ष में एक दिन हीं सही लेकिन लंबे सफर पर अवश्य होता है। जहां वह भटकता हुआ अपनी जिम्मेदारियों से उपजी टीस से सबसे अधिक मजबूती से लड़ता है। उस भीड़ में से कुछ ने अपने घर को सिरहाने रख छिछली नींद ढूंढने का प्रयोग भी किया। जो वो अपने असली घर पर भी करते रहे होंगे। जहां चैन से सोने की थकान थी और यहां भटकने का हल्का सुकून। ठीक उसी वक्त मैं अपनी आधी नींद में सोया हुआ कानपुर के कमरे के बोझ को पीठ कर उठाए घर के लिए बस ढूंढ रहा था। मेरे घर जाने के बाद के सुख और दुख के ऊहापोह के मध्य सड़कों पर रेंग रहा था। उस घर की परिकल्पना कर रहा था जहां मां बीते दिनों की अपेक्षा और बूढ़ी हो गई होगी। लकीरें चेहरे की ओर भागती हुई भविष्य को स्वीकार कर रही होंगी। अथर्व की चुहल ने उनके दुख को थोड़ा और मन के निचले हिस्से पर ढकेल दिया होगा। भैया थोड़े थके हुए दिखाई देंगे। भाभी की तरुणाई को जिम्मेदारी के दीमक ने थोड़ा और जरजर किया होगा।

कुछ और भी पेड़ ठूंठ हो गए होंगे।  चिड़िया बरामदे में घोंसला लगा रही होगी। कुछ आधुनिक चेतना में डूबे,सजे व्यक्ति मुझे गांव का विकास दिखाते हुए कहेेंगे देखो कितना विकास हो गया है पहले यहां कुछ भी नहीं था। केवल जंगल था। हम लंबी दूरी पैदल तय किया करते थे। रास्ते में एक हीं कुआं हुआ करता था। प्यास से झटपटाते हुए हमनें पत्थर को मसलकर पगडंडी का आविष्कार किया था। मैं उनसे कहूंगा नहीं पहले यहां जीवन था। भविष्य ने जीवन की हत्या कर दी है। हमनें जीवन से घर को लूटकर अपने मकान बना दिए हैं। जिसे हम जीवन मान बैठे हैं वह ठीक-ठीक मृत्यु के करीब भटकना है।मकान के आंगन में कैद जल स्त्रोत सूख रहे हैं। हमारी पिपासा ने धरती को बांझ बना दिया है। फसल ज्यादा होकर भी हमारी भूख हल्की हो गई है।    रास्तों पर उड़ती धूल से हमारी सांसें हमसे दूर उड़ रही है। हम उसके पीछे सूजी हुई छाती लिए भाग रहे हैं। 
जैसा सारा भविष्य मेरी चेतना को जागृत कर रहा था। मानों मैं वर्तमान में भविष्य को जी रहा हूं। मेरी कल्पना इतनी स्थिर और ईमानदार रही है कि मैं अपने वर्तमान में जीये हुए भविष्य को वास्तविक भविष्य जो उस पल वर्तमान हो जाता है उसके आस पास संतुलित सा पाता हूं। गांव में पहुंचकर मेरी पहली नजर घर के बरामदे में लग रहे घोंसले पर जा टिकी जहां चिड़िया अपना घर बना रही थी और छिपकली पूवर्जों की तस्वीर पर रेंग रही थी। मां ने कहा देख तु आज अइले और चिड़िया घोंसला लगावे लगल।

मैंने उत्साह की दरवाजे से बाहर कूदकर पंखा बंद किया और छिपकली को तस्वीर से दूर भगाया। गांव में अपनों से मुलाकात हुई। ऐसा सारा कुछ मेरे साथ पहली बार नहीं घट रहा था। मैं ये सारा कुछ पहले से दोहराता आया हूं। इसी क्रम में  जीता आया हूं लेकिन इस बार मैं उनसे कुछ पूछने से डर रहा था। बूढ़े लोगों से मिलकर मैं उनके कुशल क्षेम पूछने से पहले व्याकुलता से भर जाता। मानों उसके ज़बाब के लिए मैं तैयार नहीं हूं। उनके द्वारा जीये हुए दुख की संजीवनी मेरे पास नहीं है। अपने सघन अवसन्न को ढ़ोता हुआ मैं उनके ढ़हने को नहीं संभाल पाऊंगा। मेरे बहाने बहुत हीं स्वार्थी हैं। मेरा लालच आपके दुख से भी बड़ा है। मैं यहां भटकता हुआ कुछ ढूंढ रहा हूं जिसके बारे में मुझे ठीक-ठीक कुछ भी नहीं पता। मैं शांत सा उनके समक्ष खड़ा हो जाता। उनके कुछ पूछे जाने पर भी शब्द मेरे मुंह से बाहर नहीं कूद रहे थे। उनके शब्द जो मेरे कान के आसपास भटक रहे थे वो मानों अतीत के झरोखे में घुसकर मेरे सुख को छील रहे थे। जिसके ज़बाब में मैं अपने पैर खुजा रहा था जहां वो लड़की कूद रही थी अपने बचपन को जिंदा लिए हुए ठीक उसी के आसपास। मैं बूढ़े लोगों से मात्र इतना कहना चाहता था कि आपने अपनी जिंदगी जी ली है। आधी उम्र वाले लोगों से मिलकर मुझे कहना था कि अभी आपको जीना बाक़ी है। लेकिन मैं सुख को ढूंढ़ना हुआ अथर्व के पास पहुंचा और उसके कान में कहा तुम जिंदगी जी रहे हैं। फिर मेरी आंखें द्वारिका को ढूंढने लगीं। कुछ वर्ष पहले मैंने ऐसा हीं कुछ द्वारिका से भी कहा था। मुझे उससे जानना था कि क्या अब वो जिंदगी जी रहा है? उससे मिलते हीं मैंने उससे तीसरा सवाल यहीं पूछा। ज़बाब में उसने कहा का पता भैया? मैं उसके ज़बाब से खुश था। अभी उसमें जीवन बाकी है। वो अब भी जीवन जी रहा है। अपने चेहरे पर उभरी एक धुंधली सी खुशी मैंने उसके आंख में देखी थी। उसके बाद मैं सुख और दुख के मंथन में रगड़ खाता रहा। 
क्या प्रेम, सुख है और नफ़रत, दुख? 
कितना छिछला और कमजोर जीया हुआ हमारे साथ चल रहा है। मौन को रौंदता हुआ। जहां प्रेम के पल में हम सुख बराबर बांटना चाहते हैं प्रेम अधिक मिले तो भी कोई शिकायत नहीं। और नफ़रत के पल में नफ़रत का अधिकार स्वयं चाहते हैं। इस लालच के साथ की सामने तड़पता व्यक्ति मुझसे प्रेम करें।
क्यों? 
क्योंकि किसी क्षण दुख के आंसूओं को उसने सुख की नदी दिखाई थी। क्या दुख अपने झरने को लेकर उस नदी में उसके साथ नहीं बहा था? उसकी काई को ढ़ोता हुआ। अतीत के मलीनता को पीता हुआ उसके सूखे को सींचता हुआ। 
नफ़रत को जन्म किसी एक ने दिया था? 
क्या मौन रहकर नफरत को जन्म दिया जा सकता है? 
नहीं। मौन रहकर प्रेम को जीया जा सकता है।



"दुख क्या है?"

जंगल का समाप्त होना?
नदी का सूख जाना? 
नदी में बाढ़ का आना? 
नदी में नाव का ना होना? 
पेड़ों का ठूंठ होना?
बेल के पेड़ का कट जाना या उसकी जड़ों का स्याही वाले कमरे के भीतर तक प्रवेश करना?
शिशु का आश्चर्य धूमिल होना? 
चिड़िया का चुप रहना? 
द्वारिका का बड़ा होना?
मां का रोना? 
हाथ की रेखाओं का चेहरे पर फैलना?
पुर्वजों की तस्वीर पर छिपकली का रेंगना?


"सुख क्या है?"

गांव में सड़कों का बन जाना?
पानी का घर के आंगन में पहुंचना?
गांव में तालाब बनना?
गमले में पौधों का हरा होना?
पेड़ में लगे फल को देखना?
बच्चों को अनुशासित रखना?
चिड़िया का घोंसला बनाना?
बच्चों का हंसना?
शिशु का जन्म लेना?
दीवार पर अपनी सुघड़ तस्वीर का चिपकना?

इन सभी प्रश्नों के उधेड़बुन के ठीक बीच मैं अपने ज़बाब तय कर रहा था। 
मेरे लिए दुख एक ऐसी त्रासदी है जो हर क्षण हमारे साथ होती है। सुख कुछ पल के लिए उसे स्पर्श करता है यह सूचित करने के लिए की जीवन सिर्फ तुम्हारा नहीं मैं हूं तुम्हारे आस-पास भटकता हुआ। बादलों सा, हल्की बारिश से उदास नहीं होना। ना हीं अधिक से उल्लासित। सूखा और बाढ़ दोनों तुम्हें जीना है। जैसे नींद में थके हुए सपने सुबह हमें पूरा जगा देते हैं। बिल्कुल खाली लकीरों के साथ। जैसे अननू मिस्त्री की हाथ बिल्कुल सपाट थे। बिना लकीरों के। मानों उनकी नींद बिल्कुल खाली हो। एकांत, बिना सपनों के। या सीमेंट की गर्मी उनके लकीरों को खा गई थी मैं इसके ज़बाब से अबतक अंजान हूं। मेरे मकान को उन्होंने ठीक-ठीक घर बनाया था। मकान जो धन के अभाव में खड़ा किया गया था उसे अननू मिस्त्री ने घर जैसा मजबूत बनाया था। जिसमें मकान को घर बनाने वालों की इच्छाओं का ध्यान रखा गया था। 
बीते दिनों उन्हें बूढ़ा हुआ देखकर मुझे मेरा घर बूढ़ा नजर आने लगा। उनके हाथ आब भी वैसे हीं थे सपाट मानों अभी उनपर कोई लकीर खींच दी जाए तो उनके सपने जिंदा हो जाएंगे। उनकी नींद मीठे सपने देखते पूरी हो जाएगी। लेकिन मेरा ऐसा सोचना मात्र सुख को गुदगुदी करना होगा उसे जीवित करना नहीं। बिल्कुल दुख के आसपास भटकने जैसा। जहां सिर्फ भटका जा सकता है उससे बात नहीं की जा सकती। किसी सूखी हुई नदी को देखकर उसके उदासी को बाल्टी भर पानी से समाप्त करने के बंजर सपने देखने जैसा। जहां सारा प्राप्त ऊसर है। अननू मिस्त्री के सपने जैसा जिस सपने में मेरा घर नहीं है‌। मेरा दुख भी नहीं। 


सुख मेरे लिए बाबा का भोजन को चखना है। 
फ़रवरी माह में गांव में यज्ञ का आयोजन था। गिरीश बाबा रायबरेली से घर आए हुए थे। उनके अतीत के कर्म इतने मार्मिक थे कि सभी उनसे मिलना चाहते थे। सभी बुजुर्गों के पास उनसे जुड़ी हुई मिठी यादें हैं। उनका नाम सुनते हीं कुछ पल की चुप्पी में सभी उनके अतीत से जुड़ जाते हैं। वो मनोरंजन के क्षेत्र में नहीं हैं ना हीं राजनीति के। उनकी इस प्रकार की लोकप्रियता को देखकर मैं खुश हो जाता था। मैं पूरे दिन मुस्कुराता रहता था। गांव के एक व्यक्ति ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया लेकिन अपनी बढ़ती उम्र और थकती अवस्था के कारण वो नहीं जा सके। अगली सुबह उस व्यक्ति ने अपने घर से भोजन से सजी हुई थाली उन्हें भेंट की। बाबा ने कहा कि अरे! भाई हम त भोजन कर लेली। 
कोई बात नहीं दादा बस थोड़ा सा चख ल। 
बाबा ने लगभग एक चुटकी से थोड़ा ज्यादा चावल अपने मुंह में रखा और सामने खड़ा व्यक्ति उनके पैरों पर निढाल हो गया। मानों उन्होंने उस व्यक्ति के जीवन को चखा हो। उसका, उनके प्रति सम्मान को स्थान दिया हो। बाबा ने कांपने हाथों से उन्हें आशीर्वाद दिया और भीगी हुई आंख से दीवार को देखने लगे। मैं खुद को उनके आस-पास रखने लगा। मानों उनके साथ से मेरे घाव भर रहे हों। जैसे दीमक लगे पेड़ की जड़ों तक ताजा पानी पहुंच रहा हो। स्याही वाले कमरे के रंग और गहरे होते जा रहे थे।
मैं अब अंतिम अरण्य पढ़ रहा हूं। जो सबसे पहले मुझे बनारस में एक बूढ़ी महिला ने पढ़ने के लिए सुझाया था। उनकी झूर्रियों में मुझे अपना दुख फंसा हुआ दिख रहा था। थकी हुई आंखें थीं जिन्हें पढ़ी हुई कहानियों ने थका दिया था। जिन्हें मैं यूनिवर्सल बुक हाउस में किताब ढूंढता हुआ छोड़ आया था। 
क्या दूबारा कभी उनसे मुलाकात होगी? 
या किताब पढ़ते-पढ़ते उनके घाव भर जाएंगे? और वो किताब पढ़ना बंद कर देंगी?
क्या मैं उनकी खुली आंखों में वो सारी कहानियां पढ़ पाऊंगा जो उन्होंने कभी पढ़ी थी? 
या सारा कुछ वैसा हीं मुझसे लड़ता रहेगा? 
मैं ऐसे हीं यायावर सा अपने घाव फोड़ता रहूंगा। 
एक अंतिम मौन तक।

Popular Posts

"पूर्णता" अब अयोध्या पूरा नजर आता है

का भैया पकौड़ी कैसे दिए? २० रूपया प्लेट। प्लेट मतलब, कितना रहेगा भाई?  अब राम जी के नावे जितना हाथ से उठ जाए।  अच्छा ठीक बा पकौड़ी संगे एक च...