सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Thursday, November 16, 2023

हमारे हाथ लगती है कुछ टूटी हुई खुशियां जिसे देखकर हम मुस्कुराते हैं और कुछ हताश दुख जिसके सहारे हम सुबकते हैं

गांव की यात्रा का प्रथम उद्देश्य गांव की महक और दिनचर्या अपने भीतर ठूंसकर शहर ले जाना होता है। ठीक उतने दिन का सामान जिसके सहारे गांव आने से ठीक पहले तक शहर को निगलता काला धुआं हमें बीमार ना कर दे। मैं ऐसे हीं जिता आया हूं। ऊबन सी जिंदगी। मैं एक निश्चित कार्य की पुनरावृत्ति से ऊब जाता हूं। फिर साप्ताहिक अवकाश में अपने ऊबन को गहरी आलस और मौन लेखकों की मदद से देह से झाड़ देता हूं।
गांव से मुझे ऊबन नहीं होता। लेकिन गांव के अस्थाई जीवन ने हमारे भीतर की शांति को खोद दिया है। जैसे कोई घाव से जूझता व्यक्ति अपने दुखद स्थिति को खोदता रहता है इस उम्मीद में कि सूखती पपड़ी उसके चोट को आराम देगी। कुछ ऐसा हीं गांव के लोग सोचते हैं कि शहर उनके दुखों को निगल जाएगा और एक सुख जिसकी कल्पना उन्होंने शहर से आए हुए लोगों को देखकर चेहरे पर फैलाया था वह उनके होंठों से चिपक जाएगी। 
लेकिन क्या यह संभव है? 
शहर जो किसी ग्रह के समान हैं जहां किसी युग में विदेशियों द्वारा सुख-सुविधा से उड़ते जीवन की खोज की गई थी। वहां गांव अपने इक्छाओं की पूर्ति के लिए भागता है और शहर के उड़ते हुए जीवन में रेंगने लगता है। एक चीथड़ा हुआ जीवन जीता है। जहां जहाज उड़ते हैं। गाड़ियां दौड़ती हैं। मसीनें चलती हैं और इन सब पर अपना अधिकार प्राप्त करते लोग घिसटने लगते हैं।
धूसर देह की अक्षमता उन्हें गांव की सड़क पर सरकने लायक भी नहीं छोड़ती। नीला स्वच्छ व्योम जो उन्होंने अपने गांव में देखा था वहां वह जहाज कभी नहीं पहुंच पाता जहां उन्हें वापिस लौटना था। उन पगडंडियों तक कोई गाड़ी नहीं पहुंच पाती जिसका निर्माण अपने पैरों से धरती को रौंदते हुए घासों की हत्या कर किया था।‌
हमनें बनी बनाई जगहों पर जाना हीं छोड़ दिया है। हम जाते हैं एक बनाई हुई जगह पर। जिसके अस्तित्व में आने के इतिहास को हम पहचानते हैं। शहर जो हमें थोड़ा अवकाश देता है उसमें हम अपना खांसता हुआ वर्तमान समेटते हैं और गांव की ओर भागते हैं। गांव जो बहुत दिनों के बाद देखे जाने पर बूढ़ा नजर आने लगता है। घर के बाहरी हिस्से अनजाने जान पड़ते हैं उसमें अपने खांसते वर्तमान के साथ प्रवेश करते हीं हर कोना हमारी अतीत को लिए खड़ा रहता है। मानों उसने हमारे लिले हुए अतीत को उतना हीं हरा रखा है जितना हमारे जीवित रहने के लिए जरूरी है। जितने में हम अपने अतीत में जीवित रहें और वर्तमान से लड़ते रहें। 
मेरा इस बार गांव आना वर्तमान से लड़ने जैसा नहीं था। बीते अगस्त में जीवन में मनोहर यथार्थ.. 
..घटित हुआ जो वर्तमान की सीलन को अपनी धूप से दूर किया है। उसकी सड़न को कहीं दूर फेंक दिया है। घर के पीछे वाले पहाड़ की झाड़ियों में। जो सुलगते पहाड़ के साथ कहीं समाप्त हो जाएगा। एक स्वस्थ वर्तमान की टोह में मेरे बीमार पड़े विचार थोड़ा मुस्कुरा लेंगे। अपनी थकती इच्छाओं की बाट जोहते हुए थोड़ा अवकाश प्राप्त करेंगे। अब तक मेरे लिए कल्पना का आलिंगन यथार्थ से कहीं अधिक सुखदायी था। लेकिन यथार्थ के जन्म लेते हीं मेरी अधिकतर कल्पनाएं यथार्थ से संबंधित रहती हैं। हालांकि यथार्थ का मेरी कल्पना में स्थान नहीं था। 
मैंने पार्थवी की इच्छा की थी लेकिन हमारी इच्छित आशा कभी पूर्ण नहीं होती। 
हमारे हाथ कभी भी वह उस रूप में नहीं आता जैसी हम कामना करते हैं। हर बार सारा कुछ मिलने से पहले हीं कुछ रह जाता है जो उसकी पूर्णता को निगल लेता है।
हमारे हाथ लगती है कुछ टूटी हुई खुशियां जिसे देखकर हम मुस्कुराते हैं और कुछ हताश दुख जिसके सहारे हम सुबकते हैं। अब यथार्थ का होना इच्छा और उम्मीद से कहीं दूर सुख को छूने जैसा है। ऐसा सुख जो बादल की तरह होता है। जो सपनों की पतली झिल्ली जिसे वर्तमान में कभी देखा गया था उसे खोदकर बाहर निकलता है जैसे कोई पक्षी। उसके आकाश में उड़ते हीं हृदय के सतह से बादल उड़ना आरंभ करते हैं और आंखों के कोरों में आकर टिक जाता है। यथार्थ उसी सपने जैसा है जिसे गर्भ की दीवारों को छूकर हम सभी ने महसूस किया था। सांसारिक जीवन का भोग करते हम कितना कुछ अपने जैसा अपने पीछे छोड़ जाते हैं। 
रूप
रंग
चाल
आवाज
संस्कार
विचार और भी ढे़र सारी जिम्मेदारियां जो हमारे बुजुर्ग होते हीं हमारे झुरमुट सी जीवन यात्रा को सहलाएंगे और और उस मधुर स्पर्श के संपर्क में आते हीं उसके बचपन को हड़प लेंगे जैसे किसान अपनी फसल को हड़प लेता है। उन्हें यह आभास दिलाने के प्रयास में कि अब तुम बड़े हो गए हो। हम तुम्हारी जिम्मेदारी हैं। इतना तटस्थ भविष्य जो कभी वर्तमान का रूप धरेगा। बिल्कुल बदले की जिंदगी काटने जैसा। 
लेकिन मैं इस वर्तमान को निगलकर हृदय के सबसे कोमल हिस्से में छुपा लेना चाहता हूं। जहां किसी भी प्रकार का विरोध नहीं। ठीक वहीं जहां से बादल उड़ना शुरू करते हैं। 
दुनिया के झालों से दूर। सबसे मुलायम भाग को, रूई से भी मुलायम जिसकी छुवन अतीत के सारे अंधकार को समाप्त कर दें। सारा पीब सूखा दे और पहाड़ उसकी महक को सोख ले। मेरी बहुत सी इच्छाएं जो मैंने अपनी थकी हुई नींद में देखा था। जिसके लिए जागते हुए संघर्ष किया था। मैं उनकी स्थिति से अब भी पूरी तरह परिचित नहीं हूं। मात्र प्राप्त चीजों का धन्यवाद लिख देता हूं। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद बोलने में कुछ अधूरा सा लगता है। लिखा हुआ भी पूरा नहीं लगता। अधूरा भी नहीं लगता लेकिन स्वच्छ लगता है। जहां धन्यवाद मैला नहीं होता। शायद पूरी तरह से साफ सुथरा धन्यवाद कहा भी नहीं जा सकता। कहने के प्रयास में भी सभी को शुक्रिया नहीं कहा जा सकता। 
मैं सोनी फूआ को हर बार ठीक-ठाक धन्यवाद कहने से ठीक पहले ठिठक जाता हूं। हम उसका धन्यवाद कैसे कर सकते हैं जो आपके विचार और उपस्थिति से सतही तौर पर ना जुड़ा हो। जिसका लगाव छिछला ना होकर नीरव सघन हो फिर भी उसने आपके एकांत को मैला ना होने दिया हो। उस मैलापन के पनपते हीं सारा कुछ थू.थू.थू...थू..कर आपके देह से झाड़ दे और मुक्त कर दे। जैसे कोई मां अपने बच्चे का नजर उतारती है। 

मां का धन्यवाद कोई कैसे कर सकता है? जिसे बिना विज्ञान की किताब पढ़े शिशु पालन की हर महिन जानकारी प्राप्त है। 
बच्चे के रोने का कारण। उसका रोना भूख से बना है या डर से?
उसके हंसने का कारण। जो पौरूष से सजी महानता नहीं जान पाती जिसे शोधकर्ता नहीं सुलझा पाते उसे मां कैसे पढ़ लेती है? क्या उस मौन के पढ़ने का धन्यवाद किया जा सकता है। 
शायद हम मां का धन्यवाद नहीं कर पाते इसलिए प्रतिशोध की जिंदगी जीने लगते हैं। 
जैसे हम बड़े होकर रोना छोड़ देते हैं। गिरते हैं तो स्वयं हीं उठकर भागने लगते हैं। अपने संघर्ष को बड़ा मान लड़ने लगते हैं। अपनी भूख को शांत करने के लिए स्वाद के अनुसार भोजन का चयन करने लग जाते हैं। यह साबित करने के क्रम में यह कोई असंभव नहीं था। या धन्यवाद ना कह पाने की खीझ में। लेकिन उस उम्र में खुद को रखते हीं हमारी सारी आत्मनिर्भरता स्वाहा हो जाती है। जिसे किसी भी भगवान की स्तुति कोई भी दिशा प्रदान नहीं कर सकती।
जैसे मैं अब तक मां को धन्यवाद नहीं कह पाया। सिंदू फूआ को भी नहीं जिन्होंने मेरे वात्सल्य को सींचा था। बचपन के भुरभुरेपन को पकाया था। मेरी खुरदुरी जुबान को साफ किया था। देह के गंदगी को रगड़-रगड़कर मुझे मैलेपन से बचाया था।
ठीक वैसे हीं मैं प्रकृति का धन्यवाद करते हुए अपने भीतर पल रहे चुहल की हत्या होता महसूस करता हूं। जैसे पेड़ पर रह रहे पक्षियों की कोई हत्या कर रहा हो। 
मैंने भी की है। इस बार गांव आया तो देखा मृत पेड़ ठीक उसी जगह इकट्ठे धरे हुए हैं जहां कभी बेल का पेड़ हुआ करता था। जिसकी महक से स्याही वाला कमरा अपने अस्तित्व को प्राप्त करता था। जिसकी छांव में बैठा मैं स्वयं से संवाद करता था। उस बेल को दीमक चाट खाई थी। बचे हुए पेड़ों का हमनें अपने थकी हुई आयु में थोड़ा और वायु खींचने के लालच में वध कर दिया। उस पेड़ के अस्थी पंजर से मिलने वाले रूपए का हिसाब लगाते हुए जिसका देह व्यापार की आग में झोंका जाना बाकी है। "सुना है किसी ने २० लाख की बोली बताई है। सुना भी उसे २० लाख हीं गया है। शायद पेड़ भी २० हीं कटे भी होंगे। २० के आसपास पेड़ अभी भी बचे होंगे। मैं बीस का पहाड़ा पढ़ रहा हूं। हर पेड़ पर २० डालियां थीं। प्रत्येक डाली पर लगभग ४० अलग-अलग प्रजाति कि पक्षियां कलरव करती थीं। जिनकी जड़ें ६० फिट जमीन के भीतर धंसी हुई थीं। जिसके ठीक-ठाक ८० गट्ठे बनने चाहिए थे। जिन्हें लगभग १०० वर्ष की आयु तक जीवित रहना था। लेकिन २ बाल्टी पानी बहुत वर्षों से उनकी निर्जीव होती जड़ों ने किसी भी अधिकारी, विवेकशील व्यक्ति के हाथों नहीं प्राप्त किया। उसकी जलहीन आधार अब भी प्यासी है। अपने नए खोंते की उम्मीद में पक्षियां उन डालियों को छोड़ बेघर हो गई हैं। जो चिड़िया बरामदे में दीवार से चिपकी मूर्ति के खोखल में अपना घर बसाती थी उसने तिनके बटोरना बंद कर दिया है। अपने टूटे हुए पंखों से उसकी सजावट करना भूल गई है। अब चिड़िया की चहचहाहट को बांस की सांय सांय ने निगल लिया है। जिसकी अस्थियों को सजाकर बेचा जाएगा। जिससे घरों की शोभा सुसज्जित होंगी। पत्तियां प्रतिरोध शून्य होकर मिट्टी हो गई हैं। जिससे उसके सारे मौसम छीन लिए गए हैं।
पेड़ को धन्यवाद ना कहने के अहंकार में गमले में कुछ फूल लगा दूंगा। दूब को जिंदा रखने की कोशिश करूंगा। बादल को बनता देख अपनी आंखें मूंद लूंगा। पेड़ कटने की खट-खट में आकाश को तकूंगा फिर बरामदे में बने पक्षी के घोंसले की जांच करूंगा। जहां घर की सफाई करने की बेईमानी में मैंने इसे चोट पहुंचाई थी। और अंत में अपने खांसते हुए वर्तमान को समेट शहर लौट जाऊंगा। वहां की काली हवा में अपनी ऊबन से लड़कर मौन लेखकों को पढूंगा फिर अपनी अकर्मण्यता को थोड़े समय के लिए जी लूंगा। 

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