सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, September 27, 2023

यथार्थ और कल्पना

"स्याही वाला कमरा"
कमरे के रोशनदान से भीतर आती सूर्य की किरणें यथार्थ है।
मैं उस रोशनदान से बाहर झांकता हुआ उस यथार्थ को पा सकूं यह मात्र कल्पना।
खिड़की से भीतर आती ध्रुव तारे की रोशनी यथार्थ है।
मैं उसे लाखों तारों के मध्य ठीक-ठीक पहचानता हूं यह कल्पना। 
सामने पेड़ों पर पंक्षियो की बातें यथार्थ हैं।
मैं उन्हें समझ सकता हूं यह मेरी कल्पना।
मैं यथार्थ हूं।
मेरा जीना, मेरी कल्पना। 
मैं हूं यह यथार्थ है।
मेरा होना, मेरी कल्पना।
-पीयूष चतुर्वेदी

No comments:

Popular Posts

"पूर्णता" अब अयोध्या पूरा नजर आता है

का भैया पकौड़ी कैसे दिए? २० रूपया प्लेट। प्लेट मतलब, कितना रहेगा भाई?  अब राम जी के नावे जितना हाथ से उठ जाए।  अच्छा ठीक बा पकौड़ी संगे एक च...