दादा का संसार- २६-१२-२०२५
वह धीमा चलते थे।
इतना धीमा की पैरों के निचे चिपकी धूल सुरक्षित महसूस करते थे। पत्तों की झुरमुट थोड़ी कम तकलीफ से गुजरती थी। इतना धीमा की चिटियां भी उनके साथ चल सके।
वह धीमा बोलते थे।
जिसके शोर में पत्तों का संवाद सुनाई दे। इतना धीमा जिससे पक्षियों का डर जन्म ना ले। इतना धीमा की उसे सुनने के लिए चिड़िया उनके कंधे पर जा बैठती।
वह सरल लिखते थे।
इतना सरल कि उसे शांत मन से हीं पढ़ा जा सकता है।
वह जीवन लिखते थे।
जिसे जीने के लिए ठहराव की आवश्यकता होती है।
वह संसार लिखते थे।
आसपास फैला अलौकिक संसार।
. उन्होंने पेड़ का खड़ा होना लिखा।
. पहाड़ का चुप रहना लिखा।
. उसके पत्तों का संवाद लिखा।
. बौना पहाड़ लिखा।
. हरी घास की छप्पर लिखी।
. पौधे पर जमी ओश की बूंदें लिखीं।
. चिटियों की यात्रा लिखी।
. अमरूद का टूसा लिखा।
. छूही मिट्टी लिखी।
. घर का चूल्हा लिखा।
. खुद का बूढ़ा होना लिखा।
. पत्नी से और का प्रेम लिखा।
. आदिवासीयों का संतोष लिखा।
. फूल लिखे।
. बाग लिखे।
. मनुष्य का तितली और तितली का मनुष्य होना लिखा।
. चिड़िया की भाषा लिखी।
.तिनको से बना घर लिखा।
. खिड़की पर फुदकते पक्षी को लिखा।
. खाली जगह बनाते हाथी को लिखा।
. दीवार को लिखा।
. उसमें बसे खिड़की को भी।
धरती को खटखटाया अपनी कलम से, गिलहरी की चंचलता को जिया। खिड़की का अपनापन और दरवाजे के खुलेपन के बीच खिड़की से आकाश का विस्तार लिखा।
अमलतास के फूल चुने। प्रकृति का श्रृंगार लिखा।
मन कि हलचल और हृदय का संतोष लिखा। भीतर की सभी मिश्रीत मानवीय भाव को पहचान दी। वह भाव जो सार्वजनिक है लेकिन सभी का अपना निज है। जिसे किसी द्वारा कुरेदा जाना पसंद नहीं है। उस भाव को उन्होंने अपने समान्य और चमत्कारिक शब्दों से स्पर्श किया।
अपनी अतीत की स्मृतियों को सहजता से अगोरा। उन्हें अपनी कल्पनाओं के आलिंगन से जादुई यथार्थ के जरिए पन्नों पर जीवित किया।
जो भी इस लेख में 'था' है वह सदैव जीवित रहेगा। वह सदैव वर्तमान में 'है' के साथ सजीव रहेगा।
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दिनांक-३०-१०-२०२५ (विचार)
विनोद जी का प्रवेश मेरे जीवन में निर्मल जी से बहुत पहले हो गया था। जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं कि कैसे एक यात्रा के दौरान मूंगफली के ठोंगा में उनका लेखन मेरे आंखों से गुजरा और हृदय में जम गया।
निर्मल के संबंध में मैंने फूफा जी से पूछा था कि आपने निर्मल वर्मा जी को पढ़ा है? (उनसे किताबों पर संवाद होता रहता है) उन्होंने कहा बहुत पहले परिंदे पढ़ा था। मैंने निर्मल संसार में जीना आरंभ कर दिया। सभी को काफ्का द्वारा अपने पिता को लिखे पत्र पढ़ने चाहिए। जर्मन और चेक गणराज्य के साहित्य भी। निर्मल की छाप वहां दिखती है। निजी और इमानदार।
शुक्ल संसार कल्पना की चरखी पर ज्यादा चलता है और उतना हीं हमारे यथार्थ को सुंदर बनाता जाता है। आप मानिए या ना मानिए लेकिन आप चिड़िया से बात करने लग जाते हैं।
विनोद जी बिमार हैं उनके फेफड़ों में पानी भर आया है और मैंने अपनी सांस दबती हुई महसूस की। यह तस्वीर देखते हीं मेरी आंखें भर आईं और ना जाने कब झरना फूटा और तकिया गीला करता मैं सिसकने लगा, मुझे इसका स्मरण नहीं रहा। चारों ओर फैले एकांत में जब मुझे मेरा रोना सुनाई पड़ने लगा तब मुझे अहसास हुआ यह कितना आत्मीय है। सुबह काम पर आते वक्त अचानक मेरे मन में एक कंकड़ गिरा और सारा पानी आंखों से बाहर छलकने के लिए आतुर होने लगा। चार फूल हैं और दुनिया है में, मैं शुक्ल संसार का एक फूल हूं और जो दुनिया में कई दुनिया बसती है उनमें से एक हैं विनोद जी।
इस अवस्था में विनोद जी कहते हैं ,लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा है।
विनोद जी को पढ़ना उन्हें देखना उन्हें सुनना मेरे लिए सांस लेने जैसा है। शब्दशः.... ध्वनिश:
पुनश्च,दिनांक -२४/१२/२०२५ (देहांत)
विनोद जी ने बिना किसी शोर के बिल्कुल अपनी प्रभावशाली रचनाओं की तरह जो बहुत हीं साधारण और तार्किक होती हैं। जिसे समझने के लिए ठहराव का आलिंगन करना पड़ता है। अपने आसपास के सभी साधारण चित्रों को जीते हुए दूसरी दुनिया को जन्म दिया। दीवार में एक खिड़की रहती थी उस दुनिया का साक्षी है। बहुत सी खाली दुनिया इस दुनिया में बना , कल उन्होंने "आकाश को खटखटाते हुए धरती" से आकाश की ओर धीरे मगर आगे चलते हुए अपनी अंतिम यात्रा के लिए प्रस्थान किया। यह यात्रा भी एक कविता है। स्वाभाविक मौत मरने के बाद की जिंदा कविता। छूही मिट्टी सी कविता।
छोड़ गए वो अपने ढ़ेर सारे संसार में अपना शुक्ल संसार।
शुक्ल संसार का भौतिक स्वरूप अब निष्प्राण हो चुका है यह संदेश सुन आंसू नहीं रूक रहे थे। कुछ मरा है मेरे भीतर आज सुबह हीं।
हताशा से बैठा मैं...उस कविता को याद कर रहा था।
वो क्या है जो मुझसे बाहर निकल गया है?
जब मैं स्वयं के प्रति घृणा से भरा हुआ था उन दिनों विनोद जी ने हीं मुझे नए संसार में प्रवेश कराया था।
परमेश्वर है कि नहीं के मध्य मैंने विनोद जी को चुना। कल्पना और यथार्थ के मध्य *शुक्ल संसार* को नया संसार माना।
नास्तिकता और आस्तिकता के भ्रम को पाटने के लिए जब मैं बंगाल के मठों में भटक रहा था। अलग-अलग संस्थाओं में अपनी रिक्तता को भर रहा था तब विनोद जी की एक पंक्ति पढ़ी थी ईश्वर है कि नहीं के शंका में
मुझे मनुष्य बना दो सभी को सुखी कर दो।
ठीक उसी रोज विनोद जी मेरे लिए ईश्वर बन गए। मैं मनुष्य बनने के लिए आगे बढ़ा।
आश्चर्य के प्रारंभ में जब यथार्थ एक उपन्यास की तरह बड़ा हो रहा था तो गुलाटियां मारता हुआ वह अधिक ऊंचाई से निचे जा गिरा था। उसकी सांसें लगभग शून्य हो रहीं थीं। आंखों की पुतलियां भीतर कहीं छुपती जा रही थी।कांपता हुआ लगभग थरथराता हुआ जब वो शांत हो रहा था उस पसरे मौन में सभी का रूदन स्वाभाविक था। तभी उपन्यास की लेखिका उसकी मां घर के देवता बाबा से उसका आश्चर्य, उसकी कल्पना, उसका यथार्थ,उसका वर्तमान और ढ़ेर सारा भविष्य वापस मांग रही थी। अपने देंह को पटकते हुए उसके बचे हुए संसार की भीख। और ठीक उसी वक्त उपन्यास का पन्ना पलटा। इस पृष्ठ पर वह तेज से रोया और लंबी गहरी लगभग नथूनों को फ़ाड़ देने वाली श्वास लेना आरंभ किया।
उस दिन मुझे आभास हुआ कि मैं थोड़ा-थोड़ा मनुष्य बनता जा रहा हूं। मैंने उस दिन भगवान की आवश्यकता को चुनौती नहीं दिया। चमत्कार को स्वीकारा भी नहीं।
लेकिन ईश्वर है कि नहीं कि शंका में सभी का सम्मान होना चाहिए। बिना किसी अभियोग के संसार सुखी होना चाहिए।
विनोद जी को नमन्। भावपूर्ण श्रद्धांजलि।
यथार्थ कि यात्रा पर कल्पना अपने यथार्थ के फूल बिखेरता आगे बढ़ रहा है।
मैं बहुत धीरे चलता हूं।
पर पिछे नहीं चलता।
-विनोद कुमार शुक्ल
#शुक्ल_संसार
चार फूल हैं और आप हैं
परिशिष्ट
यह कितना हास्यास्पद है कि मुझे मेरे सबसे प्रिय लेखक छत्तीसगढ़ के मेरी पहली यात्रा के दौरान फटे रद्दी पन्ने में मुंगफली के गंध के बीच मिले।
और उससे भी अलौकिक यह रहा कि विनोद जी के पुराने संस्करण की किताबों में उनका दूरभाष क्रमांक अंकित होता था। वर्तमान में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
उन तक पहुंच पाना भी उतना हीं सरल है जितना उनसे प्रेम में पड़ना।
मैंने उनसे बात करते हुए यहीं कहा कि दादा में बोलू होना चाहता हूं। और वो अपनी कल्पनाओं से बाहर निकल मेरे यथार्थ में हंस रहे थे।
यह साइकिल पत्रिका के पुराने अंक हैं।
कभी-कभी सोचता हूं यह बच्चों में बांट दूं। लेकिन अपने भीतर पल रहे बच्चे की हत्या करने से डरता हूं। मैं उस हंसी के लिए इसे संभाले रखा हूं ताकि मैं किसी अपने से यथार्थ में विनोद जी जैसी हंसी गुनगुना सकूं।
दुनिया में जीने के लिए इसपर ठहरना आवश्यक है।
एक दुनिया है जहां समय है, भ्रम है,पीड़ा है, मृत्यु है।
दूसरी दुनिया वह जिसमें सब कुछ शाश्वत है।
हमारे सामान्य अनुभव समय की दुनिया में होते हैं।
लेकिन ध्यान और स्मृति के चारों ओर दूसरी दुनिया की भी झलक मिल जाती है।
मेरे लिए यह वहीं दुनिया है।
6 comments:
Bhut hi khubsurat
बेहद निजी विवरण है। मैंने इनकी केवल जड़ें पढ़ी हैं।
यह एक खूबसूरत विदाई है।
सुंदर।
मैं बहुत धीरे चला लेकिन पिछे नहीं चला। बहुत हीं सुंदर कविता है।
अतीत का जीवंत संसार।
धन्यवाद वर्तिका, कैसी है तु?
इन्हें खूब पढ़ना चाहिए। पूरा पढ़ना चाहिए।
धन्यवाद आपका।
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