सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, February 19, 2023

बच्चों के लिए खिलौना स्वर्ग है

मेला और बचपन दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं।
ऐसा किताबों के व्याकरण में नहीं पढ़ाया जाता। जीवन के व्याकरण में देखने के लिए, जीने के लिए मिलता है। देखते हुए या तो हम बड़े होते हैं या गरीब और जीते हुए हम बच्चे हो जाते हैं। बच्चे गरीब नहीं होते। "बच्चे" गरीब मां-बाप के बच्चे जरूर हो सकते हैं। ग़रीबी हमेशा बच्चों को स्वतंत्र रखती है फिर उनके तरूण होते हीं उन्हें निगल जाती है। फिर बच्चों का नया दौर आरंभ होता है। जवान बूढ़े होने के क्रम में एक थकी हुई उबासी लेते हैं। बूढ़े और बूढ़े हो जाते हैं। बूढ़े जब तक अंतिम सांस नहीं लेते तब तक बूढ़े हीं रहते हैं। इसी मध्य वर्ष दो वर्ष में गांव के गलियारों में हलचल होती है। धूल हवा में फैलते हुए गांव के गलियारों से निकल घरों का रूख करती है। वो धूल मेले की धूल होती है जो घर से बच्चे, बड़ों सभी को मेले की ओर खींचती है।
उस धूल को मेले में उपस्थित सभी व्यक्ति के ऊपर देखा जा सकता है। 
वो धूल बड़ों के पैर तक सीमित रहती है। चप्पलों में सनी हुई। जूते धूल से नहाए हुए नजर आते हैं। उनके साथ में घूमने आए बच्चों के पूरे देंह पर धूल को देखा जा सकता है। बिल्कुल रंगीन धूल जिसमें संसार के सभी रंग शामिल होते हैं। गरीब मां-बाप के पैरों में जूते नहीं होते। धूल उनके चप्पलों को काट रही होती है‌। मद्धम गति से जिसके साथ उनके बच्चों की उम्मीद उस घर्षण में पीसती चली जाती है। गरीब मां-बाप के बच्चों की देंह पर कोई धूल नहीं रहती। धूल उनकी आंखों में होती है। उनके सपने को सुई की तरह चुभ रही होती है। उन्हीं आंखों से वह मेला देख रहा होता है। दूसरे बच्चों के सपनों को पंख लगते देखता है। फिर असहनीय दर्द के उपज से अपने आंखों को मिच देता है फिर उसके सपनों का सागर आंखों से लुढ़कता हुआ सीने तक पहुंचते-पहुंचते कहीं गुम हो जाता है। पंख धूल में मिल जाते हैं। और धूल उन पंखों का साथ पाकर हवा में तेज गति से उड़ता जाता है।
बच्चों की भीड़ खिलौने के दुकान पर और बड़ों की भीड़ मिठाई की दुकान पर। अधिक बड़ों को भीड़ और अधिक बड़े बच्चों की भीड़ पान गुटखा के गुमटी पर दिख जाती है। 
जब मैं छोटा था,"खुद को बड़ा कहना भी अपने बचपन की हत्या करने जैसा प्रतीत होता है", जब मैं देंह से छोटा था तो आत्मा राम हलवाई अपने मिठाई की दुकान लगाते थे। जहां रसगुल्ला और बर्फी नहीं मिलती थी। गुड़ही जलेबी और लक्ठो सबसे प्रसिद्ध मिठाई हुआ करती थी। जिसके लिए उन्हें सभी खाने वालों से रूपए देने के पहले तक प्रशस्ति प्राप्त हुआ करती थी। रूपए का सही मोलभाव नहीं होने पर उनके प्रशस्ति संदेश में से कुछ मौलिक बिन्दुओं को ग्राहक द्वारा नाराजगी और चेतावनी के सम्मिश्रण से कम कर दिया जाता। 


 मिठाई के नज़र से लोगों के नज़र में आज भी गुड़ही जलेबी का हमारे गांव में प्रमुख स्थान है। लगभग सभी मेले में देखने के लिए मिल जाती है। लेकिन अब वह आत्माराम के हाथों की नहीं होती। सुना है कुछ वर्ष पहले उनका लंबे खांसी के कारण निधन हो गया है। कुछ दिनों तक बुढ़िया दुकान लगाया करती थी। स्वाद की पक्की बुढ़िया हिसाब की बहुत कच्ची थी इसलिए इतनी ढ़गी गई ग्राहकों द्वारा जितनी देश की जनता नेताओं द्वारा ढ़गी जाती है। और अंत में उसने अपनी दुकान लगानी बंद कर दी। अब वह लोगों की निजी आग्रह पर मिठाई बनाया करती है। 
पहले के ज्यादा बड़े बच्चे अब अधिक बड़े होकर नशे की सबसे ऊंची स्तर को छूने लगे हैं। गुटखे के पैकेट सड़कों पर हवा के साथ ऐसे चलते हैं जैसे हमारे देश में विकास।घूमते ऐसे हैं जैसे विकास पुरुष नेतागण। उड़ते हैं जैसे जहाज उड़ता है नेताओं के बैठने से। उड़ने के क्रम में गांजे की महक मिठाई की सिरके में पहुंचने लगी है। शायद यहीं कारण है कि आत्माराम की मृत्यु खांसते-खांसते हुई थी। कुछ का कहना है चूल्हे के धुंए से खांसी आरंभ हुई थी परंतु अंत नशे की धुंए से हुआ था। 
मेले में चंद पूजा सामग्री की दुकान जहां महिलाओं की भीड़ नजर आती है।  कुछ भीड़ श्रंगार की दुकान पर भी। स्वांग से सुहाग तक की कतार में सभी
हर्षित नजर आते हैं।
मानों जैसे मेला स्वर्ग है और घर नर्क। घर जहां बूढ़े रहते हैं। जहां अब उनका दम घुटता है। जहां मेले से निकलता शोर उन्हें विक्षिप्त करता है। उनकी व्याकुल को बढ़ाता है। गरीब मां-बाप के लिए मेला ना हीं स्वर्ग है ना हीं नर्क। उनके लिए मेला एक सजा है जिसे उन्हें गरीब के घर पैदा होने के बाद समाजिक व्यवस्था द्वारा सुना दिया गया था। 
इच्छा पूर्ति हीं स्वर्ग है। सभी के लिए इसके पैमाने भिन्न हैं। जैसे बच्चों के लिए खिलौना स्वर्ग है। बड़ों के लिए संपन्नता और बुजुर्गों के लिए सेवा की इच्छा। साधक के लिए भक्ति की प्राप्ति। 
स्वर्ग में सबसे अधिक समय बच्चों ने व्यतीत किया है। उसके अहंकार को सर्वाधिक निर्बल किया है। सुबह का स्वर्ग शाम को टूट जाता है। 

बीते दिनों गांव में रासलीला का आयोजन था। लक्ष्मी नारायण यज्ञ भी साथ में संपन्न हुआ। मेरे गांव में मेला सदैव रासलीला के साथ हीं लगता है। सोन नदी के लंबे पाट के उस पार गुप्ता धाम में एक दिवसीय शिवरात्रि मेला का आयोजन हर वर्ष होता है वहां से मेरे गांव की दूरी लगभग २ कि.मी. है लेकिन गांव का नाम बदल जाने के कारण उसे मैंने हमेशा से अपने गांव से दूर रखा है।उसका वास्तविक नाम मुझे आज भी नहीं पता सभी आम बोलचाल की भाषा में उसे उसपार कहते हैं। मैं भी उस पार कहता हूं। उस पार का गांव मेरे गांव से अधिक सुंदर है। उस पार का पहाड़ मेरे गांव से कम पथरीला और अधिक सजीव है। वहां के पेड़ मेरे गांव से कम ठूंठ हुए हैं। वहां के पहाड़ों पर अब भी जीवन संभव है। नदी उसी छोर को छूती हुई बहती है। शंकर जी का गूफा के भीतर शिवलिंग स्थापित है जहां एक प्राचीन कुआं भी है जिसके निर्माण से संबंधित जानकारियां किंवदंती हैं। प्रागैतिहासिक बात यह है कि वहां वर्ष में एक बार शिवरात्रि के दिन पूजा, आरती होती है। चमगादड़ के मलवे से पूरी गुफा बदबू करती है और दर्शनार्थियों का चलना मुश्किल। गुफा के बाकी रास्ते कहां जाते हैं यह ठीक-ठीक किसी को नहीं पता।


मंदिर तक जाने वाले रास्ते और सीढ़ियों का निर्माण पिताजी ने बाबा के नेतृत्व में कराया था इसके सबूत विद्यमान हैं। पास हीं एक हैंड पंप है जिसका उपयोग बहुतायत मेला के दिन किया जाता है। पहले लोग नदी का जल हीं पान करते थे उसी से पकौड़ियां और मिठाईयां बनाई जाती थीं। अब कैसे बनाई जाती हैं सभी जानते हैं लेकिन दुकानदार कहते हैं नल के पानी से बनाया है। उनके झूठ और सच को कभी किसी ने जानने की जरूरत नहीं समझी भगवान की भक्ति में सभी ने सहर्ष स्वीकार किया है। जैसा मेला मेरे बचपन के दिनों में भी मेला लगा करता था। उसकी अपेक्षा इस बार का मेला बहुत हीं सूक्षम और बेढंगा था। कुछ चंद दुकानें मिठाई की कोई एक पूजा सामग्री की एक कतार में लगी थीं। पहली बार गांव में चाऊमीन के ठेले लगे थे। जो बच्चों के लिए सबसे बड़ा दर्शन था। इन ठेलों पर स्वर्ग की दुकान से ज्यादा भीड़ थी। स्वाद स्वर्ग नहीं लेकिन स्वर्ग प्राप्ति की मूल इकाई है। भूख से बल और बोल से इच्छा पूर्ति होती है। 
स्वर्ग की दुकानें भी कम हीं थीं।
शायद अब स्वर्ग मोबाइल में सिमट गया है यह एक कारण हो सकता है। आज के समय में मोबाइल स्वयं में खिलौना है।मैं जब छोटा था तब मोबाइल नहीं था कुछ उम्र बीतने के बाद नोकिया के फोन आए जिसमें सांप वाला खेल था। मैं सांप से बहुत डरता था पर खेल से नहीं। लेकिन पिताजी के समक्ष खेल खेलने से डरता था इसलिए उस खेल को चुपके से खेलता था। खिलौने भी मैं चुपके से लेता था। पहली बार मैंने बचपन में २ रूपए की घड़ी ली थी। उस घड़ी को मैंने ३ दिन तक ठीक से देखा भी नहीं था। उसे हाथ में बांधते हीं समझ आया घड़ी नकली है। उसकी हर एक सुई अपनी जगह स्थित है। उसके बाद मैंने सदैव घड़ी खरीदने से पहले उसकी सभी सुईयों को एक चक्कर लगाते हुए देखने के बाद हीं खरीदता। क्योंकि मुझे अब समय खराब होने से नहीं घड़ी खराब होने से डर लगने लगा है।


#बचपन के खिलौने

लकी ड्रा 
छोटी सी गुमटी के अंदर बड़े से कैलेंडर जैसे दफ्ती में ढेर सारे आकर्षक खिलौने होते थे।
घड़ी
कार
ट्रक
किचन सेट खिलौना 
डाक्टर सेट खिलौना
प्लास्टिक की बंदूक गोलियों के साथ 
और भी बहुत कुछ। जिसे एक रूपए के टिकट के साथ आसानी से प्राप्त किए जाने का लालच दूकान मालिक के द्वारा दिया जाता था। ढ़ेर सारे टिकट एक बड़े से डब्बे में रखे रखते थे। सिल्वर रंग के टिकट को सभी सिक्के से खरोचते और सिक्के को दुकानदार के हाथ में रख देते। वह नकली उदास मुंह बनाकर उस पैसे को अपनी जेब में टिका देता। मैंने कुछ सिक्के जेब में रखकर इस खेल में रूचि दिखाई थी‌ लगभग ४ रूपए गंवाने के बाद भी मैं खाली हाथ लौटा था। वो रूपए मुझे घर से आरती में रख कर पूजा करने के लिए मिले थे। मैंने मंदिर में भगवान से मुठ्ठी भर-भर लगभग पूरे हफ्ते मांफी मांगा क्योंकि उन दिनों मैं भगवान से बहुत डरता था। मेरे जैसे तमाम लड़के अपनी किस्मत हर रोज आजमाते थे। उस लालच में बहुतों ने अपने किस्मत को हारते हुए देखा और दो लोगों ने अपनी किस्मत को जीत लिया था। क्योंकि अंतिम मेले के दिन मात्र दो पैकेट हीं उस दफ्ती से गायब थे। 
कुछ दिनों बाद पता लगा उस दुकान वाले ने पक्के का घर बना लिया है। जिसमें प्लास्टर होना बाकी है। हमारी हारी हुई किस्मत ने उसके सपने को पूरा किया था। उसका घर अब भी वैसा हीं है। इस बार के मेले में उसकी दुकान नहीं थी। वह बूढ़ा नजर आने लगा है। मरने से पहले वह लकी ड्रा की दुकान लगाना चाहता है लेकिन अब यह खेल बच्चों का खेल नहीं रहा। और वह बूढ़ा अभी भी बच्चों को यह खेल खेलता हुआ देखना चाहता है। उसे बड़ों से लुट जाने का डर है। और अब वह भगवान से डरने भी लगा है। 

जुआ का खिलौना
माचिस की बड़ी वाली डिब्बी जितनी दिखने वाले इस बक्से में एक छर्रा हुआ करता था। 
छोटी सी छोटी जेब में भी वह आसानी से फिट हो जाया करता। नींद में सपने भी उसे चलाते हुए चलते जाने के आते थे।
वृत्त को चिरते हुए विभाजित खंडों में अंक लिखे होते थे। ऊपर एक कोने में एक किल सी निकली होती थी उसे दबाते हीं अंदर का वृत्त घूमने लग जाता उसके भीतर का छर्रा उससे भी तेज गति से घुमता हुआ चटचटी आवाज के साथ किसी एक अंक पर रूकता। हम उन अंको पर अपनी किस्मत का दांव लगाते थे। अंक साथ के साथियों द्वारा पहले निर्धारित किया जाता। जितने वाले को बाकी सभी एक रूपए देते थे। उन रूपयों से कभी भी किसी ने घर नहीं बनाया। उससे सिर्फ खिलौने लिए गए। उस खिलौने का बड़ा रूप मैंने बड़े होकर एक फिल्म में देखा। #३६_चाईना_टाउन में ऐसे हीं खिलौने थे जिसे उम्र में बड़े और धन में अमीर लोग खेल रहे थे। उनमें से कोई भी भगवान से नहीं डर रहा था। क्योंकि सभी अंग्रेजी बोल रहे थे। अंग्रेजी बोलने वाले भगवान से नहीं डरते। अंग्रेजी बोलने वाले गाॅड से डरते हैं। 

वाटर गेम
आयताकार एक टीवी नुमा पतला सा बक्सा जिसमें कुछ मात्रा पानी और कुछ हवा की है। जो डंडी लगी हुई होती थी जिसमें प्लास्टिक के रंग बिरंगे छल्ले को भरना होता था। दो बटन के सहारे दोनों को उन तक पहुंचाया जाता था। 
एक समय में यह मेरा सबसे पसंदीदा खिलौना हुआ करता था। 
मुझे ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन मैं छठवीं कक्षा में होने का दावा कर सकता हूं। शिव मंदिर में आयोजित शिवरात्रि मेला में एक दुकान की भीड़ में मैं शामिल था। हर खिलौने को साथ ले जाने की दृष्टि से निहार रहा था। उन्हें छूता था फिर वापस रख देता था। उसी भीड़ का सहारा लेकर मैं तेज कदमों से हाथ में उसे लिए खिलौने वाले की नजर से बचता हुआ, उसे हाथ में दबाए, बिना पीछे मुड़े तेज कदमों से घर की ओर भागा था‌। ठंड में पसीने से भीगता हुआ मैं तब तक नहीं रूका जब तक मेरे भीतर से दुकान वाले का डर समाप्त नहीं हो गया। उस दिन मैं भगवान से नहीं डरा था। उस रोज मुझे खिलौने वाले से डर लग रहा था। यह मेरी पहली चोरी थी। इसके पहले मैंने घर से बिस्कुट और मिठाई वगरह चुरा कर खाई थी लेकिन डरा नहीं था। मैं अपने लालच को संतुष्ट कर समृद्ध महसूस करता था। मैं इसे भी अपना लालच मानता हूं जो धन की कमी के कारण चोरी का रूप ले बैठा। धन होता तो यह मेरा शौक होता। मेरी जरूरत होती।
जब मैं रूका उसकी थोड़ी देर बाद एक लड़का मेरा नाम पुकारता हुआ मेरे पास आया। मैं सहमा हुआ उसे डर की नजर से देखता रहा‌। उसने मुझे बताया कि उसने मुझे खिलौने के साथ भागते हुए देख लिया है। वो मेरे घर के पास का लड़का था। मैं उसके बोलते हीं रोने लगा। वो मेरे बोलते हीं कुटिल मुस्कान हंसने लगा‌। मैं उससे इस चोरी के बारे में किसी से ना कहने की मांग करने लगा। अब मैं सिर्फ़ भगवान से नहीं,उस दुकानदार से नहीं, उस लड़के से नहीं सभी से डरने लगा था। जो चोरी नहीं करते थे। उस लड़के ने उस खिलौने से खेले जाने की शर्त पर अपना मुंह बंद रखने का वादा किया। 
हम दोनों अब हर दिन वह खेल साथ खेलते थे। हम तब तक बहुत अच्छे दोस्त बने रहे जब तक वह खिलौना टूट नहीं गया। खिलौने के टूटते हीं मेरा डर टूट गया। उसके बाद मैंने वह खिलौना कभी नहीं लिया। मैंने वह खेल कभी नहीं खेला। फिर कभी चोरी नहीं की। भगवान से नहीं डरा।
लालच को अब संतोष ने बंधक बना दिया है। 

वाहन वाले खिलौने
इन खिलौनों से दुकान अटे पड़े रहते थे। अब भी रहते हैं लेकिन अब उस स्वर्ग को पाने और तोड़ने वालों की संख्या कम हो गई है। 
रिमोट से चलने वाली गाड़ियां जो बच्चों को बेहद आनंद देती थी और दुकान वाले को ढ़ेर सारा पैसा। यह खिलौना संभ्रांत लोगों के घरों में घूमती थी और अब भी इस पर उन्हीं का कब्जा है। चाभी भरकर चलने वाली गाड़ियां जो चाभी भरने पर कुछ दूर आगे निकल जाती थी फिर उस गाड़ी के द्वारा तय की गई दूरी को खुद से तय किया जाता था। यह खिलौना मध्यम वर्ग के लोगों के घर तक सफर करती थी और आज भी ऐसा हीं है। तीसरे प्रकार के खिलौने में ना हीं रिमोट होता था ना हीं चाभी की व्यवस्था। बच्चों को उस गाड़ी के साथ चलना होता था। कुछ वर्ष पहले तक चप्पलों से बनी हुई गाड़ियां बच्चों के हाथ में दिख जाया करती थीं। चप्पल के पिछले हिस्से के घीस जाने पर उसे बिल्कुल गोल आकार में काट कर दोनों गोल हुई चप्पलों को एक लकड़ी के सहायता से समानांतर रखा जाता था। फिर एक लकड़ी के माध्यम से उसे चलाया जाता था। पिछे एक डब्बा साथ में लगाया जाता जिसमें बच्चे अपने हिस्से का सोना बटोरते थे। किसी टिले की मिट्टी, नदी के सुंदर पत्थर और चमकीले बालू का भंडार। कुछ नए चप्पलों को भी इन गाड़ियों के निर्माण में बर्बाद किया जाता था। पहाड़ों पर इन गाड़ियों के साथ लंबी सैर कि जाती थी। अंतिम बार मैंने यह खिलौना द्वारिका के पास देखी थी जिसमें वह अपने हिस्से का सोना बटोर रहा था। इन खिलौनों पर भारत के हर उस बच्चे का हक है जो देश की सतही और जमीनी वास्तविकता में जी रहा है और नेताओं की ईमानदारी एवं विकास वाली डिब्बी में गोल-गोल घूम रहा है। 
आज भी ऐसे हीं चलती हैं सभी गाडियां। अब भी इनका विभाजन इसी प्रकार होता है। 

मोबाइल 
एक छोटी रस्सी जिससे उसे गले में लटकाया जा सके। हर बटन के साथ एक नया गाना बजा करता था। वह हमें देश दुनिया से नहीं खुद से जोड़ा करता था। ट्रींग.. ट्रींग...हेलो के साथ दूर बैठे किसी कल्पनातीत व्यक्ति से किसी भी प्रकार की कोई भी बात की जा सकती थी। चल छैंया.. छैंया..छैंया गाना उस मोबाइल का सबसे पसंदीदा गाना था। मणिरत्नम साहब को उसकी जानकारी है या नहीं इसका ठीक-ठीक पता कर पाना असम्भव है। 
इस मोबाइल की सबसे बेहतरीन खासियत यह थी कि हम इससे अपनों से दूर नहीं होते थे। दूर कहीं किसी से बात नहीं होती थी। अपने में खोए रहते थे। और खुद को खोने से पहले वह खिलौना टूट जाता था।

रासलीला
बहुत धुंधली याद है पहले समय की। जिस समय पहली बार गांव में रासलीला का आयोजन हुआ था। "श्री हरे कृष्ण शर्मा जी" जिनकी आवाज सुनकर किताबों में पढ़ें शास्त्रीय संगीतकार को जीता हुआ महसूस किया था। 
मैं पूरी लीला के दौरान मैं कंचन भैया के पास बैठा रहता जो एक बोर्ड जैसी चीज पर अपने हाथों से करतब दिखाया करते। और उनके हाथों को चलाने के तरीके से और शोर में बदलते आवाज को सुन मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ करता। मानों वो कुछ ऐसा विशेष कार्य कर रहे हों जो कोई और नहीं कर सकता। मैं भी नहीं कर सकता। कुछ एक बार मैंने भी उसके प्वाइंट को आगे पीछे किया था लेकिन कुछ खाश कर नहीं पाया। मुझे ठीक-ठीक यहीं लगता कि आवाज यहीं से निकलती और मंच पर मंचन कर रहे लोग अपना मुंह हिला रहे हैं। पर मैंने अपनी इस व्याकुलता से उपजे सवाल को कभी उनके समक्ष प्रदर्शित नहीं होने दिया। लेकिन कुछ वर्षों बाद पता चला कि यह साउंड मिक्सर मशीन है। मंच पर बोल रहे लोग सच में बोलते हैं। यह मशीन उनके बोले हुए को सुनने लायक बनाती है। 

कंश की हंसी पर तबले की ताल का संगम सभी को मुग्ध कर देता था। मयूर कुटी में विहार करती राधा रानी कृष्ण की प्रतिक्षा में जाती और वहां श्री कृष्ण स्वयं मयूर बने नृत्य कर रहे होते। "कान्हा मोर बन आयो" के संगीत पर कृष्ण जी के नृत्य को देख लगता जैसे पूरा गांव वृंदावन में परिवर्तित हो गया है। जैसे मोर साक्षात हमारे समक्ष नृत्य कर रहा है। व्रज भाषा की मधुरता गन्ने से भी मिठी महसूस हुई थी। कुछ दिनों के लिए सभी "काहो" कि जगह राधे-राधे कहने लगे थे। बच्चे व्रज भाषा बोलने की नाकाम कोशिश करते। हर घर में कृष्ण और कंश के किरदार को निभाने की चुहल आरंभ हो जाती थी। 

कुछ किरदार आज भी मेरी याद में घर कर गए हैं जो सदैव जीवंत रहेंगे। 
अब शास्त्री जी की अवस्था वृद्ध हो चली है। आवाज़ की थरथराहट और देंह की कंपकंपाहट उनके वृद्ध होने को और भी गाढ़ी करती है। बहुत से पुराने चेहरे इस मंडली के हिस्सा नहीं हैं। कुछ हैं जिन्हें पहचान पाना मुश्किल हो गया है।


अब शास्त्री जी भी व्यास की पदवी नहीं संभालते।
इस बार का रासलीला मन को रास नहीं आ रहा था उसका मूल कारण शास्त्री जी का व्यास नहीं होना था। लेकिन एक रात की लीला में उन्हें व्यास रूप में और दूसरे रात्रि की लीला में सुदामा के रूप में उन्हें देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 
जय प्रकाश चतुर्वेदी (बाबा)

भेंट, मुलाकात मात्र एक माध्यम है हमारी उपस्थित का। हमारी उपलब्धियों का। मैं जब भी बाबा को देखता हूं मुझे उनकी लकीरें नजर आती हैं। लकीरों में संघर्ष नजर आता है। बाबा की लकीरें स्वयं में कहानियां कहती हैं। जानकारियों का गुच्छा होंठों पर कंपकंपाता रहता है। लकीरों आज भी कुछ नया करने के लिए भागती हैं। उम्र से दौड़ लगाती है। उम्र हर रोज हारता है लकीरें माथे पर थकान लिए उभर जाती हैं। यहीं थकान हर पल उनकी महानता की कहानी कहता है।


बीतते समय के साथ मैंने बाबा में कुछ खास परिवर्तन नहीं पाया। कुछ उनके कलम और सामने के बाल जो सफेद के साथ हल्के काले हुआ करते थे वो पूरी तरह अपना अस्तित्व खो बैठे हैं। और सफेद के आगे जाना अब उनके बस में नहीं। पर कुछ दिन पहले मिलने पर मैंने पाया कि सेवा करते वक्त जो लकीरें उनकी हाथों में मैंने देखा था वो वहां धुंधले पड़ते जा रहें हैं। और उन्होंने अपना स्थान बदल लिया है। उन लकीरों को मैंने उनके चेहरे के आस-पास कमजोर होती मांसपेशियों में देखा। होंठों पर मुस्कराहट होने के बाद भी उनके मस्तिष्क पर एक अजीब सा बल महसूस किया मैंने। जैसे होंठो का एक उल्टा प्रतिबिंब उनके मस्तिष्क पर जा बना हो। आंखों में चमक आज भी वैसी हीं हैं पर मानों बदलते वक्त के आधुनिक आविष्कार में उनकी चमक थोड़ी चिंतित सी है। मैंने हमेशा से उनको एक टूटते तारा जैसा महसूस किया है। जिससे हर कोई अपनी ऊम्मीद लगाता है। एक आश देखी है मैंने सभी के भीतर। और उस उम्मीद को वास्तविकता का रूप लेते हुए भी। मेरी हमेशा से यहीं धारणा रही कि बाबा पानी और धूप की तरह हैं जिसकी कमी और अधिकता दोनों ही कस्टदायक होती है लेकिन मैंने उन्हें हमेशा सत्य हीं अपनाया है। उस मीठे जल के समान जिससे सदैव मेरी प्यास बुझती आई है। और सुबह की पहली धूप के समान जो पूरे शरीर को ऊर्जाओं से भर देती है। उनका होना आशिर्वाद जैसा है जो आपको प्रेरणा से भर देता है। जब से मेरी सोच अस्तित्व में आई हैं मैंने उनकी कल्पना उस महल की तरह की है जिसके भीतर पूरा परिवार अपने जीवन को एक दिशा देने में सक्षम हुआ। और आज भी महल के हर एक कोने पर उनकी उतनी ही नजर है। अब बढ़ते उम्र को देखकर मैंने पाया निंव आज भी मजबूती प्रदान कर रहा है लेकिन छत मानों कमजोर हो चलें हैं। अब भी मैंने उन्हें अपने लकीरों से लड़ते देखा है। 


पर हर बार उस लड़ाई में लकीरें जीतती जा रही हैं और वह लकीरें धीरे-धीरे सारे शरीर पर घर बना रहीं हैं। मैंने अंतिम बार उन लकीरों को उनके शरीर से हटाकर हाथों पर लाने का प्रयास किया था पर असफल रहा। मैंने अक्सर उनसे, उनके वृद्ध होने की बात कहीं पर मानों लगता है उनकी नजर हाथों की उन लकीरों पर चली जाती होगी जिसे वो हर रोज देखते हैं और उन्हें बराबर नजर आते हैं। जिन्हें मैं बहुत दिनों बाद देखता हूं और मुझे कम नजर आते हैं। और यह नजर का हीं तो असर है सब अपने-अपने नजर से देखते हैं। लेकिन यह लिखना देखने जीतना आसान नहीं था। फिर कभी सामने दीवारों पर लगे तश्वीर जो बचपन से आजतक घर की शोभा बढ़ाते आ रहे हैं। मैंने उन्हें हाथ से साफ करने की कोशिश की तब मुझे मेरी लकीरें नजर आनी बंद हो गई और मैंने लिखना शुरू किया। लिखते वक्त मेरी नज़र हर बार मेरी लकीरों पर चली जाती थी मानों मैं अपनी लकीरों को शब्द दे रहा हूं। तभी अचानक तस्विरों के पिछे से गुजरती छिपकलियों को देख ऐसा लगा मानों वो एक अजीब सी लकीर खींच रहा हो और मैं दीवारों को एक टक देखने लग जाता। मैं रूक जाता और लगता जैसे सारी लकीरें बिखर गई हो और मैं फिर उन्हें समेटने में लग जाता। इन सभी लकीरों के मध्य सिर्फ एक हीं बात समझ में आयी कि बाबा का त्याग और सेवा किसी बलिदान से कम नहीं। उन लकीरों ने खुद को खोने से पहले बहुत कुछ पाया है। कम होते इन लकीरों को आज भी समाप्त होने का डर नहीं है। बचे हुए कुछ लकीरों को मिलाकर अगर कोई शब्द का रूप दिया जाए तो वह सेवा हीं होगा।

#विशेष
आंखों के नीचे अलसाई सी झुर्रियां। पेशानी पर उम्र की मुक्तता। आंखों में धुंधलाती हुई उम्र का संघर्ष। सफेद हो चले बालों में छुपी लंबें उम्र की यात्रा। और होंठों पर सूखी हुई ढ़ेर सारी किस्से कहानियां आपके अस्तित्व को और भी मजबूत करती हैं। आपके स्वभाव को और भी खूबसूरत बनाती हैं। मैं राजनीति से सदैव से घृणा करता आया हूं शायद तब से जब से मैंने होश संभाला। तब से जब से राजनीति और सेवा में अंतर समझा। मैंने कभी आपको राजनेता के रूप में नहीं देखा। मैं अक्सर अपने आप को इस बात के लिए भाग्यशाली मानता हूं। मेरा आपको राजनैतिक दृष्टि से देखना मुझे आपके प्रति घृणा से भर देता। जैसे मैं भगवान में लेशमात्र भी विश्वास नहीं करता पहले करता था लेकिन अब नहीं करता आप में मेरा तनिक भी विश्वास नहीं। बंगाल में समय व्यतीत करने के पश्चातभगवान के प्रति मेरे मन में सिर्फ श्रद्धा है। वो श्रद्धा मेरे भितर आपके लिए बहुत पहले पनप चुका था। वो श्रद्धा कई पन्नों पर अपनी जगह बना चुका है। मेरे पास आपसे जुड़ा कोई संदेह नहीं, किसी प्रकार का विचार नहीं कोई सवाल नहीं। इन तमाम उहापोह से इतर बस श्रद्धा है। संदेह विचार पैदा करते हैं और विचार से विश्वास की उत्पत्ति होती है। लेकिन मैं उस विश्वास में जरा भी विश्वास नहीं करता।.

वस्त्र वितरण समारोह

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