सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, March 5, 2023

बड़ा पुत्र पिता को अधिक प्राप्त करता है

हर व्यक्ति और वस्तु का नाम तय होता है और उम्र निश्चित होती है। स्थान की सजीवता जीवनपर्यंत रहती है। एक व्यक्ति थे जिन्हें लिखकर मैं उनके आसपास भटकने लगता हूं और फिर उस लिखे को पढ़कर उनके पास बैठ जाता हूं। उनसे संवाद करता हूं जो उनके जीवित रहते नहीं कर पाया। कुछ बातें जो बचपन में उनसे कहनीं थीं उन्हें बार-बार दोहराता हूं। आज के पलों की कही जाने वाली बातें उनसे कहता हूं। अपने खालीपन को भरने का इससे सुंदर और शांत तरीक़  मैं अब तक नहीं ढूंढ पाया। घर के पीछे खड़े मौन पहाड़ों पर जाकर पिताजी की आवाज को सुनने का प्रयोग मैं अक्सर करता हूं। फिर बेचैन सा एक स्थान पर आकर घूमने लगता हूं। जो मेरा घर है। जिसे पिताजी ने अपनी हिम्मत,मेहनत,थकान,समझ और धन की सहायता से निर्मित किया था। एक वस्तु थी जो पिछले महीने तक है की स्थिति में गराज के कोने में एक तरफ दोनों स्टैंड पर खड़ी थी। केवल खड़ी थी। उसका उपयोग नई मोटरसाइकिल आने के बाद लगभग बंद हो गया था। । मुझे आज भी याद है बजाज के स्कूटर को पास के कस्बे विंढमगंज में सस्ते दाम पर बेचकर यह नई टीवीएस की मोटर साइकिल आई थी। पिताजी ऐसे फैसले अक्सर अकेले हीं लिया करते थे। लेकिन उससे प्राप्त खुशियों में सभी शामिल हुआ करते थे। बिल्कुल मिठी शांत आवाज में बातें करती यह मोटर साइकिल हमारे घर में प्रवेश करती थी। पहली रोज का प्रवेश हम सभी को आश्चर्य से भर गया था। गर्मी की छुट्टियां थीं फूआ और उनके बच्चे सभी घर आए हुए थे। मां रसोई में बड़े कढ़ाही में लौकी की सब्जी को पका रही थी। सामने रोटियों का पहाड़ रशोई में रखा हुआ था। जो कुछ देर में भूख के गड्ढे में समाहित होने के लिए तैयार था। उसीना भात की महक पूरे आंगन में फैली हुई थी। उन दिनों हम सब माड़-भात नमक बहुत स्वाद और प्रेम से खाते थे। अब उसीना भात युवा पीढ़ी के आलस का तेज नहीं सह पाती। गर्मी के कारण सभी बच्चों के हाथ में एक-एक आम था। आम चूसते हुए हम बर्फ़ पानी खेल रहे थे। निश्चिंता से कोई मैदान में पानी की तरह बह रहा था तो कोई बर्फ़ की तरफ जमा हुआ खड़ा था। उस बीच पिताजी कब नई नवेली मोटर पर सवार हुए घर आ गए किसी को खबर नहीं लगी। उनके हाथ में मिठाई का एक डब्बा सभी ने देखा था लेकिन आम के मिठास से सभी संतुष्ट थे और नई मोटरसाइकिल की जिज्ञासा ने मिठाई को नजरंदाज कर दिया था। सभी ने आप से चिपचिपे हुए हाथ को अपने कपड़ों में पोंछा और बर्फ पानी का खेल छोड़ तालाब की तरह इकठ्ठा हो गए। सभी मोटरसाइकिल के पास आकर उसे छू रहे थे। कोई उसपर बैठ रहा था और झूठा चलाने का नाटक कर रहा था। कोई मूंह से पीप की आवाज निकाल रहा था। सभी उस पर बैठकर अपने पसंदीदा जगह पहुंच जाना चाहते थे। मेरी कोई भी जगह पसंदीदा नहीं थी। मैंने उस समय तक केवल शक्तिनगर,नाना के गांव और अपने गांव तक का सफर तय किया था। और तीनों हीं जगह की उबन मेरे भीतर दबी हुई थी इसलिए मैं हर गर्मी की छुट्टी में इन जगहों से अलग जगह पर जाना पसंद करता था। अगली सुबह सूरज की रोशनी में उसकी पूजा हुई। हैंडल पर माला चढ़ाया गया। सूर्य की रोशनी में गाड़ी की चमक और हमारे आंखों की चमक दोनों बढ़ गई थी।
मोटरसाइकिल को इस स्थिति में देखकर ग्लानि महसूस हो रही थी। अपने लालच पर क्रोध आ रहा था।
पिताजी की मृत्यु ने सबसे पहले मां की तरुणाई खाई थी और भैया के बचपन को निगला था। उसके बाद उन्हीं के हाथों लगाए आम के पेड़ को दीमक चाट गई थी। हमारी हर गलती पर "बिना अभिभावक के बच्चे ऐसे हीं होते हैं" का व्यंग मेरे वर्तमान को उद्वेलित करता था। पिछले वर्ष बेल का पेड़ जिसके नए पत्ते की खुशबू से घर महक उठता था और फल से उदर की गर्मी शांत होती थी वह थक कर सूख गई। कुछ सागौन के पेड़ जिनकी उम्र १०० वर्ष होनी चाहिए थी वो पथरीले जमीन पर अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं। अशोक और शिशम के पेड़ से घर की खुबसूरती में वृद्धि होती है लेकिन बिजली के खंभे और तारों के मध्य फंसे पेड़ों को देख अक्सर घर और पेड़ दोनों के समाप्त हो जाने का डर बना रहता है। भैया ने बीते दिनों बताया कि पेड़ का काटना आवश्यक है उसके दुष्प्रभाव से हर गर्मी का मौसम हमें आग के करीब लेते जाता है।यह सुन मैं कुछ समय के लिए ठिठक गया। हिचक और टीस ने मुझे अवसाद से भर दिया। मेरे लिए पेड़ का समाप्त होना पिताजी से और दूर होने जैसा है। बचपन के गर्मियों की छुट्टी में प्रतिदिन स्नान से पहले पिताजी सभी पेड़ में बाल्टी लेकर मग्गे से पानी डाला करते थे। सभी पेड़ पुराने पेड़ों की लचीली टहनियों को लपेटकर बनाए हुए डाली से घिरे होते थे। घर के पीछे खड़े बंजर और हठी पहाड़ पर भी उन्होंने डीजल और नीम के पेड़ लगा रखे थे। नीम अब भी ऊसर भूमि से अपनी लड़ाई लड़ता हुआ पिताजी की मेहनत को जीव स्वरूप में स्थित रखा है। डीजल केे पेड़ हर वर्ष धूप के दिनों में उन्मोलन के शिखर को छूते हैं और हर बरसात में लहलहाकर हरे हो जाते हैं। मानों पिताजी ने एक लंबी गहरी सांस ली हो। पिताजी ने पेड़ पौधों को अपने बच्चे की तरह सींचा था। संस्कार की जगह पानी और अनुशासन की जगह खाद का समूचा उपयोग किया था। वर्ष में एक बार सभी पेड़ों के टहनियों को खूबसूरती अनुसार काटा जाता था। मानों उनका श्रंगार किया जा रहा है। उनके मृत्यु के बाद मैैंने भी कुछ पेड़ के गांछ लगाए थे लेकिन जो जानवर की क्षुधा शांत करने में समाप्त हो गए। बचे हुए पेड़ों को खोने के डर ने मुझे और भी अकेला कर दिया है। भैया ने मेरी उदासी पकड़ ली थी। उनके दूबारा पूछे जाने को मैंने कुछ नहीं के ज़बाब से शांत किया था। मैं कुछ समय मौन रहा और फोन रख दिया। पिताजी की मृत्यु उपरांत सभी ने अपने हिस्से उन्हें समेट लिया। भैया का चेहरा पिताजी से बहुत गहराई से मिलता है। इस मामले में मैं हमेशा खुद को छिछला महसूस करता हूं। बड़ा पुत्र पिता को अधिक प्राप्त करता है। क्योंकि वह उन्हें पिता होने का सौभाग्य प्रदान करता है। छोटा पुत्र उस कड़ी में संतुष्टि को जोड़ता है। मैंने पिताजी के जीवन में संतोष को जन्म दिया था। मैंने उन्हें पिता नहीं बनाया ना हीं मां को मां। 
मैंने बस उन्हें चखा है मैंने उन्हें उस शब्द से संबोधित किया है जो वो पहले से थे। उन्हें भैया ने पहले हीं पूर्ण कर दिया था। मैंने मात्र उस पूर्णता को जड़ित किया है।
भैया ने पिताजी की घड़ी ,रूद्राक्ष और स्फटिक की माला अपनी देंह पर पहली बार लपेटा था तो पिताजी का चेहरा आंखों के सामने घूमने लगता था। कुछ दिनों के रूकावट और ठहराव के बाद भैया ने पिताजी की सारी जिम्मेदारी को अंगीकार किया। मां ने पिताजी को स्वयं में जीवित रखा था।  मैंने उनकी सारी पुरानी डायरी जिसमें वो कुछ-कुछ लिखा करते थे। जिनमें उनका स्वअध्य्यन, कुछ गीत शामिल थे। उनकी कुछ दूसरों द्वारा प्राप्त और अप्रेषित पुरानी चिट्ठियां मैंने अपने एक फाइल में लगा दी थी। उनके सभी कपड़ों को मैंने साफ़ कर घर के बक्से में बंद कर दिया था। उनकी बचपन की तस्वीर और एल्बम की सबसे खूबसूरत तस्वीर मैंने अपने पास रख ली थी जो आज भी मेरे पास हैं। घर जाने के बाद मैं हर बार अपनी डायरी के पुराने पन्ने पलटता हूं। पिताजी की फोटो देखता हूं। कुछ चित्र दीवारों पर भी सजी हुई हैं जिनके समक्ष मैं घर पहुंचने के बाद और घर से निकलने से पहले नतमस्तक होता हूं। मार्मिकता से लिखी और प्राप्त की हुई उनकी चिट्ठियां पढ़ता हूं। उन्हें वापस रख देता हूं। भीतर पड़े कपड़े को हर बार स्पर्श करता हूं उन्हें सूंघता हूं और पहनने के भाव की हत्या कर उन्हें वापस रख देता हूं। मां के प्रतिक्रिया का भविष्य आंखों में तैरने लगता है। एक पूराना कुर्ता जो पिताजी के पूजा करने वक्त अगरबत्ती से जल गया था उसे मैंने उन कपड़ों से अलग छुपा कर रख दिया है। इस योजना में कि सबसे पहले मुझे उसी कुर्ता को पहनना है। 
समय बीतते मुझे भरसक उम्मीद है कि पिताजी से जुड़ी हर वस्तु समाप्त हो जाएगी। हम सभी का भी अंत होगा। जैसे पेड़ों का जीवन अंत की ओर पहुंच रहा है। 
जैसे बड़ी गाड़ी की जगह हमनें छोटी गाड़ी खरीद ली है। 
जैसे बड़े घर से अलग, गांव से दूर शहर में हमनें एक मकान बनाया है। यह सारी क्रिया मृत्यु के करीब जाने के क्रम में बढ़ते कदमों जैसा है।
जिसके लिए हम कभी तैयार नहीं रहते। रहा भी नहीं जा सकता। मृत्यु के लिए कोई तैयार नहीं होता। अपनों की मृत्यु की कल्पना भी हमारे यथार्थ को बिखेर देती है। लेकिन हमें मृत्यु का सामना करना हीं होता है। हमारी तैयारी जीने की होती है। लेकिन मैं एक व्यक्ति को जानता हूं जिन्होंने मृत्यु की तैयारी की थी उनका नाम प्रमोद था। प्रमोद चाचा ने मृत्यु को स्वीकार किया था। स्वयं की हार में मृत्यु पर विजय प्राप्त करना कितना अलौकिक होता है यह मैंने उनके साहस को आत्मसात करके जाना। क्या हम अपने जीने के लालच को मृत्यु के सत्य के आगे समर्पित कर सकते हैं? हमनें तो हर श्वांस को मुठ्ठी मजबूत करके नाकों से गहराई से खींची है मानों संपूर्ण संसार की हवा अपने भीतर एक बार में हीं भर लेंगे। लेकिन उन्होंने उसे अपने परिवार के समृद्ध और शांत भविष्य के लिए स्वयं के आसपास भी नहीं भटकने दिया। मानों जैसे उन्होंने माया को जीत लिया हो। जैसे किसी निरंकारी संत ने जीवन के सतही ज्ञान को प्राप्त कर लिया हो। मृत्यु का सामना करने में और स्वीकारने में ठीक उतना हीं अंतर है जितना शांति चाहने में और शांत रहने में। 
एक दिन सभी शांत हो जाएंगे और उस रात कुछ भीड़ अपनों के स्थूल देंह को नम आंखों से घेरे खड़ी होगी।

2 comments:

Rashmikant Pandey said...

बहुत ही सुन्दर लिखा है, अद्भुत👍
लेख को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे हम पुराने वक्त में चले गए।

Unknown said...

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