सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, April 16, 2023

पूर्णिमा स्वर्ग में रहती है

मैं अक्सर अपने बचपन की यात्रा करना चाहता हूं। खुद को देखना चाहता हूं। अपने दोस्तों से मिलना चाहता हूं। क्योंकि उस समय के दोस्त भी वर्तमान में दोस्त नहीं लगते। जो साथ में साइकिल पर बैठ शहर नापा करते थे। बारी-बारी साइकिल खींचा करते फिर थककर कहीं खाली पेट भर अंजुली पानी पिया करते थे। उनकी भी धारणा मेरे प्रति ऐसी हीं होगी। मैं कभी अपने स्कूल के मित्र गौरव, महेश्वर,बादल, अरविंद, नितेश,राकेश रंजन किसी से बात करता हूं तो आज के दिनों की बात नहीं करता। विद्यालय के दिनों की बात करता हूं। दोस्त वहीं बनते हैं। बढ़ते उम्र और पड़ाव में हमें दोस्त कहीं नहीं मिलते। हमें साथी मिलते हैं। सलाहकार मिलते हैं लेकिन दोस्त नहीं। दोस्ती जैसी स्वतंत्रता मैंने उम्र के किसी पड़ाव पर महसूस नहीं की। शायद यहीं कारण है कि मैं अपने दोस्तों से पुराने दिनों में मिलना पसंद करता हूं। वह भी करते हैं। हमारी बातें उन्हीं पुराने दिनों की होती है। उसी कस्बे के आसपास की जिसका कोना-कोना हमारे भीतर ऐसा बसा है जहां हम आंख बंद करके दौड़ सकते हैं। मैंने यहां चलने के क्रम में और चलते जाने के क्रम में खुद को खड़ा पाया है।


 "उन सभी के लिए जो साथ हैं"


पूर्णिमा स्वर्ग में रहती है

छठवीं कक्षा की बात है। नरेंद्र तिवारी और चितरंजन गिरी दोनों मेरे अच्छे वाले दोस्त थे। चितरंजन नहीं है लेकिन आज भी मेरा दोस्त है। नरेंद्र है लेकिन दोस्त है या नहीं यह मैंने कभी उससे नहीं पूछा। पिछली बार मिला था तो दोस्त की तरह मिला था जैसे बाकी के दोस्त मिले थे। पूर्णिमा की खूबसूरती को मैंने चांद के आसपास देखा था कहीं अपने सपने में या कक्षा में बैठे ख्यालों में। उस दिन से जिस रोज नरेंद्र ने उसके स्वर्ग में रहने की बात कही थी। चितरंजन बोलता था वह कोयले के बीच बसे एक कस्बे में रहती है। उसके पिताजी उसे कोयले में खुद को रोज खर्च करते हैं। लेकिन उसकी खूबसूरती को देख हमने उसकी बात का खंडन कर दिया था। फिर चितरंजन ने रजिस्टर से उसके घर का पता निकाला और हमारे सामने रख दिया। वो सच में कोयले के कस्बे में रहती थी। नरेंद्र ने चितरंजन को देखते हुए कहा मेले पापा बिदली के बीच में लहते हैं इसलिए मैं तमकता हूं‌। लेकिन इथके पापा तो कोयले के बीत में लहते हैं फिर ये कैसे तमकती है? चूतिया हो क्या एकदम ? तोतला साला। कोयले से हीं तो बिजली बनती है। और हीरा भी समझे चितरंजन ने डांटते हुए उसे कहा। तुम भी इसी लिए चमक रहे हो क्योंकि उसके पापा कोयले में खर्च होते हैं। मतलब हर चमकती हुई और सुंदर चीज के पीछे कोयला है? मैंने चितरंजन से पूछा। नहीं पूर्णिमा के घर के पीछे कोयला है। उस कोयले से हीरा निकलता है। जो हीरा उसके पिताजी को मिली थी। उन्होंने चुपके से वो हीरा घर लाकर पूर्णिमा को दिया था। उसी की चमक उसकी देंह से चिपक गई है। वो हीरा हमेशा अपने पास रखती है। एक दिन प्रार्थना सभा में सभी छात्र शामिल थे। दूसरी ओर कक्षाचार्या ममता बहन जी के मदद से सभी बच्चों को बस्ता जांच किया गया पूर्णिमा के बैग से कुछ सामान बरामद किए गए जो विद्यार्थी और विद्यालय दोनों के नियम के पक्ष में नहीं थे। नरेंद्र धीरे-धीरे बोल रहा था हीला मिल गया ...हीला मिल गया... पूर्लिमा के बस्ते से हीला मिला है हीला। मैंने कहा हीरा तो उसके पास रहता है बैग में नहीं। चितरंजन ने भी साथ दिया। लेकिन नरेंद्र अपनी बात दोहराता रहा... हीला मिल गया भाई मेली बात मान वो चमक लहा था बिल्कुल बादथाह फिल्म वाले हीले की तरह। उसके बाद पूर्णिमा कभी स्कूल नहीं आई। मैं रोज उस आकाश की ओर देखता जहां पूर्णिमा बैठती थी। वहां सिर्फ ग्रह नजर आते थे। नरेंद्र अपनी जांघ पर गंदे इशारे करते हुए बोला देखा कहा था हीला स्कूल वालों को मिल गया है इथलिए वो अब स्थकूल नहीं आती। क्योंकि उथका हीला खो दया है। वो काली हो दई होदी। हीला जिथके पाथ होता है वह गोला हो जाता है। तेरे पास कौन सा हीरा है तोतले? चितरंजन ने गुदगुदी करते हुए उससे पूछा। मेरे पाथ आईना है भाई। मैं उथमें खुद को देखकल गोला कल लेता हूं। हम तीनों उस आसमान की ओर देखते हुए हंसे जहां पूर्णिमा बैठती थी। वह दोबारा विद्यालय कभी नहीं आई। लेकिन मैं उसे सपने में आकाश में उड़ते हुए देखता। सपने में मैंने एक रात देखा जैसे कक्षा पृथ्वी है, पूर्णिमा चांद और सभी साथ पढ़ने वाले तारों की तरह उसके आसपास टिमटिमा रहे हैं। फिर एक लंबी गोली करवट लेते हीं मैंने खुद को कक्षा में पाया जहां ममता बहन जी हाथ में छड़ी लिए सभी का बस्ता जांच रहीं थीं। और उन्होंने तेज आवाज में कहा सभी बच्चे अपने बैग खोलकर रखो। पता है ना पिछले दिनों पूर्णिमा के बैग से आईना मिला था। आज किसी के पास कुछ मिला तो बहुत मार पड़ेगी। इतना सुनते हीं हम दोनों नरेंद्र पर हंसने लगे। उसके बाद नरेंद्र कभी स्कूल नहीं आया। कुछ दिन बाद उसके भाई राघवेन्द्र ने बताया कि उसका आईना टूट गया है। कुछ दिन के बाद राघवेन्द्र ने भी विद्यालय आना छोड़ दिया। पूर्णिमा को दोबारा फिर किसी ने नहीं देखा। 

थाला थाका लाका बूम बूम

सूर्योदय बुक स्टाल शक्तिनगर की सबसे प्रसिद्ध किताब की दुकान। छोटे शहर में हालांकि हर चीज प्रसिद्ध होती है लेकिन सूर्योदय बाकी सभी से अधिक प्रसिद्ध था। 
जैसे मिठाई के लिए सत्कार और यादव मिष्ठान भंडार। कपड़े के लिए रवि ड्रेसेस। फोटो के लिए पप्पू फोटो स्टूडियो। एक कारण यह भी था इन सभी दुकान वालों के बच्चे अपने विद्यालय में अध्ययन करते थे। इनके अभिभावक को विशिष्ट अभिभावक का दर्जा प्राप्त था। मिठाई और किताब के लिए आचार्य जी के श्री मुख से इन्हीं दुकानों के नाम बाहर कूदते थे। और इन सभी से अलग रवि ड्रेसेस ने अपनी दुकान के प्लास्टिक थैला पर लिखा रखा था "मम्मी.. मम्मी चलो ना रवि ड्रेसेस" और यह एक पंक्ति लंबे सड़क को छोटा कर देती थी। एक बनियाइन लेने पर भी दुकान के मालिक द्वारा ५ पन्नी भेंट की जाती थी। मानों जैसे पूरे शहर में रवि ड्रेसेस का प्लास्टिक का थैला फैला हुआ है। सब्जी से लेकर कपड़ा तक उसी थैले में लाया ले जाया जा रहा था। इसी बीच एक खबर उड़ती हुई विद्यालय की ओर पहुंची "संजू का पेंसिल सूर्योदय बुक स्टाल पर आ गया है" 
संजू का पेंसिल "साकालाका बूम बूम" वाले संजू का पेंसिल जिसके ऊपर एक आकर्षक मुखौटा हुआ करता था। जिससे बनाई हुई हर वस्तु वास्तविक हो जाती है। अब कोई भी संपन्न परिवार का बच्चा नटराज की पेंसिल नहीं खरीदता था। नटराज अब गरीबों की पेंसिल थी। नरेंद्र अमीर था उसने संजू की पेंसिल खरीदी। लेकिन छोटे मन से रबर बनाने के लिए कुतरता गया। उस पेंसिल में कोई जादू नहीं था। फिर उस मुखौटे को वह नटराज के पेंसिल में लगाने लगा। वह तब भी अमीर था। अमीर दिखते हुए उसने बोला "तंदू की पेंथिल..तंदू की पेंथिल थाले तूतीया बनाते हैं तीबी वाले औल वो दुतान वाला भी थाला तोल है" थाला थाका लाका बूम बूम 
संजू के झूठ से हम उबर हीं रहे थे कि दूसरा प्रसंग सभी के कानों में कूदा गया। "रिक्की प्वाइंटींग" के बल्ले में स्प्रिंग था" 
वर्ल्डकप मैच के फाइनल में आस्ट्रेलिया अच्छी तरह जीत गया था उस जीत में भारत की हार से हमारे बीच दो महत्वपूर्ण खबर फैली हुई थी। सचिन को सोने का बैट दिया गया है और रिक्की प्वाइंटींग के बैट में स्प्रिंग है। हां बे पापा बोल लहे थे घल पल की इसके बैत में स्प्लंग है। नरेंद्र ने जोर लगाते हुए उस बात का समर्थन किया। और सचिन का बैट सात करोड़ का है इसका अनुमान सभी दोस्तों ने मिलकर लगा लिया था। मैं इस स्प्रिंग वाले किस्से के साथ लंबे समय तक टहलता रहा। आस्ट्रेलिया के वर्ल्डकप हारने के बाद मैंने इस झूठ को खुद से दूर फेंका।

साले वो तुझे हीं देख रही है

हर इंसान एक ऐसे दौर से गुजरता है जब संस्कार के आगे हार्मोन्स जीतने लगता है। और ऐसा लगभग सभी के साथ होता है। फिर हम उस दौर में थे जहां हम इंसान थे हीं नहीं। इंसान बनने के क्रम में भटकते अबोध छात्र थे जिसे वो सब प्राप्त करना था जो आंखों के सामने दिख जाए। जो मन को भा जाए। उसी प्राप्ति के सफर में कुछ उसकी नदी में उतरकर उड़ने लगते हैं। कुछ उसकी टीस लिए धरती पर तैरते हैं। उड़ने वालों के पंख कमजोर होते हैं और तैरने वाला छटपटाकर शांत हो जाता है।
जिनसे में एक था शहनवाज़ जो प्रार्थना सभा में अपने सिर को हल्का झटका देकर त्रिपल बजाता था। तिरछी नज़रों से किसी को देखता हुआ इस उम्मीद में कोई उसे आकर बोले की वाह! तुम बहुत अच्छा त्रिपल बजाते हो। मुझसे दोस्ती करोगे? पर ऐसा कभी किसी ने नहीं कहा। और ना शहनवाज ने किसी से कभी कुछ कहा। उसने अपने भीतर छुपे सारे शब्दों को एक धुन में उतार दिया और पूरा सभागार उसकी आवाज सुना तो, लेकिन समझा कोई नहीं। उसके पीछे का मूल कारण यह था कि दीपक ने एक लड़की को उसे दिखाते हुए प्रागैतिहासिक शब्द कहा था जिसे हर वो लड़का सुनना चाहता है जो किशोरावस्था से बाहर कूद रहा होता है... देख तुझे हीं देख रही है बे।
ऐसे हीं बहुत से अंग्रेजी मिडियम से आए लड़कों ने हीं प्यार नाम की परछाईं सब पर बिखेर दी। पर भैया-बहन कहकर पूरे क्लास को संबोधित करने के अंधेरे में वो परछाईं गुम हो गई। सभी संस्कार की अग्नी लिए अपने भीतर उग रहे प्यार को जलाते रहे। 
कुछ लोग किसी से किसी का नंबर जुगाड़ करते रहे। प्रदीप ने तो ना जाने कितनों को घड़ी देने का वादा कर रखा था। करता भी क्यों नहीं? उसकी घड़ी की दूकान जो थी। पर उसकी घड़ी दुकानों में सजती ज्यादा और बिकती कम थी। 
कुछ को नंबर मिला नहीं और कुछ को मिला तो घर का। पर उस दौर में घर मतलब केवल पिताजी हुआ करते थे। मोबाईल और सीम दोनों के दाम की सीमा इतनी ज्यादा थी कि उसे पार कर पाना सभी के बस की बात नहीं। इसलिए हर हाथ में फोन नहीं हुआ करता था। सिमित हाथ की उंगलियां सीमित समय के लिए तेज गति से सक्रिय हुआ करतीं थीं। तब मिनट का नहीं सेकेंड का दौर था। अब घंटों का दौर है। कुछ सेकेंड को अपनी ऊंगली पर नचाते वीर विद्यार्थियों ने प्रयास भी किया पर एक रूखी आवाज ने प्यार के फूल को मुरझा कर रख दिया। तब आज जैसा नहीं था। चिट्ठी भी डाकिया घर के बड़े को हीं देकर आता था। 
कुछ पिछा करते-करते घर तक जा पहुंचते। क्वाटर नंबर देख आते और खुशी से झूम उठते इतना कि साइकल का हैंडल छोड़ हवा में उड़ने लग जाते।
4D56 शायद सभी ने याद कर रखा था। और आज भी बहुतों को है।
जो कुछ नहीं कर पाते थे वो वहीं शांत होकर नजरें चुराए एक दूसरे को देखते रहते। उन रिश्तों का असल में कोई नाम नहीं है। पर नाम इनका भी जरूर होना चाहिए। जो तेरी वाली, मेरी वाली मुहावरों से मुक्त होते हैं। सबसे अंजान खुद में कहीं कुछ ढूंढते हुए। इस उम्मीद में " कि साले वो तुझे हीं देख रही है"

अबे थुनो पेंथिल के थिलके को दूध में उबालने थे लबल "मितौना" बनता है।

शिशु
प्रथम
द्वितीय तक की पढ़ाई में सभी साफ-साफ बोलने की लड़ाई अपने जिह्वा से लड़ रहे थे। और लिखने की लड़ाई में पेंसिल से। कुछ उसमें सफल हुए। और कुछ नरेंद्र जैसे अब भी साफ बोलने की लड़ाई में सामने वाले से लड़ रहे होंगे। जब मैं पिछली बार मिला था तो आवाज़ में थोड़ी सफाई थी। पेंसिल स्वच्छ लिखने का हथियार हुआ करता था आचार्य जी कहते मोती जैसे अक्षर बनाने का प्रयास करो। देखो मृगेंद्र के अक्षर वर्ग "ख" में पढ़ता है मोतियों जैसे बनते हैं। मृगेंद्र एक बार विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में विवेकानंद बनाया गया था। उसका चेहरा वास्तव में उनसे मिलता हुआ दिखाई दे रहा था। मैंने महसूस किया उसका सुलेख विवेकानंद बनने के बाद सुधरा था‌। इसलिए मैंने विवेकानंद पर भाषण दिया कि मेरे भी अक्षर में सुधार होगा। मैंने अंतर महसूस भी किया। उस प्रतियोगिता में मुझे पुरस्कार के तौर पर पेंसिल बाक्स और रबर मिला था। पेंसिल का जोर इसलिए दिया जाता क्योंकि तीसरी कक्षा से पेन से लिखना आरंभ होता था। इसी बीच नरेंद्र ने विशिष्ट खोज की घोषणा की। 
अबे थुनो पेंथिल के थिलके को दूध में उबालने थे लबल "मितौना" बनता है। यह बात चर्चा का विषय बना रबर बनाने के आविष्कार में २ रूपए की पेंसिल को दोनों ओर से छीला जाने लगा। मैंने भी अपनी पेंसिल को आविष्कार की आंधी में उड़ा दिया। उसके अवशेष किताबों के बीच इकठ्ठा किए जाने लगे। लड़कों की पेंसिल छोटी होती गई और किताब मोटी। कुछ लड़कों ने आविष्कार को आगे बढ़ाते हुए उसे दूध में उबाला और एक तीखी गंध का आविष्कार कर अपने रूपए हवा में उडा़ दिए। एक अफवाह और उड़ी की पंकज के घर के सामने रबर बनाने वाले पेड़ का पत्ता है। कुछ दोस्त उस पेड़ को देखने गए लेकिन उनकी पीठ पेंसिल के इतनी जल्दी खत्म हो जाने के सवाल से ज्यादातर बच्चों ने रबर के आविष्कार में अपने अभिभावक से ऐसा आशीर्वाद प्राप्त किया था कि किसी की हिम्मत उस पत्ते को तोड़ने की नहीं हुई। 
ऐसी हीं दूसरी अफवाह लड़कियों की ओर से शोर करती हुई फैली कि मोर के पंख को काॅपी के बीच में चाक के साथ रखने से मोर की पंखुड़ियों बड़ी हो जाती हैं। इस शोध ने विद्यालय की चाक के खर्चे को दोगुना कर दिया। बच्चों के बैग के भीतरी हिस्सों में चमचमाता हुआ सफेद ताजमहल बनने लगा। लेकिन पंखुड़ियां ठीक वैसी हीं पन्नों के मध्य उनमें दबी रहीं। मैं प्रमाणित करता हूं/करती हूं कि इस उत्तर पुस्तिका के एक भी पृष्ठ बर्बाद नहीं करूंगा/करूंगी। इसे स्वच्छ रखने का हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी के संकल्प से दूर वह इन आविष्कारों को अपने साथ लिए रद्दी की दुकानों पर नए सत्र के आरंभ में तौली जाती रही। जो वापस कालोनी में बदाम पट्टी और मुंगफली वाले अपने बेचे गए सामान के साथ हमें वापस दे जाते थे।

गुलाब का फूल
इकलएयर्स का काफी
पेंसिल बाक्स
और ना जाने क्या-क्या...

कोई मुझसे पूछे कि तुम्हारा सबसे प्रिय मित्र कौन है? तो मेरा जबाब चितरंजन होगा। जिसे सभी चितु बुलाते थे। जिससे अक्सर आचार्य जी द्वारा पूछा जाता , तो बेटा चितरंजन... चितरंजन का नाम सुना है? वह खड़ा होकर जोश में कहता जी आचार्य जी चितरंजन में रेल कारखाना है। और दांत दिखाकर हंस देता। चितरंजन अब इस दुनिया में नहीं है उसकी हंसी और बेहतरीन बातों को मैं अब भी अपने आसपास देख पाता हूं। बिल्कुल पुराने दिनों जैसी। निश्छल,शांत और सौम्य। जब तक वो मेरे इस संसार में था हमारी हर तीसरे दिन बात हुआ करती थी। उसके चले जाने के कुछ दिनों तक मैं उसे अपने बिल्कुल करीब पाता था। उन दिनों में जहां हम साथ घूमा करते थे। चिल्का झील में स्कूल से सभी दोस्तों के साथ वह भी था। अंतिम मुलाकात शक्तिनगर के इंडियन काफी हाउस में हुई थी। मैं उसे हमेशा अपने वर्तमान में देखता हूं। वर्तमान में मैंने चितु का के लिए मेरे संसार में घर बनाया है जहां वह नहीं रहता लेकिन मैं जब भी वहां जाता हूं उससे मुलाकात हो जाती है। जिस मुलाकात को मैं बुढ़ापे तक देखना चाहता हूं जहां हम साथ में थकें। 
मुझे लगता था वह किसी बड़े रियासत का मालिक है। क्योंकि गिरी परिवार के बहुत से लोग शक्तिनगर में देखने को मिलते थे। आज भी हैं।उसके बाबा के मूंछों ने मेरे इस भ्रम को और ज्यादा सघन किया था। लेकिन एक बार भटकते हुए मैं उसके घर की ओर पहुंचा जहां की स्थिति उसके देंह से पहचान पाना मुश्किल थी। गिरी परिवार किन्हीं रियासतों का मालिक नहीं अपने हीं घर में कई बार विस्थापित मजबूर आम भारतवासी था जिसने औद्योगिक विकास की जहरीली हवा को सबसे ज्यादा अपने भीतर ग्रहण किया था और सबसे अल्प उस विकास से लाभान्वित था। चितरंजन मेरा सबसे अच्छा दोस्त इसलिए था क्योंकि मेरे उम्र का होने का बावजूद उसकी समझ मुझसे ज्यादा थी। वो चंचल था लेकिन सधा हुआ। शरारती था लेकिन मौन की परिधि से परिचित। छोटा था लेकिन बड़ों के बीच अच्छी पैठ थी। पढ़ाई में ठीक-ठाक था लेकिन बुद्धि का प्रखर। उसने सारे कार्य सीमा में रहकर किए लेकिन प्यार कि उसने जीवन के वृत से बाहर कूदकर किया। बिल्कुल स्वतंत्र मन से। और अंतिम समय तक उससे करता रहा। हमारे अंतिम बात में उसके वयस्क होने के बाद का प्रथम प्रेम शामिल था। अपनी प्रेमिका को वह तरह-तरह के उपहार भेंट किया करता। 
डायरी
पेन
गुलाब का फूल
इकलएयर्स का काफी
पेंसिल बाक्स
और ना जाने क्या-क्या...
लेकिन प्रेमिका इस बात से सदैव अंजान रही। या अंजान रहने का नाटक किया? चितरंजन उसे नाटक कहता था। शायद यहीं कारण था कि एक वर्ष विद्यालय में आयोजित रक्षाबंधन के कार्यक्रम में प्रेमिका में हाथ में खुद के लिए राखी देख वह घबराया था और बांधे जाने पर उसके आंख के कोने में पानी जमा हो गया था। हिम्मत कर उसने राखी को कलाई से दूर किया और प्रेमिका के आंख से जलप्रपात फूट पड़ी। जिसके फूटते हीं चितरंजन पहाड़ों सा पिटा। उसके भीतर से प्रेम की मिट्टी को अनुशासन प्रमुख द्वारा निकालकर गमले में भरा गया और चितु को बंजर किया गया। अगली सुबह उस गमले में गेंदे के फूल का पौधा लगा था।
चितरंजन के साथ मैंने जीवन को बहुत करीब से देखा था। प्रेम में पड़े चितु को अनुशासन प्रमुख बंजर नहीं कर पाए क्योंकि उसने प्रेम करना सीखा नहीं था। प्रेम कहीं उसके आत्मा में बसा हुआ था‌। गमले में लगे फूल को देखकर हम दोनों ने साथ में एक फिल्म देखी थी। गुरुदत्त जी की कागज के फूल मुझे उस समय वह ज्यादा समझ नहीं आई लेकिन चितरंजन उस फिल्म को देखने के बाद अक्सर यह कहते सुना गया कि दुनिया माधरचोद हया राजू जान जाया इहै सच बाटे। 
मैंने कुछ दिन पहले कागज के फूल दोबारा देखी फिर समझ पाया कि उसकी सोच कितनी निविड़ थी। मैंने भी फिल्म पूरी करके वहीं बात दोहराई जो चितरंजन ने दोहराई थी। 
पहली गंदी अंग्रेजी फिल्म भी मैंने उसी के साथ देखी थी जिसमें और भी दोस्त शामिल थे। उसके पहले मैंने अंग्रेजी फिल्मों में टाइटेनिक, स्टूवर्ट लिटिल और स्पाइडर मैन देखी थी वो भी हिंदी भाषा में। विनय सेठ की व्यवस्था में हमनें झूंड में पहली बार नंगी अंग्रेजी फिल्म देखी। बादल, अरविंद, कार्तिकेय, अनूप,गौरव,महेश्वर, अभिजीत और भी दोस्त उस रहस्य को एक साथ समझ रहे थे जिससे विनय ने परिचय कराया था। वो सभी को समान अनुपात में समझ में आयी थी। फिर विनय ने सभी को वासना ने बारे में समझाया। वो हम सभी से इन मामलों में कहीं अधिक ज्ञानी था। अंग्रेजी मीडियम में पढ़ता था यह भी एक कारण हो सकता है। उसे छोड़ हम सभी हिंदी मीडियम से थे लेकिन उस फिल्म की अंग्रेजी सभी को समझ आई थी। सभी ने देंह में अजीब सी गुदगुदी महसूस की थी। सभी ने अपनी टांगों के बीच पहली बार कुछ अलग महसूस किया था। जो उस स्थिति का प्रथम था। मानों जैसे सभी अचानक से पहले से ज्यादा बड़े हो गए हों। बढ़ते समय में भागते हुए सभी बड़े होने लगे लेकिन हम सभी के बड़े होने में और चितु के बड़े होने में अंतर था। हम अपने लिए बड़े हो रहे थे और चितरंजन समाज के लिए। हमारे बड़े होने में घर की बातें थीं उसके बड़े होने में कस्बे की। हम नौकरी के लिए लड़ रहे थे वो जीवन के लिए लड़ रहा था। उस लड़ाई को वह अधूरा छोड़ बहुत दूर हमारे बीच बस गया।
जिसे ढूंढने के लिए गूगल नहीं करना पड़ता। फोन नहीं देखना होता। फिल्म कागज के फूल देखकर चितु की बात दोहरानी पड़ती है । गमले की कैद मिट्टी को आजाद करना पड़ता है। खुद के बचपन से बात करनी होती है। फिर उस बचपन का पहला चेहरा चितु होता है।

WWE

वैसे तो बहुत से चैनल घरों में प्रवेश कर गए थे। कुछ सीरियल के जहां टी.वी. एक किरदार बाल्टी भर-भर रोता था। फिर हर घर की माताएं उसपर चर्चा करती थीं और शाम को कालोनी की भीड़ पार्क में पहुंचती जहां कुमकुम के पति और अपर्णा के प्रेमी को पार्क में पलथीमार बैठकर दमभर गरियाया जाता था। तुलसी के पति मिहिर को प्रेम किया जाता। उन्हीं पर शाम के समय बच्चों के लिए सोनपरी
साकालाका बूम बूम
बिकराल घबराल
शरारत 
करिश्मा का करिश्मा जैसे धारावाहिक आया करते थे। जिसे देखने के लिए बच्चों को अपनी हर शरारत के साथ अभिभावकों के समझ बैठकर समझौता करना होता था। सभी धारावाहिक का संजू और फ्रूटी बनना चाहते थे लेकिन किसी के भी जीवन में नाहीं वो जादुई पेंसिल थी ना हीं अलतु अंकल और सोनपरी। सभी भूत से डरते थे लेकिन कभी कोई बिकराल उन्हें बचाने नहीं आया। इस दुनिया से अलग एक स्पोर्ट्स चैनल हुआ करता था टेन स्पोर्ट्स जो हमारी उम्र के सभी लड़कों को आकर्षित करता था। जहां शाम को WWE का चैंपियनशिप आया करता था RAW और SMAKEDOWN जिसमें दो पहलवान आपस में नंगे बदन मृत्यु के करीब पहुंचने तक लड़ा करते थे। 
JBL
HHH
ADIGARARO
REM MISTERIO
BADHIATA
KHANE
THE EDGE
BIG SHOW
JOHNSINA
THE ROCK
CATENGLE
जैसे और भी उनमें एक नाम था UNDERTAKER जिसके बारे में नरेंद्र ने पहली बार चर्चा करते हुए यह खबर दिया की अंडलटेकल दो बाल मल के जिंदा हुआ है। उसके बाद से सभी दोस्त अंडरटेकर का खेल देखते। उसका मरना देखते। उसका जीना देखते उससे डरते फिर उसकी बातें आपस में किया करते। फिर एक दिन हमनें देखा की एक चौड़ी छाती, लंबे बाल वाला खिलाड़ी जय मां काली का उद्घोष कर अंडरटेकर को खून बकने तक मार रहा है। लेकिन उस दिन अंडरटेकर मरा नहीं हारा था। अगले दिन अंडरटेकर ने उस आदमी को खून निकलने तक मारा जिसका नाम द ग्रेट खली था। बड़े होने पर जानकारी मिला की वो सारा कुछ सुनियोजित हुआ करता था। सारा कुछ पहले से तय हुआ करता था। लेकिन इस बार यह खबर नरेंद्र ने नहीं न्यूज़ चैनल द्वारा पता चली। शायद नरेंद्र को भी अब जानकारी होगी कि अंडरटेकर कभी मरा हीं नहीं। वो सब झूठ था।

थाला कौन हलामी जूता कात लहा है 

आज के समय में मैं जूता पहनने के लिए खरीदता हूं। उसके आते हीं उसे तुरंत अपने पैरों से चिपका लेता हूं और कुछ कदम चलता हूं। स्कूल के दिनों में जूते खरीदने के दो उद्देश्य हुआ करते थे। पहला उसे बचाने का और दूसरा उसे बचाते हुए पहनने का। उसे बचाने का भार उसे पहनने से अधिक हुआ करता था। गुरमीत सिंह हमारी कक्षा में हमारे साथ पढ़ा करता था। उसके पिताजी की जूते की सबसे बड़ी दुकान थी। उस दुकान में कस्बे के सबसे लंबे आदमी के जूते भी आसानी से मिल जाते थे। लगभग पूरा विद्यालय सरदार जी के दुकान से जूते खरीदता था। स्वदेश कंपनी के काले और सफेद जूते। काले गुरुवार को छोड़ हर दिन पहनने होते थे और सफेद गुरूवार को। नए दिखते जूते को लोगों की नजर लग जाती थी। किसकी? इस सवाल का जबाब ना हीं किसी प्रश्न पत्र में पूछा गया ना हीं किसी ने इसका ज़बाब देना उचित समझा। हमें चेतावनी अवश्य दी गई की नए जूते पहनकर स्कूल में नहीं जाने हैं। क्यों? का जबाब यह था कि नए जूते शरारती बच्चों द्वारा काट दिए जाते हैं। अफवाह यह भी उड़ी की गुरमीत उन जूतों को काट देता है ताकि उसके दुकान की बिक्री बढ़ती रहे। ऐसी अफवाह मीनू साइकिल स्टोर को लेकर भी उठी थी जब कस्बे में साइकिल चोरी में तेजी आई थी। सभी कहते थे वहीं खुद साइकिल चोरी करता है उसके पास सभी ताले की चाभियों हैं। चोरी करके वापस वह उन्हें नए पेंट करके बेचता है। साइकिल का मेरी नज़र में कोई साक्ष्य नहीं लेकिन जूते का ठीक-ठाक उदाहरण नरेंद्र था। उसके नए जूते किसी ने ब्लेड से काट दिए थे। नरेंद्र ने क्रोध की आवाज में शुद्ध गालियों का प्रयोग किया था थाला कौन हलामी जूता कात लहा है बहिनतोद? उसके बाद कक्षा का हर बच्चा नए जूते पहनने से डरता था। लेकिन चितु ने एक रोज विद्यालय में प्रवेश करने से पहले अपने नए जूते को मिट्टी से नहला दिया और निश्चिंत होकर बैठा रहा। उसके जूते किसी ने नहीं काटे। उस दिन से सभी नए लेकिन गंदे जूते पहनकर स्कूल जाना शुरू किया। आधी उम्र भविष्य में झोंक चुके अभिभावकों को चितरंजन ने कुछ नया सिखाया था। इस घटना के बाद गुरमीत हमारा और भी सच्चा दोस्त बन गया।



10 comments:

Ajay said...

बहुत अच्छा लगा

Unknown said...

Ese padhkr purane dino me chla gya tha me kuch time ke liye kas wo pal fir se jine ko mil paye

Unknown said...

Purane din yaad aa gye kas ese fir se ji pata

Unknown said...

Ise padh kar bachapan ki Sher ho gyi

Unknown said...

Bachpan ka pyar ,Masti bhare din ,wo
Befikar ki zindagi atpate sawaal sab kuch hai is blog me....puri Sher ho gyi bachpan ki

Unknown said...

Bachpan ka pyar ,Masti bhare din ,wo
Befikar ki zindagi atpate sawaal sab kuch hai is blog me....puri Sher ho gyi bachpan ki

Piyush Chaturvedi said...

धन्यवाद

Anonymous said...

Mere baare m b likh deta kuch, yaad kar calss 4th or 5th tera dost mai hi hua karta tha or jab tujhe ki pareshan karta tha tab mai saaath m khada rahata tha . Ye padhne k baad b agar na samjha aaye ki mai koun hu to ise aise hi dafan kar dena.

Piyush Chaturvedi said...

तु बादल हों सकता है। अरविंद हो सकता है या अनूप। कार्तिकेय भी।
लेकिन अपना नाम तो लिख देता भाई। ऐसे मरने मारने की बात कर गया। बिना अपने निशान छोड़े।

Piyush Chaturvedi said...

और सभी को भी अपने निशान छोड़ने चाहिए थे।
क्योंकि किसी का भी नाम यहां लिखा हुआ नहीं आ रहा। लेकिन सभी का धन्यवाद।

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