सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, May 3, 2023

क्या आपने मेरे दुख को चखा है?

संसार को जीया जा सकता है? 
या उसे देखा जा सकता है?
मैंने लोगों को बकबकाते सुना है मैंने जीवन जिया है। कुछ अपनी दंभ को छोटा रखते हुए अपने बड़े दर्शन का परिचय देते हैं और कहते हैं उसने जीवन जिया है। उसने दुनिया देखी है। 
मैं हमेशा इस मामले में खुद को हल्का महसूस किया है। मैंने दुनिया उतनी हीं देखी है जितना मैं चल पाया हूं। मेरा सारा देखा हुआ चलते हुए मेरे साथ चलता है फिर जैसे हीं मैं ठहर जाता हूं। मैं उसे जीने लगता हूं। मेरे देखी हुई दुनिया को अपने ठहराव में मैं जीवन जैसा पाता हूं। जैसे मेरा चलना मेरा दुनिया देखना है और ठहरना जीवन जीना। इन दोनों की बीच मेरा संसार अपनी सांसें ले रहा होता है। जब कभी मैं थक जाता हूं मेरा संसार भी थक जाता है। मेरे उदास होने पर संसार हंसता है। और मेरे हर्षित होते हीं वह मुझसे उत्तर मांगता है। जीवन को गालियां देता है फिर ठहरा हुआ जीवन दुनिया के दरवाजे को तेजी से खटखटाता है और उसके खुलते हीं दुनिया घूमने लगती है। 
मेरा देखा हुआ
जीया हुआ 
भोगा हुआ संसार मेरे दुनिया और जीवन के बीच भटकता रहता है। अपनी यात्रा दोहराता रहता है। मानों जैसे उसके शांत होते हीं दुनिया अंधी हो जाएगी और जीवन मौन। शायद यहीं कारण है कि मेरा डरा हुआ संसार दुनिया के घाव को कुरेदता है जिससे जीवन की सड़ांध पीब निकलती है। और उस मवाद से उपजे दुख को देंह पर ढ़ोता हुआ मैं रेंगता हूं। ताकि मैं कह सकूं देखो मैंने जीवन जिया है। 
मैं कोई अकेला नहीं जो अपने जीवन के मवाद को ढो़ रहा हूं। सभी उसे अपने देंह पर पपड़ियों सा लपेटे हुए चल रहे हैं। जिसे समय-समय पर दुख की कहानी के रूप में किसी के सामने झाड़ दिया जाता है। धीरे-धीरे यह दुख हमारे संघर्ष की कहानी बन जाती है। और संघर्ष हर सफल और असफल मनुष्य ने बराबर किया होता है। कुछ का संघर्ष सफलता के दरवाजे से भीतर प्रवेश कर बड़े मकान में कैद हो जाता है और कुछ अपने संघर्ष की खिड़की से उन मकानों को ताकते हैं जो उनके सपने में आता था। जो अपनी पीब की पपड़ी किसी के सामने नहीं झाड़ते वो किताब की दुकानें खोल लेते हैं। अपनी कहानी को किताबों में ढूंढते हैं। उस लेखक को बार-बार पढ़कर। पन्नों को कमजोर करके। उसके हिस्सों को रेखांकित कर उसे बताते हैं कि यह मेरी कहानी है। आपने इसे अपने संसार में मेरे संसार को जीया है जो मैं पढ़ रहा हूं। क्या कुछ लोग एक जैसी जिंदगी जी सकते हैं? क्या कुछ लोगों की कहानी एक जैसी हो सकती है? क्या आपने मेरे दुख को चखा है? मेरे सारे हल्के और खाली सवालों के ज़बाब में मैं आपको पढ़कर अपने दुख का फोड़ा फोड़ रहा हूं। जो इसी किताब में आपके लिखे शब्दों में हमेशा छुपा रहेगा। 
कानपुर स्टेशन पर एक बूढ़े बाबा दुकान पर बैठे किताब हाथ में लिए अपने घाव फोड़ रहे थे। उससे निकलती पीब का अक्स मैं उनके चश्मे में देख पा रहा था। जो उनकी आंखों को थका रही थी। मैंने उनसे विनोद कुमार शुक्ल की किताबों की इच्छा जताई तो उन्होंने कहा शुक्ल जी की केवल नौकर की कमीज है। मैंने कहा मैंने पढ़ लिया है। फिर उन्होंने मेरी पसंद को अपने घाव के आसपास कहीं खुजली करता हुआ महसूस किया। उन्होंने इस दौरान अपनी किताबें बंद कर दी थी। कहीं वह मेरे पसंद को खरोच ना बैठें और मवाद ना फूट पड़े उससे पहले वो मेरे लिए किताबें ढूंढने लगे। 
मनोहर श्याम जोशी
धर्मवीर भारती
शिवानी गौर
मोहन राकेश
तरूण भटनागर 
ज्ञान चतुर्वेदी
निर्मल वर्मा जैसे एकांत और उत्साहित लेखकों के रैक पर मुझे लेकर आए। ठीक उसी समय मैंने अपनी आंखों के नीचे हल्की खुजली महसूस की जो धीरे-धीरे पूरे देंह पर फ़ैल रही थी। और बाबा अब बिल्कुल शांत मुझे देख रहे थे। मानों मुझसे कह रहे हों आपका घाव इन किताबों में भी बैठा है। अपने देंह के घाव इन किताबों तक लेकर आइए। घाव को भी अपने साथी चाहिए होते हैं। वो मित्र यहां है। मैं उन्हें अपनी पथराई और सजल आंखों से देखता रहा। उन्होंने मुझे ढ़ेर सारी किताबें प्रस्तावित की‌। 
क्याप
कसप
पिली छतरी वाली लड़की
वेदावा
गुनाहों का देवता
एक चिथडा़ सुख
अंतिम अरण्य
नदी के द्विप 
रश्मिरथी 
अंधा युग के साथ और भी कई। जिनमें से कुछ पहले से पढ़ी जा चुकी थी। मैंने उनकी कही से कुछ सुनी हुई किताबें चुन ली। चुने हुए में से निर्मल वर्मा जी की एक पुस्तक "एक चिथडा़ सुख" मैं कानपुर से वाराणसी के यात्रा के दौरान पढ़ने लगा। जब मैं एक चिथडा़ सुख पढ़ते हुए अपने दुख को महसूस कर रहा था तभी मैंने अपने पैर की उंगलियों पर थोड़ा दबाव महसूस किया। एक छोटी सी लड़की मेरे पैर पर अपने पैर से कूद रही थी। मेरी नज़र उसपर पड़ते हीं वो थोड़ा ठिठकी। उस ठिठक में मैं मुस्कुरा दिया। फिर वो बार-बार मेरे पैर पर कूद रही थी मानों वह अपने बचपन के वर्तमान पर खड़ी मेरे अतीत के बचपन पर कूद रही हो। मेरे भीतर दबे बचपन को कुरेद रही हो। जो कह रही हो तुम्हारे उम्र में खुशियां नहीं हैं। मात्र उनका समझौता है। कुछ देर बाद जब समझौता शांत हुआ मैं वापस किताब में वापस अपने घाव ढूंढ रहा था। सबसे नजदीकी घाव जो हृदय के सतही मांस के आसपास कहीं पनपी रही हो। बनारस में लगभग रात के १२ बजे मैं स्टेशन के शोर से शहर की भीड़ में पहुंचा। स्टेशन पर हजारों की भीड़ में लोग अपने घर को बैग में कैद कर पीठ पर टांगे आगे बढ़ रहे थे। मानों संसार का हर व्यक्ति वर्ष में एक दिन हीं सही लेकिन लंबे सफर पर अवश्य होता है। जहां वह भटकता हुआ अपनी जिम्मेदारियों से उपजी टीस से सबसे अधिक मजबूती से लड़ता है। उस भीड़ में से कुछ ने अपने घर को सिरहाने रख छिछली नींद ढूंढने का प्रयोग भी किया। जो वो अपने असली घर पर भी करते रहे होंगे। जहां चैन से सोने की थकान थी और यहां भटकने का हल्का सुकून। ठीक उसी वक्त मैं अपनी आधी नींद में सोया हुआ कानपुर के कमरे के बोझ को पीठ कर उठाए घर के लिए बस ढूंढ रहा था। मेरे घर जाने के बाद के सुख और दुख के ऊहापोह के मध्य सड़कों पर रेंग रहा था। उस घर की परिकल्पना कर रहा था जहां मां बीते दिनों की अपेक्षा और बूढ़ी हो गई होगी। लकीरें चेहरे की ओर भागती हुई भविष्य को स्वीकार कर रही होंगी। अथर्व की चुहल ने उनके दुख को थोड़ा और मन के निचले हिस्से पर ढकेल दिया होगा। भैया थोड़े थके हुए दिखाई देंगे। भाभी की तरुणाई को जिम्मेदारी के दीमक ने थोड़ा और जरजर किया होगा।

कुछ और भी पेड़ ठूंठ हो गए होंगे।  चिड़िया बरामदे में घोंसला लगा रही होगी। कुछ आधुनिक चेतना में डूबे,सजे व्यक्ति मुझे गांव का विकास दिखाते हुए कहेेंगे देखो कितना विकास हो गया है पहले यहां कुछ भी नहीं था। केवल जंगल था। हम लंबी दूरी पैदल तय किया करते थे। रास्ते में एक हीं कुआं हुआ करता था। प्यास से झटपटाते हुए हमनें पत्थर को मसलकर पगडंडी का आविष्कार किया था। मैं उनसे कहूंगा नहीं पहले यहां जीवन था। भविष्य ने जीवन की हत्या कर दी है। हमनें जीवन से घर को लूटकर अपने मकान बना दिए हैं। जिसे हम जीवन मान बैठे हैं वह ठीक-ठीक मृत्यु के करीब भटकना है।मकान के आंगन में कैद जल स्त्रोत सूख रहे हैं। हमारी पिपासा ने धरती को बांझ बना दिया है। फसल ज्यादा होकर भी हमारी भूख हल्की हो गई है।    रास्तों पर उड़ती धूल से हमारी सांसें हमसे दूर उड़ रही है। हम उसके पीछे सूजी हुई छाती लिए भाग रहे हैं। 
जैसा सारा भविष्य मेरी चेतना को जागृत कर रहा था। मानों मैं वर्तमान में भविष्य को जी रहा हूं। मेरी कल्पना इतनी स्थिर और ईमानदार रही है कि मैं अपने वर्तमान में जीये हुए भविष्य को वास्तविक भविष्य जो उस पल वर्तमान हो जाता है उसके आस पास संतुलित सा पाता हूं। गांव में पहुंचकर मेरी पहली नजर घर के बरामदे में लग रहे घोंसले पर जा टिकी जहां चिड़िया अपना घर बना रही थी और छिपकली पूवर्जों की तस्वीर पर रेंग रही थी। मां ने कहा देख तु आज अइले और चिड़िया घोंसला लगावे लगल।

मैंने उत्साह की दरवाजे से बाहर कूदकर पंखा बंद किया और छिपकली को तस्वीर से दूर भगाया। गांव में अपनों से मुलाकात हुई। ऐसा सारा कुछ मेरे साथ पहली बार नहीं घट रहा था। मैं ये सारा कुछ पहले से दोहराता आया हूं। इसी क्रम में  जीता आया हूं लेकिन इस बार मैं उनसे कुछ पूछने से डर रहा था। बूढ़े लोगों से मिलकर मैं उनके कुशल क्षेम पूछने से पहले व्याकुलता से भर जाता। मानों उसके ज़बाब के लिए मैं तैयार नहीं हूं। उनके द्वारा जीये हुए दुख की संजीवनी मेरे पास नहीं है। अपने सघन अवसन्न को ढ़ोता हुआ मैं उनके ढ़हने को नहीं संभाल पाऊंगा। मेरे बहाने बहुत हीं स्वार्थी हैं। मेरा लालच आपके दुख से भी बड़ा है। मैं यहां भटकता हुआ कुछ ढूंढ रहा हूं जिसके बारे में मुझे ठीक-ठीक कुछ भी नहीं पता। मैं शांत सा उनके समक्ष खड़ा हो जाता। उनके कुछ पूछे जाने पर भी शब्द मेरे मुंह से बाहर नहीं कूद रहे थे। उनके शब्द जो मेरे कान के आसपास भटक रहे थे वो मानों अतीत के झरोखे में घुसकर मेरे सुख को छील रहे थे। जिसके ज़बाब में मैं अपने पैर खुजा रहा था जहां वो लड़की कूद रही थी अपने बचपन को जिंदा लिए हुए ठीक उसी के आसपास। मैं बूढ़े लोगों से मात्र इतना कहना चाहता था कि आपने अपनी जिंदगी जी ली है। आधी उम्र वाले लोगों से मिलकर मुझे कहना था कि अभी आपको जीना बाक़ी है। लेकिन मैं सुख को ढूंढ़ना हुआ अथर्व के पास पहुंचा और उसके कान में कहा तुम जिंदगी जी रहे हैं। फिर मेरी आंखें द्वारिका को ढूंढने लगीं। कुछ वर्ष पहले मैंने ऐसा हीं कुछ द्वारिका से भी कहा था। मुझे उससे जानना था कि क्या अब वो जिंदगी जी रहा है? उससे मिलते हीं मैंने उससे तीसरा सवाल यहीं पूछा। ज़बाब में उसने कहा का पता भैया? मैं उसके ज़बाब से खुश था। अभी उसमें जीवन बाकी है। वो अब भी जीवन जी रहा है। अपने चेहरे पर उभरी एक धुंधली सी खुशी मैंने उसके आंख में देखी थी। उसके बाद मैं सुख और दुख के मंथन में रगड़ खाता रहा। 
क्या प्रेम, सुख है और नफ़रत, दुख? 
कितना छिछला और कमजोर जीया हुआ हमारे साथ चल रहा है। मौन को रौंदता हुआ। जहां प्रेम के पल में हम सुख बराबर बांटना चाहते हैं प्रेम अधिक मिले तो भी कोई शिकायत नहीं। और नफ़रत के पल में नफ़रत का अधिकार स्वयं चाहते हैं। इस लालच के साथ की सामने तड़पता व्यक्ति मुझसे प्रेम करें।
क्यों? 
क्योंकि किसी क्षण दुख के आंसूओं को उसने सुख की नदी दिखाई थी। क्या दुख अपने झरने को लेकर उस नदी में उसके साथ नहीं बहा था? उसकी काई को ढ़ोता हुआ। अतीत के मलीनता को पीता हुआ उसके सूखे को सींचता हुआ। 
नफ़रत को जन्म किसी एक ने दिया था? 
क्या मौन रहकर नफरत को जन्म दिया जा सकता है? 
नहीं। मौन रहकर प्रेम को जीया जा सकता है।



"दुख क्या है?"

जंगल का समाप्त होना?
नदी का सूख जाना? 
नदी में बाढ़ का आना? 
नदी में नाव का ना होना? 
पेड़ों का ठूंठ होना?
बेल के पेड़ का कट जाना या उसकी जड़ों का स्याही वाले कमरे के भीतर तक प्रवेश करना?
शिशु का आश्चर्य धूमिल होना? 
चिड़िया का चुप रहना? 
द्वारिका का बड़ा होना?
मां का रोना? 
हाथ की रेखाओं का चेहरे पर फैलना?
पुर्वजों की तस्वीर पर छिपकली का रेंगना?


"सुख क्या है?"

गांव में सड़कों का बन जाना?
पानी का घर के आंगन में पहुंचना?
गांव में तालाब बनना?
गमले में पौधों का हरा होना?
पेड़ में लगे फल को देखना?
बच्चों को अनुशासित रखना?
चिड़िया का घोंसला बनाना?
बच्चों का हंसना?
शिशु का जन्म लेना?
दीवार पर अपनी सुघड़ तस्वीर का चिपकना?

इन सभी प्रश्नों के उधेड़बुन के ठीक बीच मैं अपने ज़बाब तय कर रहा था। 
मेरे लिए दुख एक ऐसी त्रासदी है जो हर क्षण हमारे साथ होती है। सुख कुछ पल के लिए उसे स्पर्श करता है यह सूचित करने के लिए की जीवन सिर्फ तुम्हारा नहीं मैं हूं तुम्हारे आस-पास भटकता हुआ। बादलों सा, हल्की बारिश से उदास नहीं होना। ना हीं अधिक से उल्लासित। सूखा और बाढ़ दोनों तुम्हें जीना है। जैसे नींद में थके हुए सपने सुबह हमें पूरा जगा देते हैं। बिल्कुल खाली लकीरों के साथ। जैसे अननू मिस्त्री की हाथ बिल्कुल सपाट थे। बिना लकीरों के। मानों उनकी नींद बिल्कुल खाली हो। एकांत, बिना सपनों के। या सीमेंट की गर्मी उनके लकीरों को खा गई थी मैं इसके ज़बाब से अबतक अंजान हूं। मेरे मकान को उन्होंने ठीक-ठीक घर बनाया था। मकान जो धन के अभाव में खड़ा किया गया था उसे अननू मिस्त्री ने घर जैसा मजबूत बनाया था। जिसमें मकान को घर बनाने वालों की इच्छाओं का ध्यान रखा गया था। 
बीते दिनों उन्हें बूढ़ा हुआ देखकर मुझे मेरा घर बूढ़ा नजर आने लगा। उनके हाथ आब भी वैसे हीं थे सपाट मानों अभी उनपर कोई लकीर खींच दी जाए तो उनके सपने जिंदा हो जाएंगे। उनकी नींद मीठे सपने देखते पूरी हो जाएगी। लेकिन मेरा ऐसा सोचना मात्र सुख को गुदगुदी करना होगा उसे जीवित करना नहीं। बिल्कुल दुख के आसपास भटकने जैसा। जहां सिर्फ भटका जा सकता है उससे बात नहीं की जा सकती। किसी सूखी हुई नदी को देखकर उसके उदासी को बाल्टी भर पानी से समाप्त करने के बंजर सपने देखने जैसा। जहां सारा प्राप्त ऊसर है। अननू मिस्त्री के सपने जैसा जिस सपने में मेरा घर नहीं है‌। मेरा दुख भी नहीं। 


सुख मेरे लिए बाबा का भोजन को चखना है। 
फ़रवरी माह में गांव में यज्ञ का आयोजन था। गिरीश बाबा रायबरेली से घर आए हुए थे। उनके अतीत के कर्म इतने मार्मिक थे कि सभी उनसे मिलना चाहते थे। सभी बुजुर्गों के पास उनसे जुड़ी हुई मिठी यादें हैं। उनका नाम सुनते हीं कुछ पल की चुप्पी में सभी उनके अतीत से जुड़ जाते हैं। वो मनोरंजन के क्षेत्र में नहीं हैं ना हीं राजनीति के। उनकी इस प्रकार की लोकप्रियता को देखकर मैं खुश हो जाता था। मैं पूरे दिन मुस्कुराता रहता था। गांव के एक व्यक्ति ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया लेकिन अपनी बढ़ती उम्र और थकती अवस्था के कारण वो नहीं जा सके। अगली सुबह उस व्यक्ति ने अपने घर से भोजन से सजी हुई थाली उन्हें भेंट की। बाबा ने कहा कि अरे! भाई हम त भोजन कर लेली। 
कोई बात नहीं दादा बस थोड़ा सा चख ल। 
बाबा ने लगभग एक चुटकी से थोड़ा ज्यादा चावल अपने मुंह में रखा और सामने खड़ा व्यक्ति उनके पैरों पर निढाल हो गया। मानों उन्होंने उस व्यक्ति के जीवन को चखा हो। उसका, उनके प्रति सम्मान को स्थान दिया हो। बाबा ने कांपने हाथों से उन्हें आशीर्वाद दिया और भीगी हुई आंख से दीवार को देखने लगे। मैं खुद को उनके आस-पास रखने लगा। मानों उनके साथ से मेरे घाव भर रहे हों। जैसे दीमक लगे पेड़ की जड़ों तक ताजा पानी पहुंच रहा हो। स्याही वाले कमरे के रंग और गहरे होते जा रहे थे।
मैं अब अंतिम अरण्य पढ़ रहा हूं। जो सबसे पहले मुझे बनारस में एक बूढ़ी महिला ने पढ़ने के लिए सुझाया था। उनकी झूर्रियों में मुझे अपना दुख फंसा हुआ दिख रहा था। थकी हुई आंखें थीं जिन्हें पढ़ी हुई कहानियों ने थका दिया था। जिन्हें मैं यूनिवर्सल बुक हाउस में किताब ढूंढता हुआ छोड़ आया था। 
क्या दूबारा कभी उनसे मुलाकात होगी? 
या किताब पढ़ते-पढ़ते उनके घाव भर जाएंगे? और वो किताब पढ़ना बंद कर देंगी?
क्या मैं उनकी खुली आंखों में वो सारी कहानियां पढ़ पाऊंगा जो उन्होंने कभी पढ़ी थी? 
या सारा कुछ वैसा हीं मुझसे लड़ता रहेगा? 
मैं ऐसे हीं यायावर सा अपने घाव फोड़ता रहूंगा। 
एक अंतिम मौन तक।

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