लेकिन लिखे हुए में ईमानदार रहना चाहता हूं। ठीक वैसा जैसा मैं हूं।
जैसा मैंने जीया है।
जैसा मेरा दर्शन है।
जैसा मैं ठीक-ठीक बोलना चाहता हूं। लेकिन नहीं बोल पाता हूं।
मेरे ना बोल पाने की टीस मेरे लिखे हुए में चलती रहेगी।
उस रेंगतीं टीस के साथ मेरे प्रति प्यार और नफ़रत को जीते लोग किसी पूर्ण विराम पर मेरे साथ अतीत की गहरी स्वांस लेंगे जहां उन्होंने जीवन को मेरे साथ चखा था?
या किसी प्रश्न पर ठिठककर मुझे ज़बाब देंगे? मुझसे संवाद करेंगे? अपनी
दक्षता
सफलता
और दंभ को शून्य मान।
मैं इस गुणा भाग से दूर शून्य को लिख दूंगा उस शून्य को जो मैं बोल नहीं सकता। उस शून्य को जिसे मैं रिश्तों के दशमलव के पीछे नहीं लगाना चाहता।
उस निश्चिंतता में उड़ता हुआ कि मुझे उसके ज़बाब लिखकर भेजे जाएंगे या बोलकर। जिसमें कोई संख्या दशमलव के आगे जोड़ी जाएगी या उसे काटकर शून्य ही रखा जाएगा। जो अतीत में कहीं दशमलव से आगे थी।
या उनके उत्तर कभी नहीं मिलेंगे। शायद वो भटकते रहें एक दूसरे के कानों में कूदते हुए। जो मेरे कानों तक पहुंचने में थक चुके होंगे। एक जर्जर सी आवाज लिए जो मेरे कानों के सतह पर आते हीं बूढ़ी दीवार सा ढ़ह जाएंगे।
क्या वो ढ़हा हुआ शून्य होगा? या मैं एक हारे हुए अतीत के साथ 10 गिन रहा हूंगा?
10 वर्ष
10 लोग
10 शिकायतें
10 हीला
10 उपालंभ
या दस रूपए का नोट जो किसी उम्र में मेरे हाथ में चिपकी रहती थी।
वो ढ़हा हुए उत्तर मेरे जीवन का संतोष होगा। जिसे मैं अपने विश्वास से कहीं आगे किसी पन्ने पर फैला दूंगा। बिल्कुल उबड़-खाबड़ सा जीवन। जिसके पहाड़ बिल्कुल शांत और समतल होंगे। जिसकी नदी में एक लोटा पानी होगा। लोटा वहीं दस रूपए वाला जिससे मेरा मोह छूट चुका होगा।
जिस फैले हुए का विस्तार इतना वृहद होगा कि कोई भी हिसाब लगाना असंभव है।
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