सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, April 9, 2023

मैं निर्दोष नहीं हूं

मेरा अतीत निर्दोष नहीं है। क्योंकि मैं निर्दोष नहीं हूं। मैंने जब भी अतीत का दौरा किया है तो अपनी गलतियों को वहां डरा हुआ उपस्थित पाया है। उन गलतियों का कोई साथी नहीं। जिन दोस्तों ने मेरे साथ गलतियां की थी उनकी गलतियां भी वहां नजर नहीं आती। शायद यहीं प्रागैतिहासिक युग का सच है जहां गलती में हम अकेले होते हैं। और सही में वो सभी शामिल होते हैं जो हो सकते हैं। वर्तमान में भी मेरे मित्र हैं। गलतियों में मेरे मित्र हैं या नहीं इसका ठीक-ठीक निर्णय मैं नहीं ले सकता। मेरे लिए कोई भी फैसला करना किसी नाराज व्यक्ति से संवाद करने जैसा प्रतीत होता है। जहां मैं चुप रहना पसंद करता हूं। सुनना पसंद करता हूं। मैं उस डर से संवाद करना चाहता हूं। उसे कहना चाहता हूं यहां हर कोई दोषी था। सामने रेंगते सपने। दूर दौड़ती भीड़ सभी अपने झूठ को लिए दूर भागे थे। मैं भी भागा था‌ आगे भी भागता रहूंगा। सभी भागते हैं सभी अपने झूठ को बीते दिनों के कमरे में बंद कर आने वाले दिनों की ओर भाग रहे हैं। यह भाग दौड़ हमारी मृत्यु तक चलती रहेगी। जब हमारी देंह पर मृत्यु तैरती हुई नजर आएगी तो हम सभी ठहर जाएंगे। लेकिन तुम्हें अतीत में ऐसे डरकर स्वयं के वर्तमान को कष्ट देने की जरूरत नहीं है। मैं अक्सर सोचता हूं कि वर्तमान की पीड़ा को अतीत के डर से संवाद करने को कहूं। कहता भी हूं लेकिन वर्तमान की पीड़ा का सत्य मुझे डरा देता है। वह डर मुझे मेरे अतीत के डर से भी ज्यादा डरा हुआ मालूम पड़ता है। क्या यह उन दिनों में की गई मेरी गलतियों की हीं पीड़ा है जो उस वक्त भीतर कहीं दबा हुआ था? जो अब तक गीला हुआ मेरे देंह से चिपका रहा? क्या वो डरी हुई गलतियां अतीत के धूप में सूखकर हीं वहां छूट गई जो मुझसे डरे हुए मिलते हैं? इन्हीं प्रश्नों के साथ चलता हुआ मैं,वर्तमान की गलतियों की पपड़ी कब छूटेगी? के ज़बाब में घटने वाले अतीत को जी रहा हूं। जिसे मेरे साथ वाले मेरा वर्तमान कहते हैं। अच्छे दिनों में मुझे लगता है कि सिर्फ मैं डर रहा हूं। जिससे मेरा वर्तमान कांप रहा है। लेकिन मेरे डर का डरना मैंने अतीत के दरवाजे पर भटकते हुए महसूस किया है। मैं अक्सर इस भय के साथ उस दरवाजे को नहीं खटखटाता हूं कि कोई बड़ी ग़लती उस दरवाजे को खोलकर मुझसे संवाद ना कर बैठे। मेरे पीड़ा से संवाद का दुख मैं सहन कर सकता हूं लेकिन साक्षात दर्शन मेरे लिए संभव नहीं। संभव मेरे लिए यह भी नहीं कि मैं लिखूं लेकिन बोलने की क्षमता को मेरी गलतियों ने कैद कर लिया है और कलम में स्याही अभी उतनी बची है जितनी अतीत के झरोखे को संभाले स्याही वाले कमरे में स्याही।



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