बचपन में पढ़े हुए का दर्शन भी उसी उम्र की परिधि में होता है। बच्चे अपने अभिभावक से वात्सल्य का नशा प्राप्त करते हैं। वह तब तक इसके आदि रहते हैं जब तक उन्हें समृद्धि का किनारा नजर नहीं आता। किनारा नजर आते हीं वो हिंसा,अवसाद और लालच का चप्पू तेज-तेज चलाने लगा जाते हैं। वह चप्पू उन्हें संपन्नता के किनारे तक नहीं लाती लेकिन अहंकार के रास्ते पर निस्संग छोड़ देती है।
सामाजिक विद्वेष से अनुभवहीन बालक त्यौहार की नजर से प्रेम का नशा किया हुआ, संस्कार का पालन करते हुए रंग खेलता है। नए कपड़े से नई मिठाई तक में उस दिन को जीता हुआ आगे बढ़ता है। त्यौहार के दिन नशा करना आवश्यक होता है यह बात किसी किताब में नहीं लिखी गई है। अबोध बच्चे हीं किताब में लिखी बातों का अक्षरशः पालन करते हैं। बड़ों की किताब किसने लिखी है? इस बात से मैं अंजान हूं। शायद किसी ने कही होगी। क्योंकि कहे का असर लिखे से ज्यादा होता है। कहना सबसे सरल और अप्रमाणित होता है। बोली गई बातें स्वत: प्रमाणित होती है।
इसी प्रमाणिकता को सिद्ध करते ठंडई पीने वाले इतने ठंडे हैं कि वो भांग पीकर भंगडई करने वाले लोगों से अंजान हैं। शरीर पर कीचड़ मला जा रहा है या मोबील कुछ भेद नहीं। कुछ हैं जो बंद कमरे में ठर्रा टिका रहे हैं। बाहर होली की हुड़दंग है या दिवाली की रोशनी इस ऊहापोह से इतर मदिरा में पावन डूबकी ले रहे हैं। इन सभी संचारी भाव से विभक्त गांजा प्रेमी आंखों में लालिमा लिए अपनी अलग होली मना रहे हैं।
काशी और वृंदावन के बीच एक शहर है अलीगढ़ वहां मस्जिद तिरपाल से ढके जा रहे हैं। ढकने वालों ने कौन से विशेष प्रकार का नशा किया है यह शोध का विषय है। कारण यह है कि मस्जिद के दीवारों पर रंग की बूंदें भी ना चढ़ जाए। और एकता,अखंडता, संप्रभुता का भाषण देने वाले और न्यूज़ चैनल पर बैठकर दार्शनिक सा ज्ञान बांटने वाले सदैव धर्मनिरपेक्षता का नशा करने वालों ने आज मौन का नशा किया है। सभी चुप हैं। अब उन्हें एकता से डर लगने लगा है। अवार्ड वापसी वाले ज्यादा कुछ नहीं बोल रहे बस पानी के फिजूल खर्ची का दबे जुबान में ज्ञान दे रहे हैं। मेरे कई मुस्लिम दोस्त हैं। इरफान और हकीम के साथ मैंने हॉस्टल में सर्ट फाड़़ होली खेली थी। शायद हमनें दोस्ती का नशा किया था इस कारण हमारे धर्म को ठेस नहीं पहुंची थी। हमनें एक दूसरे के पूरे देंह को रंग दिया था।मंदिर, मस्जिद,भगवा, हरा सारा कुछ हमारे देंह पर अतरंगी सा चिपका हुआ था। ऐसा हमनें अपने चश्मे से देखा था। किसी मानवशास्त्री, धर्म रक्षक की दृष्टि से देखते तो शायद इन विषयों पर बहस कर रहे होते। उस दिन भी देश धर्मनिरपेक्ष था। आज भी है लेकिन उसका नशा करने वाले लोगों के लिए देश एक पिचकारी है जिसमें वो अपने पसंदीदा रंग भरते हैं और देश की जनता को रंग भागते हैं। कुछ दिन छिपे रहते हैं फिर अचानक से बेशर्म सा बेशर्म रंग लिए बकबकाते नजर आते हैं।
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