बीतते समय के साथ मैंने बाबा में कुछ खास परिवर्तन नहीं पाया। कुछ उनके कलम और सामने के बाल जो सफेद के साथ हल्के काले हुआ करते थे वो पूरी तरह अपना अस्तित्व खो बैठे हैं। और सफेद के आगे जाना अब उनके बस में नहीं। पर कुछ दिन पहले मिलने पर मैंने पाया कि सेवा करते वक्त जो लकीरें उनकी हाथों में मैंने देखा था वो वहां धुंधले पड़ते जा रहें हैं। और उन्होंने अपना स्थान बदल लिया है। उन लकीरों को मैंने उनके चेहरे के आस-पास कमजोर होती मांसपेशियों में देखा। होंठों पर मुस्कराहट होने के बाद भी उनके मस्तिष्क पर एक अजीब सा बल महसूस किया मैंने। जैसे होंठो का एक उल्टा प्रतिबिंब उनके मस्तिष्क पर जा बना हो। आंखों में चमक आज भी वैसी हीं हैं पर मानों बदलते वक्त के आधुनिक आविष्कार में उनकी चमक थोड़ी चिंतित सी है। मैंने हमेशा से उनको एक टूटते तारा जैसा महसूस किया है। जिससे हर कोई अपनी ऊम्मीद लगाता है। एक आश देखी है मैंने सभी के भीतर। और उस उम्मीद को वास्तविकता का रूप लेते हुए भी। मेरी हमेशा से यहीं धारणा रही कि बाबा पानी और धूप की तरह हैं जिसकी कमी और अधिकता दोनों ही कस्टदायक होती है लेकिन मैंने उन्हें हमेशा सत्य हीं अपनाया है। उस मीठे जल के समान जिससे सदैव मेरी प्यास बुझती आई है। और सुबह की पहली धूप के समान जो पूरे शरीर को ऊर्जाओं से भर देती है। उनका होना आशिर्वाद जैसा है जो आपको प्रेरणा से भर देता है। जब से मेरी सोच अस्तित्व में आई हैं मैंने उनकी कल्पना उस महल की तरह की है जिसके भीतर पूरा परिवार अपने जीवन को एक दिशा देने में सक्षम हुआ। और आज भी महल के हर एक कोने पर उनकी उतनी ही नजर है। अब बढ़ते उम्र को देखकर मैंने पाया निंव आज भी मजबूती प्रदान कर रहा है लेकिन छत मानों कमजोर हो चलें हैं। अब भी मैंने उन्हें अपने लकीरों से लड़ते देखा है। पर हर बार उस लड़ाई में लकीरें जीतती जा रही हैं और वह लकीरें धीरे-धीरे सारे शरीर पर घर बना रहीं हैं। मैंने अंतिम बार उन लकीरों को उनके शरीर से हटाकर हाथों पर लाने का प्रयास किया था पर असफल रहा। मैंने अक्सर उनसे, उनके वृद्ध होने की बात कहीं पर मानों लगता है उनकी नजर हाथों की उन लकीरों पर चली जाती होगी जिसे वो हर रोज देखते हैं और उन्हें बराबर नजर आते हैं। जिन्हें मैं बहुत दिनों बाद देखता हूं और मुझे कम नजर आते हैं। और यह नजर का हीं तो असर है सब अपने-अपने नजर से देखते हैं। लेकिन यह लिखना देखने जीतना आसान नहीं था। फिर कभी सामने दीवारों पर लगे तश्वीर जो बचपन से आजतक घर की शोभा बढ़ाते आ रहे हैं। मैंने उन्हें हाथ से साफ करने की कोशिश की तब मुझे मेरी लकीरें नजर आनी बंद हो गई और मैंने लिखना शुरू किया। लिखते वक्त मेरी नज़र हर बार मेरी लकीरों पर चली जाती थी मानों मैं अपनी लकीरों को शब्द दे रहा हूं। तभी अचानक तस्विरों के पिछे से गुजरती छिपकलियों को देख ऐसा लगा मानों वो एक अजीब सी लकीर खींच रहा हो और मैं दीवारों को एक टक देखने लग जाता। मैं रूक जाता और लगता जैसे सारी लकीरें बिखर गई हो और मैं फिर उन्हें समेटने में लग जाता। इन सभी लकीरों के मध्य सिर्फ एक हीं बात समझ में आयी कि बाबा का त्याग और सेवा किसी बलिदान से कम नहीं। उन लकीरों ने खुद को खोने से पहले बहुत कुछ पाया है। कम होते इन लकीरों को आज भी समाप्त होने का डर नहीं है। बचे हुए कुछ लकीरों को मिलाकर अगर कोई शब्द का रूप दिया जाए तो वह सेवा हीं होगा।
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Friday, June 5, 2020
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