सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Friday, March 4, 2022

"बाबा की लकीरें "

भेंट, मुलाकात मात्र एक माध्यम है हमारी उपस्थित का। हमारी उपलब्धियों का। मैं जब भी बाबा को देखता हूं मुझे उनकी लकीरें नजर आती हैं। लकीरों में संघर्ष नजर आता है। बाबा की लकीरें स्वयं में कहानियां कहती हैं। जानकारियों का गुच्छा होंठों पर कंपकंपाता रहता है। लकीरों आज भी कुछ नया करने के लिए भागती हैं। उम्र से दौड़ लगाती है। उम्र हर रोज हारता है लकीरें माथे पर थकान लिए उभर जाती हैं। यहीं थकान हर पल उनकी महानता की कहानी कहता है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Monday, February 22, 2021

श्रद्धा

आंखों के नीचे अलसाई सी झुर्रियां। पेशानी पर उम्र की मुक्तता। आंखों में धुंधलाती हुई उम्र का संघर्ष। सफेद हो चले बालों में छुपी लंबें उम्र की यात्रा। और होंठों पर सूखी हुई ढ़ेर सारी किस्से कहानियां आपके अस्तित्व को और भी मजबूत करती हैं। आपके स्वभाव को और भी खूबसूरत बनाती हैं। मैं राजनीति से सदैव से घृणा करता आया हूं शायद तब से जब से मैंने होश संभाला। तब से जब से राजनीति और सेवा में अंतर समझा। मैंने कभी आपको राजनेता के रूप में नहीं देखा। मैं अक्सर अपने आप को इस बात के लिए भाग्यशाली मानता हूं। मेरा आपको राजनैतिक दृष्टि से देखना मुझे आपके प्रति घृणा से भर देता। जैसे मैं भगवान में लेशमात्र भी विश्वास नहीं करता। पहले करता था लेकिन अब नहीं करता वैसे हीं आप में मेरा तनिक भी विश्वास नहीं। बंगाल आने के बाद भगवान के प्रति मेरे मन में सिर्फ श्रद्धा है। वो श्रद्धा मेरे भितर आपके लिए बहुत पहले पनप चुका था। वो श्रद्धा कई पन्नों पर अपनी जगह बना चुका है। मेरे पास आपसे जुड़ा कोई संदेह नहीं, किसी प्रकार का विचार नहीं कोई सवाल नहीं। इन तमाम उहापोह से इतर बस श्रद्धा है। संदेह विचार पैदा करते हैं और विचार से विश्वास की उत्पत्ति होती है।

Friday, June 5, 2020

"बाबा की लकीरें"

बीतते समय के साथ मैंने बाबा में कुछ खास परिवर्तन नहीं पाया। कुछ उनके कलम और सामने के बाल जो सफेद के साथ हल्के काले हुआ करते थे वो पूरी तरह अपना अस्तित्व खो बैठे हैं। और सफेद के आगे जाना अब उनके बस में नहीं। पर कुछ दिन पहले मिलने पर मैंने पाया कि सेवा करते वक्त जो लकीरें उनकी हाथों में मैंने देखा था वो वहां धुंधले पड़ते जा रहें हैं। और उन्होंने अपना स्थान बदल लिया है। उन लकीरों को मैंने उनके चेहरे के आस-पास कमजोर होती मांसपेशियों में देखा। होंठों पर मुस्कराहट होने के बाद भी उनके मस्तिष्क पर एक अजीब सा बल महसूस किया मैंने। जैसे होंठो का एक उल्टा प्रतिबिंब उनके मस्तिष्क पर जा बना हो। आंखों में चमक आज भी वैसी हीं हैं पर मानों बदलते वक्त के आधुनिक आविष्कार में उनकी चमक थोड़ी चिंतित सी है। मैंने हमेशा से उनको एक टूटते तारा जैसा महसूस किया है। जिससे हर कोई अपनी ऊम्मीद लगाता है। एक आश देखी है मैंने सभी के भीतर। और उस उम्मीद को वास्तविकता का रूप लेते हुए भी। मेरी हमेशा से यहीं धारणा रही कि बाबा पानी और धूप की तरह हैं जिसकी कमी और अधिकता दोनों ही कस्टदायक होती है लेकिन मैंने उन्हें हमेशा सत्य हीं अपनाया है। उस मीठे जल के समान जिससे सदैव मेरी प्यास बुझती आई है। और सुबह की पहली धूप के समान जो पूरे शरीर को ऊर्जाओं से भर देती है। उनका होना आशिर्वाद जैसा है जो आपको प्रेरणा से भर देता है। जब से मेरी सोच अस्तित्व में आई हैं मैंने उनकी कल्पना उस महल की तरह की है जिसके भीतर पूरा परिवार अपने जीवन को एक दिशा देने में सक्षम हुआ। और आज भी महल के हर एक कोने पर उनकी उतनी ही नजर है। अब बढ़ते उम्र को देखकर मैंने पाया निंव आज भी मजबूती प्रदान कर रहा है लेकिन छत मानों कमजोर हो चलें हैं। अब भी मैंने उन्हें अपने लकीरों से लड़ते देखा है। पर हर बार उस लड़ाई में लकीरें जीतती जा रही हैं और वह लकीरें धीरे-धीरे सारे शरीर पर घर बना रहीं हैं। मैंने अंतिम बार उन लकीरों को उनके शरीर से हटाकर हाथों पर लाने का प्रयास किया था पर असफल रहा। मैंने अक्सर उनसे, उनके वृद्ध होने की बात कहीं पर मानों लगता है उनकी नजर हाथों की उन लकीरों पर चली जाती होगी जिसे वो हर रोज देखते हैं और उन्हें बराबर नजर आते हैं। जिन्हें मैं बहुत दिनों बाद देखता हूं और मुझे कम नजर आते हैं। और यह नजर का हीं तो असर है सब अपने-अपने नजर से देखते हैं। लेकिन यह लिखना देखने जीतना आसान नहीं था। फिर कभी सामने दीवारों पर लगे तश्वीर जो बचपन से आजतक घर की शोभा बढ़ाते आ रहे हैं। मैंने उन्हें हाथ से साफ करने की कोशिश की तब मुझे मेरी लकीरें नजर आनी बंद हो गई और मैंने लिखना शुरू किया। लिखते वक्त मेरी नज़र हर बार मेरी लकीरों पर चली जाती थी मानों मैं अपनी लकीरों को शब्द दे रहा हूं। तभी अचानक तस्विरों के पिछे से गुजरती छिपकलियों को देख ऐसा लगा मानों वो एक अजीब सी लकीर खींच रहा हो और मैं दीवारों को एक टक देखने लग जाता। मैं रूक जाता और लगता जैसे सारी लकीरें बिखर गई हो और मैं फिर उन्हें समेटने में लग जाता। इन सभी लकीरों के मध्य सिर्फ एक हीं बात समझ में आयी कि बाबा का त्याग और सेवा किसी बलिदान से कम नहीं। उन लकीरों ने खुद को खोने से पहले बहुत कुछ पाया है। कम होते इन लकीरों को आज भी समाप्त होने का डर नहीं है। बचे हुए कुछ लकीरों को मिलाकर अगर कोई शब्द का रूप दिया जाए तो वह सेवा हीं होगा।

Thursday, April 16, 2020

कुआं

अरविंद बाबा का कूआं। पर गांव में आज भी लोग कहते हैं अरबिन बाबू के कुइआं। वो कुआं जो कभी एकमात्र सहारा था प्यास बुझाने का आस-पास के २० घरों का। मां, दादी, बहनें सभी दो मिट्टी के घड़े लेकर जातीं।‌ एक घड़ा कमर पर और दूसरा सिर पर। पानी के लिए एक लंबा इंतजार होता था। पर शांति थी, उस शांति में सभी अपने सुख-दुख की बातें करते थे। उन बातों में असल प्रेम दिखता था। लोग एक दूसरे को समझते थे। सभी हर एक की कहानी जानते थे। कभी किसी के चेहरे की आस-पास की चोट, लोगों का साथ पाकर कम हो जाती था। सच कहूं तो सभी एक दूसरे से पानी की तरह जुड़े हुए थे। जैसे पानी का कोई विरोध नहीं होता। हर आने वाला कल पानी के साथ स्वच्छ होता गया।‌ अलग हीं मिठास थी इस पानी की। आज यह बंद हैं। लोगों का मिलना-जुलना भी बंद‌ है। पानी का साधन अब सभी के पास है पर उस पानी में मिठास नहीं है। बोरी भर शक्कर घोलने पर भी नहीं।‌                



 -पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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