सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, August 5, 2023

"मां और सूरज"

सूरज पूरब से उगता है।
या सूरज जिस ओर से उगता है वह पूरब है।
मां सुबह उठती है।
या मां के उठने से सुबह होती है।
जैसे सूरज उगता है वैसे मां भी उठती होगी। 
सूरज की हीं भांति मैंने मां को थकते नहीं देखा।
ना गहरी नींद में खोते देखा है।
मां जितनी मेरी है उससे पहले घर की है। 
शायद घर के हर कोने ने कनखियों से देखा होगा।
देखा होगा मां का भोर उठ घर के लिए समर्पित हो जाना। 
हर कोने को बुहार घर की खुशियां इकट्ठा करते।‌
दिवार पर चिपके झाले से लड़ते। 
चूल्हे के धूओं में सारे दुख को बहते।
मैंने मां के माथे पर जिम्मेदारी की लकीर।
गालों पर उम्र की झुर्रियां।
और होंठों पर मुरझाईं हंसी देखी है।
बाकी सारा कुछ मां ने मुझसे छुपाया है। 
जैसे सूरज हमें रोशनी देता है। बादलों की छाया में मीठी अलसाए सी यादें देता है।
वैसे हीं मां हर पल बिखेरती है अपना अनुराग। जैसे पौधे बनाते हैं धूप में अपना भोजन मां पालती है हमारा बचपन, हमारा जीवन। 
मां हमारे बचपन में अपनी तरूणाई व्यय करती है। 
हम अपने बचपन में जीते है उसका उधार तरुणपन।
सूरज की धूप से पहले शरीर को स्पर्श करती है मां। मां वास्तव में हमारे लिए धरती भी है और सूरज भी। हम उसपर फलते-फूलते पौधे हैं जिसे दोनों ने मिलकर इंसान बनाया है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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