सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Thursday, July 13, 2023

सभी की अपनी सीमाएं हैं - 7 जुलाई 2023

झूठ कैसा होता है? 
झूठ का चेहरा कितना विवर्ण होता है? किसी ने नहीं देखा। झूठ का सबसे सटीक मानक यह है कि झूठ,झूठ होता है। एक लंबी जीवन के भटकाव में मैंने झूठ को सच के आसपास भटकता हुआ देखा था। मेरे साथ जीवन को चखता हर व्यक्ति हर रोज झूठ बोलता है। मैं भी उस झूठ को हर रोज अपनी संतुष्टि और सुख का कपड़ा पहनाता हूं। 
जैसे कोई मुझसे पूछता है कैसे हो? और मैं बिना अपने सच को कुरेदते हुए अपने संतोष को उनके आगे फेंक देता हूं। सामने खड़े व्यक्ति के लिए मेरा संतोष हीं सत्य होता है। वो मेरे संतोष को सच मानते हैं या मेरे कहे को? मैं कभी भी उस झूठ में वापस प्रवेश नहीं करता। दूसरी छोर पर अपने जीवन को चखता व्यक्ति मेरे संतोष को अपने चखे हुए में शामिल करता है और "बढ़िया है" "बहुत अच्छे" जैसे संतुलित शब्दों के साथ बात खत्म हो जाती है। मिट्टी से किसी बच्चे का देंह सना हो और मां के झूठे भाव से दपटने पर वह बच्चा अस्पष्ट सी तोतली संभली हुई आवाज़ में एक मासूम झूठ बोले "नहीं मैं कुछ नहीं कर रहा था मैं तो अचानक से गिर गया"। 
बांस की छड़ी से डरा हुआ छात्र अपने अनुशासित और नियमित, समय के पाबंद अध्यापक से गृहकार्य करने का सुरक्षित झूठ बोल दे तो सच वहां शर्मिंदा नहीं होता। वहां सत्य की हत्या नहीं होती। सत्य का विश्वास कम नहीं होता। झूठ के विस्तार के बाद भी सत्य का फैलाव सर्वाधिक और प्रबल होता है। 
क्यों कि यह झूठ अमानवीय झूठ नहीं हैं। इस झूठ से किसी के हृदय को आघात नहीं पहुंचता। यह झूठ अपनी यायावर दुनिया में उलझे व्यक्ति को भी आत्मीय सुख परोसता है। इस प्रकार के बोले हुए झूठ से हमारा सत्य कमजोर नहीं होता। हमारे भीतर घृणा का घाव नहीं बनता। हम एक साधारण सा संतोष अपने आसपास देखते हैं। जिसमें सभी के लिए अनुराग छिपा होता है। जिसमें विकल्प के फूल सत्य के साथ जा मिलते हैं। मानों कोई छोटा बच्चा घर में छुपा कर रखे हुए बादाम को चुपके से खा रहा हो इस झूठ के साथ कि मैं नहीं खा रहा और मां उस झूठ को पकड़ चुकी है कि यहीं सत्य है तुहीं खा रहा है और उसे झूठ हीं रहने दिया गया है। 
मानवीय झूठ से अलग पिछले दिनों मैं अमानवीय झूठ की यात्रा पर था। यह यात्रा 7 जुलाई रात लगभग 8 बजे आरंभ हुई और 8 जुलाई सुबह समाप्त हुई।
7 जुलाई को लखनऊ में छोटा सा कार्यक्रम फूफा जी और श्रीनय, अन्मय की जन्म दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित था। फूआ ने पूरी तैयारी कर रखी थी। भारतीय परंपरा के अनुसार भगवान की पूजा, गरीबों को अन्न दान और पश्चिमी देशों के सदृश केक कटिंग और रेस्टोरेंट में रात्रि का भोजन। भारत देश की यहीं सबसे बड़ी सुघरता है स्विकार्यता हमनें सभी धर्म,देश, संस्कृति,विचार आदि को स्थान दिया है। 
मैं दोपहर में कानपुर से लखनऊ के लिए निकला। 
शाम को केक काटने और उसे खाने के बाद हमें भोजन के लिए रेस्टोरेंट जाना था। केक को देखते हीं बनता था। वर्गाकार सुंदर सा जिसपर फूफा जी और दोनों बच्चों की तस्वीर उतारी गई थी। इस केक की पहचान उसके फ्लेवर से नहीं उसकी डिजाइन से थी। फूआ ने इसका नाम "फोटो केक" बताया था। उसे काटने और फिर खाए जाने के क्रम में उसे बच्चों से बचाना सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। उसपर बने फोटो ने उनकी जिज्ञासा को बढ़ा दिया था। वो उसे बार-बार छूना चाहते थे। उसे अपने मुठ्ठी में भर लेना चाहते थे। पास से आते उनके छोटे-छोटे हाथ को देख सभी सावधान हो जाते। कभी केक को उनसे थोड़ा दूर किया जाता कभी उन्हें केक से। दोनों ओर से समान गति,समान दूरी और समान वेग से आक्रमण होता देख दूर पास की लड़ाई और उसे सुरक्षित रखने के खेल में तालियां बजाते हुए केक को अंतिम विदाई दी गई। उसके छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन्हें छोटे बड़े सभी में बराबर बांटा गया। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें सभी उम्र के लोग खाना पसंद करते हैं बसरते वो बीमार ना हों। केक उन्हीं में से एक भोज्य पदार्थ है।केक काटने के बाद सभी को हज़रतगंज स्थित एक निजी रेस्टोरेंट "आर्यन" में रात के भोजन के लिए जाना था। संख्या के अनुसार साधन का आभाव था। फूआ ने अपने मोबाइल से उबर ऐप से राईड बुक की। बच्चों की चुहल, जल्दी की हड़बड़ाहट, बधाई के लिए आते लगातार फोन के बीच उबर बाला नीचे आकर खड़ा हो गया। फूआ ने अपना मोबाइल मुझे दिया। मुझे और नेहा को बच्चों के साथ इसी गाड़ी में जाना था। गाड़ी सड़क के दूसरी ओर लगी थी। मैंने बैठते हीं पिन नंबर उसके साथ सांझा किया और एक बहुत की छोटी यात्रा पर निकल पड़े। इतनी छोटी यात्रा जिसमें खुद को व्यवस्थित बैठाया नहीं जा सकता। कोई थकान महसूस नहीं होती। रास्ते में एक बार फूफा जी का फूआ के नंबर पर फोन आया जिसमें टेबल बुक होने की जानकारी थी। सड़कों के किनारे जगह घेरते ठेले वाले और थोड़ा हटकर सजे दुकानों को देखते हुए, चौराहों की सुंदरता को निहारते हुए यात्रा पूरी हो गई। 
मैंने उसे भुगतान किया और रेस्टोरेंट के भीतर प्रवेश किया। अंदर प्रवेश करते हीं उनका मैनेजर जिसकी दाढ़ी सुघरता से उसके चेहरे पर सजी हुई थी और रंग-बिरंगी रोशनी में चमक रही थी उसने हमारे सम्मान में "वैलकम सर" "वैलकम मैम" जैसे दो शब्द जोड़े और दाढ़ी के भीतर एक तीखी हल्की छुपी हुई मुस्कान के साथ हमारा स्वागत किया। उसकी मुस्कान झूठी थी या सही यह सिर्फ उसे पता था। लेकिन उसकी मुस्कान ईमानदार थी‌। अपने कार्य के प्रति अनुकूल। बिल्कुल जिम्मेदार मुस्कान जिससे किसी को कोई नुक्सान नहीं। मैंने उसे टेबल बुक होने की जानकारी दी उसने हमें पहले फ्लोर पर जाने के लिए रास्ता दिखाया। उसी दौरान बाकी सभी को भी मैंने आते हुए देखा। आते हीं फूआ ने जानकारी दी की हमें वेज सेक्सन में जाना है जो नीचे की ओर है। और व्याकुलता से पूछा "हमार मोबाइल क्यों आफ बा? फोन नईखे लगता" मोबाइल कहां बा? 
मैंने नेहा की ओर इशारा किया लेकिन नेहा ने तुरंत एक सुधार किया जिसमें मेरी ज़बाब देही थी‌। मैं जब बीते वक्त में झांका तो अंतिम समय मोबाइल को अपने पास पाया। लेकिन इस उम्मीद में कि मोबाइल कहीं आसपास होगा वहां ऊपर जहां मैं बैठा था या उन रास्तों में जहां से मैं चलकर आया था। लंबे कदमों से उन सभी जगहों को छूता हुआ मैं एक कोने में आकर बैठ गया। मैं उस ड्राइवर के नाम के अलावा सभी जानकारी से अनभिज्ञ था। जिसका नाम विवेक था और वह मोबाइल अपने साथ लेकर जा चुका था। तब तक मोबाइल के खो जाने की जानकारी सभी को मिल चुकी थी। फूफा जी ने सभी को बैठने का सुझाव दिया इस तर्क से की खड़े रहने से या घबराने से मोबाइल नहीं मिलेगा। पहले भोजन कर लेते हैं फिर देखते हैं। फूआ बार-बार एक हीं बात दोहरा रही थी "हमार मोबाईल खो गईल छोटू कैसे? नया फोन रहे, कैसे भूल गईले तू?" मेरे पास उस कैसे का तब भी जबाब नहीं था अब भी नहीं है। मैं अपने जीवन में आया हुआ आत्मीय सुख और पहाड़ सा बड़ा दुख भूल चुका हूं। अपने पुराने दोस्तों के नाम अब मुश्किल से याद आते हैं जब वो अचानक से सामने प्रगट हो जाएं शायद तब। मुझे अब उंगलियों के नाम याद नहीं हैं। 19 का पहड़ा मुझे जोड़कर बोलना पड़ता है। ऐशु को किए वादों से मैं मुक्त हो चुका हूं। मैं उसे इस शर्मिंदगी से भूल गया हूं जिसकी चर्चा करने से मैं डरता हूं। उसे कुछ किताबें भेज दिया करता हूं जिनमें उन वादों की महक शामिल होती है। मैं इन जबाबों से इतर फूआ की आंखों को देख रहा था जिनमें आंसू भर आए थे। उनकी पुतलियां धूंधली नजर आ रही थी। भावनाओं में तैरती उनकी आंखों को देख मैं उनसे बार-बार चुप होने के लिए कहता लेकिन वो एक गहरी सांस लेती मानों अपने आंसू को गालों पर लुढ़कने से पहले पी जा रहीं हों। फूफा जी का शांत ,स्थिर चेहरा जो मैं पिछले 7 वर्षों से देख रहा हूं वो अब भी उतने हीं शांत थे। जैसे इंद्र धनुष के रंग होते हैं जिनका बनना और बिगड़ना हम नहीं देख पाते जब भी देखो वो पूरा नजर आता हैं। जैसे किसी ने आकाश का बनना और बिगड़ना नहीं देखा। मैं उनसे सीधे तौर पर नजरें मिलाने से बच रहा था। फूआ की भावना और फूफा जी की शांति से अलग आजी किसी ऋषिका की भांति संतोष को साधे हुए एक हीं बात दोहरा रहीं थीं "भूला गईल त भूला गईल अब का रोए से मिल जाई जो खो चुप चाप" बाबा किसी साध्य दार्शनिक की भांति चैतन्य अवस्था में अपना फैसला उसी चिरपरिचित अंदाज में सुना चुके थे जिसमें जावेद अख्तर और उनमें भेद करना मुश्किल हो जाता है "नहीं मिलेगा भाई, नहीं ये चीजें थोड़ी मिलती हैं। मेरा कितना मोबाइल खो गया आज तक नहीं मिला। चलो भोजन करो।" "अब आप ये समझिए कि हमारी टबेरा बनारस चोरी हो गई आज तक नहीं मिली जो कोई भी ऐसा काम करता है वह वापस करने के उद्देश्य से थोड़ी करता है" मैं उबर की वेबसाइट से नंबर खंगाल रहा था लेकिन कस्टमर के लिए कोई ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं थी। मैंने वेबसाइट के सहायक सेक्सन पर शिकायत दर्ज कराई लेकिन कोई जबाब नहीं मिला। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी पास की खाली टेबलों पर लोग बैठते गए। शोर बढ़ता गया उस शोर में खुशियों की आवाज और चिंता की भुनभुनाहट दोनों शामिल थे। दोनों बच्चे उसी शोर में खेल रहे थे। यह उनके लिए खास दिन था। कुछ उदास चेहरे तो कुछ उल्लासित। मानों उस ड्राइवर ने संसार की परिभाषा दिखाने के लिए ऐसा कुछ किया हो। 
क्या एक साथ सभी खुश रह सकते हैं। क्या किसी के सुख में दूसरे के दुख के लिए स्थान है? या किसी के दुख में सामने वाले के सुख के लिए स्थान है? सभी की अपनी सीमाएं हैं। सभी उस सीमा में रहकर अपना जीवन जीना चाहते हैं। मैं अपनी सीमा में बैठा रोटी खा रहा था और अपने दोस्तों से इस विषय में उचित सलाह ले रहा था। लेकिन कहीं से कोई संबंधित ठोस जानकारी और मदद नहीं मिल रही थी। मैंने मैनेजर से कैमरे में गाड़ी की जानकारी देखने के संबंध में बात की वह वापस से अपनी तीक्ष्ण मुस्कान के साथ ज़बाब में कहा "हमारे यहां के कैमरे बाटम ब्यू पर सेट हैं आप दिख सकते हैं लेकिन गाड़ी का नंबर नहीं" इस बार मुझे उसके झूठे मुस्कान से कुछ ज्यादा चिढ़ महसूस हुई। लेकिन दाढ़ी के भीतर चमकते दांतों को दिखाते हुए उसने कहा सामने पुलिस का कैमरा है जो चौराहे की निगरानी करता है आप वहां देख आईए। मैं उसे धन्यवाद कहता हुआ वहां पहुंचा तो उसने मुझे कोतवाली में शिकायत दर्ज करने की सलाह जी। बिना उसके कैमरे को देखने की इजाजत नहीं है। मैं वापस भीतर गया फूआ के आंसू अब अचानक से कभी बढ़ जाते तो कभी एकदम से सूखे हुए मुझे ताक रहे थे। मैं इस उम्मीद में आंसूओं से भरे आंसू में मेरा चेहरा धूंधला नजर आता होगा खुद के लिए जगह ढूंढ लेता। मैंने अपने नए पहचान के व्यक्ति जिसके साथ मैं कैब में कानपुर से लखनऊ आया था जो उबर में कर्मचारी था उससे यह बात साझा की उसने हर संभव मदद करने का वादा किया। 
फूआ बीच-बीच में पूछती रहती "छोटू हमार मोबाईल मिल जाई न?" और मैं पहले तू रोना बंद कर के ज़बाब से अपने मोबाइल को घूरता रहता। मैंने फूआ को कहा तु घर जो हम लोग कोतवाली जाकर शिकायत कर देब। लेकिन फूआ की जिद जो भावना से लिप्त थी जिसमें अपने मोबाइल के खो जाने का दुख था उसने अपना फैसला यह कहते हुए सुनाया कि "मोबाइल हमार बा तो हम भी चलब"।
सभी लोग घर चले गए और बाबा,फूआ,फूआ और मैं हज़रतगंज कोतवाली में शिकायत दर्ज करने के लिए पहुंचे। कार्यालय का पता लगा जब हम वहां पहुंचे तो वर्दी में खड़ा व्यक्ति ने हमें नियम के तहत सारे कार्य करने की सलाह दी। मैंने यूपी पुलिस का ऐप्लिकेशन डाउनलोड किया और घटनास्थल से जुड़ी सभी जानकारी और विस्तृत जानकारी की मदद से शिकायत दर्ज कराई। बाबा फोन पर किसी पदस्थ व्यक्ति को इस बात की जानकारी दे रहे थे। सामने खड़ा मददगार इस बात से चिढ़ रहा था कि क्या जरूरत है इसकी हम काम तो कर रहे हैं ना.. । अभी आप फोन कर देंगे फिर भी सर्विलांस पर तो सुबह 10 बजे हीं नंबर लगेगा। मैं अपनी परेशानी में फूआ को खींच लाया। फूआ कि ओर इशारा करते हुए बोला सर, फूआ का फोन खो गया है वो बहुत परेशान हैं। नया फोन था और फूफा जी उन्हें उनके जन्मदिन पर पिछले महीने भेंट दिया था। आज फूफा जी का जन्मदिन है और आज सारा कुछ जैसे धुल गया है।
मैं समझता हूं आपकी बात लेकिन काम तो सुबह हीं होगा ना। 
मेरे पास कोई तर्क नहीं था। फोन के वापस मिल जाने की इच्छा थी। उस इच्छा पूर्ति के लिए जो भी योजना कारगर हो मैं उसपर चलने के लिए तैयार था। पिछले कुछ दिनों से फूआ आईफोन खरीदने की तैयारी में थी। मुझसे उसके बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रही थी। लेकिन अब फूआ ने इस मोबाइल के खो जाने के बाद कोई भी फोन लेने से इंकार कर दिया था। मेरे लिए इस फोन का खोना मेरे द्वारा फूआ को दिए गए सबसे बड़े दुख के समान था। कुछ दुख ऐसे होते हैं जिनका कोई मूल चेहरा नहीं होता मात्र कारण होता है। मैं वो कारण था चेहरा अब भी अपने झूठ को लिए कहीं चैन से भटक रहा था। 
सभी वापस घर पहुंचे। फूआ का जिंदा प्रश्न अब बदल चुका था।
हमार मोबाईल कैसे खो गईल, किस जगह...
अब का होई? 
अब मोबाइल मिल जाई?
अब पकड़ा जाई ना वो?
और नाई मिलल तो?
मैं हां.. हां में अपना सिर हिलाता रहा। 
फूफा जी ने जबाब में कहा, मिल जाएगा तो अच्छे है। 
फूआ ने झूठा रोष दिखाते हुए कहा आप तो चाहते हीं है कि ना मिले। 
घर पहुंचकर सभी अपना-अपना कोना पकड़ लिए थे। मैं बार-बार अपना मोबाइल चेक कर रहा था। दोस्तों के मैसेज, ट्विटर के ज़बाब के इंतजार में अपनी उंगलियां मोबाइल पर मार रहा था। तभी मुझे आशीष द्वारा ड्राइवर का नंबर मिला। नंबर मिलते हीं मेरे पूरे देंह में तेज झनझनाहट हुई मानों एक आदि काल से दबा हुआ क्रोध मस्तिष्क पर पहुंचने के लिए उफान मार रहा हो।
मैंने उसे फोन किया। 

विवेक? 

हां, कौन? 

मैं, जिसे आपने आर्यन पर ड्राप किया था।

हां भईया बोलिए।

आप मेरा मोबाइल लेकर चले गए महाराज।

अरे नहीं भाई आपका मोबाइल हमारे पास होता तो तुरंत दे दिए होते आपको। आप फोन करते तो घंटी तो बजती। 

मैंने फोन किया था आपने स्विच आफ कर दिया है। आपने हीं लिया है मेरा फ़ोन। 

अरे भैया हम नहिया लिए। का मिले हमके। 

मैं नहीं जानता, मैंने पुलिस में शिकायत दर्ज कर दी है अब आप समझिएगा। सुबह तक मुझे मेरा फोन चाहिए। 

अरे भैया क्या मिलेगा आपको हमारा कंप्लेंट करके गरीब आदमी हैं। हमार आदमी केतनन के मोबाइल गाड़ी में पाएन दे देहन। हमार दुल्हा पूरा सूटकेस पाएन फोन करी के वापस कई देहन जेकर रहा। यह आवाज महिला की थी।

मुझे नहीं पता आप चेक करिए गाड़ी में और मुझे बताइए। 

अरे!भाई साहब आप उतरे फिर हमको जो है दूसरी बूकिंग मिल गई अब कौनो पैसेंजर ले गवा होई तो हम का करबे? हमारे पास नहीं है। 

और मैंने फोन रख दिया। 

नेहा इन सारी बातों को सुन रही थी। उसने ताना देते हुए कहा इतना प्रेम से बतियइबा त नाई दीही। गांधी का दौर नहीं है मोदी का दौर है। 
मैं उसे ज़बाब दे सकता था लेकिन मेरी उलझन कुछ और थी। मैं गांधी जी के सत्य और अहिंसा के तर्क से आज के भ्रष्ट नेताओं पर गांधी के व्यक्तित्व खर्च नहीं करना चाहता था। गांधी के नाम पर मिलते सम्मान को कैसे उन्हें गाली देने में उपयोग किया जाता है इस लड़ाई से अलग मोबाइल को पाने के लिए गुल्लक में कैद सिक्कों की तरह भीतर से बज रहा था। जिसपर गांधी की तस्वीर नहीं होती। गरीब की उम्मीद होती है। 
नेहा ने सारी बात फूआ को बताई। 
फूआ का आत्मविश्वास थोड़ा सघन होता नजर आया। 
"अब हमार मोबाईल मिल जाई"
का बोललक साला? 
वहीं लिया है, पक्का वहीं लिया है। हम क्राइम पेट्रोल देखले ही। वहीं है साला।
फोन लगाव उसके हम बात करब। 
मैंने कहा फूआ वो सुबह बात करी अभी सूतल बा। 
तु चुप रहा इतना सीधा मत बन, हमार मोबाईल चोरी करके सुतल बा और हम लोग यहां परेशान ही। अभी फोन कर। साला के हडकाईब तो समझ में आई। जेल में डलवाईब साला के।
अरे! फूआ सुबह बात कर लिहे। और इस नोक झोंक में सुबह उससे बात करना तय हुआ। 
मैं पूरी रात बदलते करवट के सहारे सुबह का इंतजार करता रहा।
फूफा जी भोर में हीं बस्ती के लिए निकल गए। 
सुबह मैंने ड्राइवर का नंबर अवधेश भैया को इस व्याकुलता से डूबता हुआ दिया कि उनकी हड़क का असर उसपर ज्यादा मजबूती से पड़ेगा। शायद यहां मेरा शांति प्रिय व्यवहार उसके पोषित झूठ को नहीं तोड़ पाएगा। 
भैया ने फोन किया और बताया कि उन्होंने उसे डराया है। वह कुछ देर में फोन करेगा। 
इधर फूआ ने चिंता के स्वर में पूछा का भईल? और मेरे द्वारा दिए ज़बाब से वापस उखड़ पड़ी और खुद उससे बात करने का निर्णय लिया। 

भैया मैं वहीं बोल रही हूं जिसे आपने कल आर्यन पर ड्राप किया था। 

हा! हा! हा!  हंसते हुए अरे! मैडम मैंने आपका मोबाइल नहीं लिया है। मैं कल से परेशान हो गया हूं। इतना फोन आ रहा है मेरे पास। 

अरे! तो आएगा हीं ना आपने ऐसा काम किया है। मेरा मोबाइल रख लिया आपने। हम सभी लोग फोन लगाते रहे आपने तुरंत स्वीच ऑफ कर दिया। 

अरे! मैडम हम कौन का आपका मोबाइल लेके करोड़पति हो जाएंगे? 

तो क्यों लिया आपने फोन? देखिए मैंने पुलिस में आपका नंबर दे दिया है। अब आपके साथ जो होगा उसके जिम्मेदार आप खुद होंगे। 

इतने में बाबा इन बातों में कूद पड़े थे। उससे बोलो हम नहीं कह रहे कि आपने लिया है लेकिन आप चेक करिए अपने गाड़ी में दोबारा से। 

मैडम मैं चेक कर लिया हूं।

तो दोबारा चेक करिए। आपके हीं गाड़ी में है मेरा फ़ोन।

ठीक है चेक करके बताता हूं। 

ठीक है। 

और फूआ ने लंबी सांस ली मानों रात की चिंता में उसे सांस कुछ कम आई हो जो अभी पूरी हो रही हो। 
दूसरी तरफ बाबा ने किसी स्थानीय नेता को उसका नंबर भेज दिया जो किसी बड़े पद पर आसीन थे। 

कुछ देर बाद ड्राइवर का फोन आया...
बिल्कुल बत्तमिजी भरे स्वर में जहां चोरी का कोई अफसोस नहीं था। झूठ के लिए कोई ग्लानि नहीं थी। 

अरे! मैडम बैट्री नहीं था क्या ? मोबाइल स्विच आफ सीट के नीचे पड़ा मिला।

फूआ ने अपने शांत हाथ और चंचल आंखों से पहले हीं हमें सूचित कर दिया था कि मोबाइल मिल गया है। उसका झूठ हार गया है। उसका चालाक झूठ डर गया है। 

कोई नहीं भैया आप मोबाइल दे दीजिए। थैंक्यू भैया। 

गोल्डन कलर है ना? 

हां.. हां।

और फोन रख दिया गया। 
सभी ने सुख की सांस ली। एक चिंता जो मुझे छील रही थी मैंने उसके दर्द को पानी पीकर समाप्त किया‌‌।
फिर सभी ने अपने अतीत से जुड़े झूठ और सच को अपने नजरिए से तौला। सभी के पास ईमानदारी के किस्से थे। 
मेरे पास कोलकाता का किस्सा था जहां आई.सी.एच. के एक कर्मचारी की ईमानदार नियत की वजह से मैं दो घंटे बाद भी अपना मोबाइल वापस पाया था। बाबा के पास दिल्ली और कन्याकुमारी का।

मैं बैठा उस ड्राइवर के बारे में सोच रहा था जिसका झूठ बिल्कुल हीं अमानवीय था। जिसके झूठ से सभी घृणा कर रहे थे जिसने 7 जुलाई को एक दूर्दांत घटना के तौर पर हमारे दिमाग में दर्ज कर दिया था। जिसके कृत्य ने बहुत से सोचे हुए काम पूरे नहीं होने दिए। जिसने उस रात मनने वाली खुशियों को अपनी झूठ से काला कर दिया‌। मैं उसकी पिपासा पर हंस रहा था। झूठ कितना कमजोर होता है जो हल्की सी डांट और थोड़े दिखाए हुए डर से कांपने लगता है। कल का उसका बोला हुआ झूठ कैसे आज उसके आचरण से दूर भाग गया? 
क्या सत्य और झूठ के मध्य डर एक माध्यम है उसकी मूलता को परिवर्तित करने के लिए। 
क्या सच को भी डर दिखाकर झूठ में बदला जा सकता है? 
क्या सच के भी मानवीय और अमानवीय रूप होते हैं? 

थोड़ी देर में उसका फोन आया वो अपने बताए गए पते पर मोबाइल देने की बात कह रहा था लेकिन फूआ ने सूझबूझ से उसे 10 बजने और पुलिस द्वारा उस पर किए जाने वाले कारवाई का डर दिखाकर उसे मोबाइल देने के वाध्य किया। 

वह मूलतः अपने झूठ से बुरी तरह डरा हुआ था जिस कारण वह हमारे क्रोध और व्यग्रता से परिचित था। इस कारण वह आने से इंकार कर रहा था लेकिन कुछ समय बाद वह मोबाइल देने उसी गाड़ी से आया उसमें कुछ यात्री भी बैठे हुए थे। जिसमें हमनें कल त्रासदी भरी यात्रा की थी। और ड्राइवर झूठ के विस्तार को लिए आगे बढ़ रहा था। गाड़ी में बैठे लोग उस झूठ से अंजान थे। वो वैसी हीं बेशर्म सी हंसी हंसकर मोबाइल देता हुआ झूठी यात्रा पर निकल गया। 
घर आते हीं फूआ ने कहा..
"छोटू हमार मोबाईल मिल गईल"
"नेहा हमार मोबाईल मिल गईल"
"मम्मी हमार मोबाईल मिल गईल"... उ त हम.. कहते रही की मिल जाई। जब ओकर नंबर मिलल तबे हम जान गईली की मोबाइल मिल जाई। 
फूआ ने फूफा जी को फोन किया। 
"बाबू मेरा मोबाइल मिल गया"
"उसने क्यों लिया होगा मेरा मोबाइल?"

इसका एकमात्र कारण लालच हो सकता है और शायद कुछ भी नहीं। या गरीबी से ऊपजी कोई तृष्णा जिसे आलस से पूरा करने का एक रास्ता उसे मोबाइल को देख नजर आया हो। जहां उसका आलस स्वयं को विजयी मान बैठा हो।

बाबा ने यह जानकारी उसी स्थानीय नेता को संदेश के रूप में भेजने के लिए कहा। 
मैंने व्हाट्सएप खोला तो उसमें एक विनोद नाम के व्यक्ति का संदेश आया हुआ था। "भाई साहब मेरा बेटा नहीं रहा" 
मैंने बाबा से कहा, बाबा आप इनसे बात कर लीजिए।
उधर से आवाज आई भाई साहब सब बर्बाद हो गया। अब कुछ नहीं बचा। 26 साल का लड़का था मैं बचा नहीं पाया। कुछ नहीं बचा अब ऐसे हीं दिन कटेगा। बिना अर्थ के जीवन में भटकूंगा ‌ 
"सुन कर बुरा लगा विनोद जी क्या कर सकते हैं भगवान की यहीं आज्ञा थी। खुद को संभालीए। 
मिलता हूं आपसे।"

अभी-अभी मिली खुशी में इस दुख का प्रवेश हुआ था मेरे शांत मन में वापस से वहीं सवाल गूंजने लगा...
"क्या एक साथ सभी खुश रह सकते हैं। क्या किसी के सुख में दूसरे के दुख के लिए स्थान है? या किसी के दुख में सामने वाले के सुख के लिए स्थान है? सभी की अपनी सीमाएं हैं। सभी उस सीमा में रहकर अपना जीवन जीना चाहते हैं।"


फूआ पूरे दिन सभी को उत्साह से बताती रही कि हमार मोबाइल मिल गईल।
तोरा चलते हमार मोबाइल मिलल छोटू। 
मैं हल्का मुस्कुरा दिया। सच्चाई यह थी कि मेरे स्वतंत्र लापरवाही के चलते फूआ का मोबाइल गुम हुआ था। मेरी उस छोटी सी अनदेखी ने उस रात को काले बादलों से ढंक दिया था जिसमें फूआ के आंसू बरस रहे थे। जिसे देख भीतर से दुख अनुभव कर रहा था। ऐसा नहीं की फूआ को मैं पहली बार रोता हुआ देख रहा था और उस आंसू से पहली बार जुड़ा था। क्योंकि इस आंसू का कारण मुझसे होता हुआ उन तक पहुंचा था इसलिए मैं विचलित महसूस कर रहा था।
क्या इस चीज की माफी हो सकती है? एक वर्ष के सबसे यादगार दिन को इस प्रकार निर्ममता से बर्बाद करने की। जो पिछले वर्ष के तारीख दीवारों की खूबसूरती बढ़ा रहा था आज वो चुप था उदास। 
होटल की एक भी तस्वीर नहीं थी। सारा कुछ यदि योजना के तहत होता तो फूआ अभी तक मोबाइल से तस्वीरें चुन रही होती।
 
अच्छा ये बताओ अगर मोबाइल नाई मिलतक फिर? 
तु कल हीं चल जईते? का करते? 
पता नहीं फूआ, शायद इंतजार। मोबाइल ट्रेक होने तक।
भूल जो ये सब एक बुरे सपने की तरह। मत सोच ऐसा कुछ भी। तु आईफोन ले ले.. हमें अच्छा लगी‌।

पता नहीं कब लेब।
तु फूफा से पूछ।

हम का पूछब फूआ। 
उस दिन फूफा जी के देख के व्यथीत महसूस करत रही।
कितना शांत चेहरा बिल्कुल इंद्रधनुष जैसा जो आंसूओं की बारिश में निकल आया हो। 
जो सत्य था। व्याकुलता और आकुल के मध्य चैतन्य अवस्था हीं एकमात्र सत्य है।





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