सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Saturday, August 5, 2023

"मां और सूरज"

सूरज पूरब से उगता है।
या सूरज जिस ओर से उगता है वह पूरब है।
मां सुबह उठती है।
या मां के उठने से सुबह होती है।
जैसे सूरज उगता है वैसे मां भी उठती होगी। 
सूरज की हीं भांति मैंने मां को थकते नहीं देखा।
ना गहरी नींद में खोते देखा है।
मां जितनी मेरी है उससे पहले घर की है। 
शायद घर के हर कोने ने कनखियों से देखा होगा।
देखा होगा मां का भोर उठ घर के लिए समर्पित हो जाना। 
हर कोने को बुहार घर की खुशियां इकट्ठा करते।‌
दिवार पर चिपके झाले से लड़ते। 
चूल्हे के धूओं में सारे दुख को बहते।
मैंने मां के माथे पर जिम्मेदारी की लकीर।
गालों पर उम्र की झुर्रियां।
और होंठों पर मुरझाईं हंसी देखी है।
बाकी सारा कुछ मां ने मुझसे छुपाया है। 
जैसे सूरज हमें रोशनी देता है। बादलों की छाया में मीठी अलसाए सी यादें देता है।
वैसे हीं मां हर पल बिखेरती है अपना अनुराग। जैसे पौधे बनाते हैं धूप में अपना भोजन मां पालती है हमारा बचपन, हमारा जीवन। 
मां हमारे बचपन में अपनी तरूणाई व्यय करती है। 
हम अपने बचपन में जीते है उसका उधार तरुणपन।
सूरज की धूप से पहले शरीर को स्पर्श करती है मां। मां वास्तव में हमारे लिए धरती भी है और सूरज भी। हम उसपर फलते-फूलते पौधे हैं जिसे दोनों ने मिलकर इंसान बनाया है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Saturday, March 5, 2022

कल्पना का आलिंगन यथार्थ के द्वारा भेंट की गई दुखों को हमारे देंह से झाड़ देता है

पहले के दिनों में झरोखा हुआ करता था। पूर्वजों की समझ बढ़ती गई और हमारा जिवन सुविधाजनक होता चला गया। अब खिड़की और रोशनदान दोनों उस व्यवस्था में शामिल हैं। मेरे लिए यह खिड़की #विनोद_कुमार_शुक्ल के प्रसिद्ध उपन्यास #दीवार_में_एक_खिड़की_रहती_थी जैसा है। मैं इस कमरे में बैठा यथार्थ और कल्पना दोनों में किसी को भी किसी पल चुन सकता हूं। यथार्थ का पालन कर हमें जीना होता है और कल्पना में हम अपनी जिंदगी अपने अनुसार जी सकते हैं। कल्पना का आलिंगन यथार्थ के द्वारा भेंट की गई दुखों को हमारे देंह से झाड़ देता है। फिर मां उस यथार्थ को बुहार घर से बाहर फेंक देती है। यह खिड़की ऐसी हीं एक कल्पना है। जैसे कुछ वर्ष पहले पिताजी यथार्थ थे। पिताजी की स्मृति आज भी यथार्थ हैं लेकिन उनका मेरे साथ होना कल्पना। खिड़की की दुनिया पिताजी की गढ़ी हुई है। इसके बाहर की दुनिया मैंने तय की है। मैंने नदी को गांव की प्यास बुझाते देखा। 
नदी का बाढ़ देखा।
घरों को डूबता देखा। 
सड़कों का विकास देखा।
घरों का टूटना देखा।
लोगों का पलायन देखा।
घरों का निर्माण देखा।
घरों को बसते देखा।
बसे हुए को बिखरते देखा।
जन्म देखा‌।
मृत्यु देखा।
पेड़ को पत्तों को संज्ञा शून्य होते देखा।
बीज को पेड़ का रूप लेते देखा।
पेड़ों को कटते देखा।
पंक्षियो को भटकते देखा।
घोंसलों के टुकड़े होते देखा।
कटी टहनियों को चिंताओं संग जलते देखा।
पेड़ को मिट्टी बनते देखा।
मिट्टी से खप्पर बनते देखा।
खप्पर से बनें घरों को देखा।
फिर खप्पर टूट गए और ईटों ने स्थान लिया। 
ईंट अपने साथ खिड़की लेकर आई।
मैंने खिड़की से बाहर देखा। 
खिड़की के बाहर द्वारिका झांक रहा था।
ऐ भैया कुछ दिहूं नहीं....
मैं बाहर की ओर ताकने लगा।
उसकी आवाज से मानों पंक्षियो को उसका घर मिल गया हो। उसने चहकना आरंभ कर दिया है।
बेल के पत्तों की खुशबू उसके शरीर से आ रही थी। उसके होंठ गांव की खुशियों को इकट्ठा कर खिड़की पर छोड़ गए थे। पैरों में लगी मिट्टी जीवन की परिभाषा बता रहे थे। हाथों में एकत्रित नीम के पत्ते अपने साथ ठंडी हवा लेकर आए थे। गंदे मैले कपड़े यह बता रहे थे कि गांव को अभी और बदलना है। 
इस बार द्वारिका खिड़की से नहीं झांका। उसने कोई आवाज नहीं लगाई। 
बेल का पेड़ सूख गया। पता चला द्वारिका गांव छोड़ चुका है। द्वारिका के जाने से पेड़ सूख गया या पेड़ के सूखने के डर से द्वारिका गांव छोड़कर भाग गया इसका ठीक-ठीक पता लगा पाना मुश्किल है। लेकिन गांव बदल गया है।।
मैं दरवाजे से बाहर निकलकर उसे ढूंढ सकता हूं लेकिन दरवाजे से निकलते हीं यथार्थ जीत जाएगा। और उसके जीतते हीं मैं शून्य हो जाउंगा। खिड़की टूटने से कल्पना बिखर जाएगी। कल्पनाओं को समेटना ईमानदार सरकार चुनने जितना मुश्किल है। 
मैं इंतजार करूंगा उसके वापस आने का।
-पीयूष चतुर्वेदी

Tuesday, February 8, 2022

"मौन"

मां मौन को पढ़ती है।
शिशु आश्चर्य को चुनता है।
तरूण रेखाओं को सजाता है।
वृद्ध झूर्रियों को समेटता हुआ शून्य को ताकाता है।




और फिर सभी मिलकर मौन को सजाते हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Sunday, August 29, 2021

मां मौन को पढ़ती है -पीयूष चतुर्वेदी

शिशु के हंसने, रोने, खिलखिलाने, सोचने, ईसारों में कुछ कहने का प्रयास करने तक सारी भूमिकाओं से हम अज्ञात रहते हैं। मुस्कान और आंसू दोनों हीं मौन होते हैं। और यही मौन हमारी शांति में दखल देती है। परंतु इस अशांति में एक प्रकार की सुरीली संगीत का आनंद है। रोना तेज बारिश की धुन लेकर आता है और मृदु भाव से सजी हंसी नदी के बहने का संगीत। आप सुनते जाइए और सुनिश्चित करने का प्रयास करते जाइए कि बालक कौन सी भूमिका में है। परंतु यह सत्य स्वयं में अनंत है कि शिशु के आश्चर्य के समक्ष बड़े-बड़े सुशिक्षित और किर्ति प्राप्त ज्ञानी भी नतमस्तक हैं। और सिर्फ ज्ञानी हीं नहीं साधारण नीरीह प्राणी भी इस सत्य के अस्तित्व से अंजान हैं।
बालक कब किस भूमिका में है इसका अंदाज लगा पाना लगभग असंभव है। सिवाय मां के। क्योंकि मां मौन को पढ़ती है,सुनती है और उसे स्विकार्य करती है। मां का कुछ बोल जाना भी शिशु के लिए अपरिभाषित है। मौन का अनुवाद मुखर में नहीं ममता में होता है। मां उस ममत्व से अपने शिशु को स्पर्श करती है जिसमें उसके मौन की परिभाषा निहित होती है।
कोई भी स्त्री तब पूर्ण होती है जब वह मां बनती है। और मां का पूर्ण होना उसके ममत्व के पूर्ण होता है। पश्चिम के देशों में नारी मां बनती है। और भारत में नारी मां हो जाती है। मां बनने में और हो जाने में एक विशेष सैद्धांतिक अंतर है। मां बनना एक प्रकार का बोझ है और मां होना एक उपहार है नारी की स्विकार्यता। 
फूआ ने इस पल को स्विकारा है। अनमोल उपहार को अपना भविष्य मान वर्तमान के परिदृश्यों को अनदेखा कर भूत को भूलाया है। खुद के बीते अस्तित्व को खो दिया है कहीं। स्वयं को सिर्फ मां के रूप में प्रमुखता देने का कार्य किया है। तमाम रिश्तों में उलझा मां का प्रेम बच्चे की हर एक छोटे संघर्ष को देख सभी रिश्तों की मुठ्ठी से भाग बच्चों तक पहुंचा है। बिखरे बाल अब शैंपू नहीं ढूंढते वो बच्चों की सफाई में गुम हो गए हैं। भूख भी शिशु के रोदन से समाप्त हो जाती है। बच्चों की भूखी, थकी हुई आवाज सुस्त पड़ी फूआ में जान डाल देती है। सड़कों पर फैले कूड़े को देख नाक बंद करने वाली फूआ बच्चों के मल-मूत्र से नहीं घिन्नाती। और यह हर मां अपने बच्चे के लिए करती है। क्योंकि मां को इन सब लम्हों के लिए तैयारी नहीं करनी पड़ती। सारा कुछ प्रकृति प्रदत्त होता है। पिता उसमें शामिल अवश्य होता है परन्तु संपूर्ण समर्पित नहीं। समर्पित होने में पिता मां कि भूमिका में नजर आता है लेकिन यह लगभग असंभव है। और यह असंभव इसलिए है क्योंकि मां की ममता ने हीं उस पिता को पाला है। 
और यह हर नारी करती है जो मां हो जाती है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Tuesday, February 23, 2021

कल्पना

मेरी हल्की कल्पना है। लेकिन कहानी कल्पना की है। सारा जिया हुआ कल्पना का है। महसूस किया हुआ भी। मेरे कुछ शब्द हैं कुछ परिकल्पना है जो मैं यहां लिख रहा हूं। हमारे समाज में चिजें ज्यादा लिखीं नहीं जाती सुनाई जाती हैं लेकिन मुझे लगता है लिखी जानी चाहिए जिसे फिर एकांत में पढ़ा जाना चाहिए। उस पर विचार किया जाना चाहिए।

भारत देश में जन्म से मरण तक हर पड़ाव पर अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं। हर उम्र एक नई व्यवस्थाओं से जुड़ा होता है। हम उस व्यवस्था के लिए तैयार हैं या नहीं यह कोई विशेष प्रश्न नहीं होता। समाज हमें उस व्यवस्था में बांधने के लिए तैयार होता है। और आज भी भारत की जनता ज्याता मात्रा में अपनी नहीं समाज की सुनता है। हमारे जीवन की बहुत से निर्णय समाज लेता है जिसे उम्र की परिधी पर पहुंच सफल बनाया जाता है। हर व्यवस्था कहीं न कहीं उम् से जुड़ी हुई होती है। इसी उम्र की व्यवस्था में कल्पना ने अपने वर्तमान प्रेम से प्रेम विवाह किया था। जिस प्रेम विवाह की समाज में ज्यादा मुखर तौर पर चर्चा नहीं होती लेकिन लोग करते हैं। विवाह अगर ना भी करें तो भी प्रेम अवश्य करते हैं। प्रेम वास्तव में बंधन मुक्त है, नैसर्गिक है इसके लिए हम किसी सीमा में नहीं बांध सकते। लेकिन विवाह बंधन में बांध सकते हैं। कल्पना की शादी हुई। शादी के कुछ दिनों बाद हीं उसने अपने शरीर के सभी जोड़ों पर विशेष प्रकार के दर्द की अनुभूति की। तमाम अस्पतालों के धक्के खाने,अच्छे इलाज और बड़े डाक्टर के नाम पर पैसे गंवाने के बाद सारी बातें साफ हुईं। डाक्टर ने सारे रिपोर्टस को देख चिंता भरे सुर में कहा यह इस्पेटोलाइटीस है इसका कोई इलाज नहीं। आपको इसके साथ जिने की आदत डालनी होगी। शायद आपके परिवार में किसी को यह बिमारी हो। डाक्टर की इन बातों को सुन कल्पना को अवसादों ने घेर लिया उसके आंखों के समक्ष काला अंधेरा सा छाने लगा। मस्तिष्क उस चेहरे को ढूंढने लगा जिससे उसे यह बिमारी भेंट स्वरूप मिली थी। लेकिन ज़बाब हर बार ना रहा। 
कल्पना को चिंता इस बात की नहीं थी कि वह इस बिमारी से ग्रसीत है जिसका कोई इलाज नहीं। डाक्टर ने योग व्यायाम की कहानी गढ़ जिसे जिवन का सहारा बनाया था। उसे चिंता थी अपने आने वाली पीढ़ी की। आने वाले भविष्य की। कल्पना उम्मीद से थी। पर उसकी उम्मीद पर उसके वर्तमान का गहरा संकट था जिसे तमाम प्रयासों के बाद भी नहीं बदला जा सकता। समय बितता गया कल्पना अपने उम्मीद के लहरों में मजबूती से तैरती रहती। प्रतिकूलता को अपने मन से दूर फेंकती रही। आस-पास बैठे बुढ़े-बुजुर्ग यहां तक कि जवान भी उम्मीद लगाते रहे। कल्पना स्वयं को उन तमाम लोगों के उम्मीद के आसपास भी खुद को नहीं पा रही थी। किसी भी महिला के उम्मीद से होने पर समाज पहले हीं लड़के की उम्मीद लगा बैठता है। मैंने किसी को भी आजतक यह कहते नहीं सुना कि लड़की होने वाली है या होगी। लड़का होने वाला है या होगा यह हमेशा से प्रचलन में रहा है। लेकिन इसके जन्मदाता सिर्फ और सिर्फ पंडित और मूर्ख होते हैं जो या तो रटी रटाई बातें करते हैं या अबोध हैं। क्योंकि ज्ञानी कभी भी स्वयं को इस विचार के आसपास नहीं भटकने देता। कल्पना इन सब से परे अपने उम्मीद को फूलों के नाजुक घोंसले पर पालने के सपने देख रही थी। अपने गर्भ से लेकर प्रसव तक के समय को कल्पना ने बड़े हीं कष्टों से झेला था। दर्द की अनैतिक दस्तक को उसने सिर्फ अपने आत्मबल से कम किया। नजदीक मंडराती आंखें उसे दया कि दृष्टि से देखा करते थे लेकिन वो तमाम चिंताओं ने कल्पना का कष्ट हरा ना हीं उसके शारीरिक कष्टों का निवारण किया। उन तमाम लोगों की बातों ने मात्र उसके उम्मीद को ठेस पहुंचाई थी। यहां तक कि दवाइयों ने भी उसके साथ इंसाफ नहीं किया। ऐसी परिस्थिति में दवाइयों का सेवन उसे और भी पीड़ा दे सकता था। मां का हीं ऐसा व्यक्तित्व होता है जिसके लिए मां बनने की नहीं ममतामयी होना ज्यादा आवश्यक होता है। मां हमारे कष्टों को शारिरिकता से कहीं ज्यादा मानसिक रूप से देखती है। जिसे देखने और समझने के लिए आंखों की नहीं भावनाओं की सुमधुर आवश्यकता होती है। वो भावनाएं सिर्फ मां सहेज कर रखती है। अपने हर मिठे स्पर्श में, आंखों की पलकों में। एक मां हीं समझती है उस पीड़ा को जो वह महसूस करती है जिसे वह हर क्षण जिती है। वो जानती है इस सत्य को को उससे कई गुना पीड़ा उसकी उम्मीद,उसकी संतान झेल रही होती है। उम्मीद की सागर में डूबते-निकलते कल्पना ने एक संतान को जन्म दिया। कुछ पंडितों और मूर्खों ने उसे लड़की कह कर नजरों को दीमक लगा लिया। ज्ञानियों ने उसे संतान प्राप्ति का उदगम समझ गले से लगा लिया। और कल्पना.… कल्पना अब भी अलग कल्पना में थी। 
- पीयूष चतुर्वेदी



Sunday, September 13, 2020

"औरत का दुख"

अनेक प्रकार के दुखों में हर रोज डुबकी लगाता है मनुष्य जीवन। पर एक औरत का दुख बाकी सबसे अलग होता है। उन्हीं में से एक है किसी स्त्रि के मां ना बन पाने का दुख। और यह दुख उसके रिश्तेदारों और घर वालों की जिंदगी में भी होता है। जहां एक अपनत्व का अधिकार दिखता है। लेकिन उस से कहीं ज्यादा चिंता की आग में झुलसती है वह स्त्रि जिसका हर पल इस उम्मीद में बीतता है कि कास ऐसा ना होता तो कितना अच्छा होता। समाज में चर्चा का केंद्र बन स्त्रि भागती है सभी अपनों से दूर जो उसे उसकी विपन्नता का अहसास दिलाते हैं।
एक नारी के लिए मां बनना कितना आवश्यक होता है यह सोचने और तय करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि उस स्त्रि पर क्या बीतती होगी जिसने ऐसा सपना तमाम लोगों से पहले बुना था। लेकिन किसी कारण टूट गया। वो सारे लोग बेमतलब की बातों से हर रोज उस सपने को हरा करते हैं। वो बातें और सपनों का हरापन हीं होती है जो और कष्ट देता है। पर इन बातों से लड़ती स्त्रि हर रोज तोड़ती है उन सपनों को। इन सपने के टूटने की कोई आवाज नहीं होती। बस एक चुप्पी होती है जो स्त्रि अपने आंसूओं और दूसरे के तानों से और मजबूत करती जाती है। आंसूओं में गर्माहट में वो भीतर से हर पल जलती है और तानों के कांटों पर हर रात गुजारती है। यह मजबूती उसे कठोर नहीं बनाती शून्य कर जाती है। होंठों पर लंबा मौन और आंखों में धूंधली आशा लिए आसमान को ताकती है। नारी को जिस देश में मां का दर्जा प्रदान किया गया है। जहां मां के महीमा का गुणगान होता है। वह मौन का रूप धारण कर लेता है। यह मौन उसे ऐसी-वैसी औरतों की श्रेणी में धकेलती है। नवाजा जाता है उसे नए रूढ़ीवादी अलंकारों से। यहीं समाप्त होती है उसकी ईश्वर के प्रति आस्था और अपनों के प्रति श्रद्धा।
पुत्र की प्राप्ति होना न होना एक विषय है और उसे होने को एक बड़ी सफलता और उत्सव का कारण मान लेना दूसरी। जिन्हें पुत्र प्राप्ति नहीं होती उसके तो हर कार्य पर घर,समाज और  अपनों की सवालिया नजर होती है। 
प्राप्त न होने के सच को समाज अपनाना हीं नहीं चाहता। कोई स्त्री अपनाने का प्रयास भी करे तो पिंजरे में बंद की हुई वर्षों की आशा को कोई मुक्त कर जाता है।  
क्यों होता है ऐसा? 
मैंने एक बार पढ़ा था कि मंदिर में कृष्ण के साथ देवकी की तस्वीर क्यों नहीं होती? 
देवकी भगवान् कृष्ण की मां थी पर उन्होंने कभी उन्हें पुत्र नहीं माना और यशोदा कृष्ण के बारे में सब जानते हुए भी उन्हें अपना लल्ला हीं मानती रही।
पुत्र ना मान पाने के पिछे देवकी का डर था जो हमेशा उन्हें भगवान मानता रहा। 
और यशोदा के भीतर समुद्र सी अथाह ममता।
मां बनने के लिए जन्म देने से भी आवश्यक है ममता।
जिस किसी के हृदय में ममता है वह मां है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Saturday, June 27, 2020

गरीब मां का आंचल

स्वर्ग से एक बच्चा धरती की ओर चला। गरीब मां के आंचल में आ गिरा। 
उस गरीब मां का आंचल इतना कमजोर हो चुका था, चूल्हे पर भोजन पकाने की तेज आंच से माथे पर जमें पसीने की बूंदों को पोछता हुआ। 
कि नहीं सह सका उसके जीवन का भार। 
बच्चा जा गिरा दूसरी मां के गोद में। 
धरती मां के गोद में। 
वह गरीब मां अब भी अपने बच्चे को,खुद के द्वारा भर मुठ्ठी लिए उन मिट्टी के कणों में पागलों सी ढूंढ रही है।
पर चलता फिरता मिट्टी, मिट्टी में मिलकर मिट्टी हो चुका है।
चूल्हे की गर्म आंच को सहने वाली, धूएं के कारण धूंधली हो पड़ी रोशनी से लड़ने वाली मां गरीबी की आंच नहीं सह पाई। 
अपने आंखों की बची चंद रोशनी लिए अपने बच्चे के बचपन को ना देख पाई। 
एक मां ने स्वर्ग से मिला एक सुंदर उपहार खो दिया। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Sunday, May 10, 2020

ममता से परिपूर्ण हर स्त्री मां का रुप है। मातृ_दिवस_कि_हार्दिक_बधाई

मातृ दिवस

जंगल की भीड़ में एक पेड़ हैं जिसकी छांव में मैं बड़ा हुआ हूं। जिसके फैले हुए जड़ और मुस्कुराते तनें ने हमेशा हर मुश्किल से मेरी रक्षा की है। उसके असिमित प्रेम की गहराई में गोते लगाता मैं अब भी हरा हूं। मैं उसे मां कहता हूं।जिसके अपने बीते कल से आने वाले कल तक के हर पल में मुझे और मेरी खुशियों को सींच कर बड़ा करने का निस्वार्थ भाव छुपा है।

Wednesday, April 8, 2020

"फूआ का जीवन"

फूआ, नहीं सिर्फ फूआ हीं नहीं बहुत कुछ….। ये नाइंसाफी होगी फूआ के साथ क्योंकि उन्होंने ने बहुत से रिश्ते निभाएं है उम्र को मात देते हुए। जिन रिश्तों में मैंने हमेशा प्यार पाया है, भरपूर प्यार, इतना की अगर कोई मुझसे छीनना चाहे तो भी उतना खुद में पाऊंगा जो मेरे लिए सदैव आशिर्वाद का माध्यम बना रहेगा। उनके रिश्ते निभाने के मध्य उम्र की दलीलें कभी जीत नहीं पाईं। उम्र की सीमाओं से ऊपर उठकर कहीं फूआ ने स्वयं को स्थापित किया है। नाम हीं पूजा है। पूजनीय, बंदनीय मेरा लगाव उस स्तर का है जहां मुझे सिर झुकाने के लिए कारण नहीं ढूंढ़ना पड़ता। आपके बारे में जब भी लिखता हूं शब्दों की कमी हर बार हो जाती है। आपका जीवन एक कोरा कागज के समान है वो कागज़ जिस पर लिखने कि कोई सीमा नहीं। मेरे शब्द हर बार हार जाते हैं। उंगलियों में थकान महसूस करता हूं लेकिन मन आनंद से भर जाता है। आज भी लिखते वक्त कोरे कागजों में हर पल कुछ नया जन्म लेता है। हर रोज लिखने बैठा जाए तो प्रतिदिन कुछ ना कुछ नया लिखने को मिले। अंतिम सांस तक। अपनी कहूं तो मैं शब्द के बंधन में आपको कभी नहीं बांध सकता कोरे कागज का अंत मेरे लिए ढूंढना मुश्किल है। मैं बस शब्दों से आपका श्रंगार कर सकता हूं। आपकी तारीफ कर सकता हूं।आपका जीवन समुद्र की तरह हैं।‌ एक छोर से अंतिम छोर तक समान स्वाद लिए। मैं उस स्वाद का परिचय नहीं देना चाहता पर वो स्वाद मुझे पसंद है। समुद्र बनना मेरे लिखने जीतना आसान नहीं होता। बारिश की बूंदों से झरने का रूप फिर पहाड़ों से लड़ती हुई नदी का रूप लिए आज समुंद्र का अस्तित्व है। कुछ ऐसा हीं जीवन आपका है। बचपन से लेकर आजतक की पहाड़ों से आपकी लड़ाई का मैं साक्षी हूं। आपकी आंखों में हर दिन नया ख्वाब होता है। उन ख़्वाबों को पूरा करने की भरपूर कोशिश होती है। उन कोशिशों का नतीजा चेहरे पर साफ नजर आता है। मस्तिष्क पर लकीरों का ना होना भितर की उलझनों से लड़ाई की निशानी है। जो उम्र की बंदिशों को हराते आए हैं। मैं कभी इस मस्तिष्क पर लकीरों की कल्पना नहीं करना चाहता। डोर (दरवाजा) की स्पेलिंग याद करने से लेकर कई दरवाजों को पार करते हुए एक नए रास्ते पर चल पड़ने का सफर आसान नहीं होता। मैं उस सफर की कल्पना आपके आंसूओं में करता हूं। एक ऐसा चरित्र जो मेरे लिए एक शब्द है। जिसकी अलौकिकता में मैं असंख्य परिभाषाएं गढ़ सकता हूं। एक शब्द में मैं आपको सीता से सुसज्जित करना चाहता हूं। उस क्षण तक जब तक मैं रहूं। आज भी मेरे शब्द हार रहे हैं। आपका जीवन, आपका चरित्र स्वयं आप जीत रहीं हैं। आपकी इस जीत में मेरी खुशी है। 

-पीयूष चतुर्वेदी 




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