पहले के दिनों में झरोखा हुआ करता था। पूर्वजों की समझ बढ़ती गई और हमारा जिवन सुविधाजनक होता चला गया। अब खिड़की और रोशनदान दोनों उस व्यवस्था में शामिल हैं। मेरे लिए यह खिड़की #विनोद_कुमार_शुक्ल के प्रसिद्ध उपन्यास #दीवार_में_एक_खिड़की_रहती_थी जैसा है। मैं इस कमरे में बैठा यथार्थ और कल्पना दोनों में किसी को भी किसी पल चुन सकता हूं। यथार्थ का पालन कर हमें जीना होता है और कल्पना में हम अपनी जिंदगी अपने अनुसार जी सकते हैं। कल्पना का आलिंगन यथार्थ के द्वारा भेंट की गई दुखों को हमारे देंह से झाड़ देता है। फिर मां उस यथार्थ को बुहार घर से बाहर फेंक देती है। यह खिड़की ऐसी हीं एक कल्पना है। जैसे कुछ वर्ष पहले पिताजी यथार्थ थे। पिताजी की स्मृति आज भी यथार्थ हैं लेकिन उनका मेरे साथ होना कल्पना। खिड़की की दुनिया पिताजी की गढ़ी हुई है। इसके बाहर की दुनिया मैंने तय की है। मैंने नदी को गांव की प्यास बुझाते देखा।
नदी का बाढ़ देखा।
घरों को डूबता देखा।
सड़कों का विकास देखा।
घरों का टूटना देखा।
लोगों का पलायन देखा।
घरों का निर्माण देखा।
घरों को बसते देखा।
बसे हुए को बिखरते देखा।
जन्म देखा।
मृत्यु देखा।
पेड़ को पत्तों को संज्ञा शून्य होते देखा।
बीज को पेड़ का रूप लेते देखा।
पेड़ों को कटते देखा।
पंक्षियो को भटकते देखा।
घोंसलों के टुकड़े होते देखा।
कटी टहनियों को चिंताओं संग जलते देखा।
पेड़ को मिट्टी बनते देखा।
मिट्टी से खप्पर बनते देखा।
खप्पर से बनें घरों को देखा।
फिर खप्पर टूट गए और ईटों ने स्थान लिया।
ईंट अपने साथ खिड़की लेकर आई।
मैंने खिड़की से बाहर देखा।
खिड़की के बाहर द्वारिका झांक रहा था।
ऐ भैया कुछ दिहूं नहीं....
मैं बाहर की ओर ताकने लगा।
उसकी आवाज से मानों पंक्षियो को उसका घर मिल गया हो। उसने चहकना आरंभ कर दिया है।
बेल के पत्तों की खुशबू उसके शरीर से आ रही थी। उसके होंठ गांव की खुशियों को इकट्ठा कर खिड़की पर छोड़ गए थे। पैरों में लगी मिट्टी जीवन की परिभाषा बता रहे थे। हाथों में एकत्रित नीम के पत्ते अपने साथ ठंडी हवा लेकर आए थे। गंदे मैले कपड़े यह बता रहे थे कि गांव को अभी और बदलना है।
इस बार द्वारिका खिड़की से नहीं झांका। उसने कोई आवाज नहीं लगाई।
बेल का पेड़ सूख गया। पता चला द्वारिका गांव छोड़ चुका है। द्वारिका के जाने से पेड़ सूख गया या पेड़ के सूखने के डर से द्वारिका गांव छोड़कर भाग गया इसका ठीक-ठीक पता लगा पाना मुश्किल है। लेकिन गांव बदल गया है।।
मैं दरवाजे से बाहर निकलकर उसे ढूंढ सकता हूं लेकिन दरवाजे से निकलते हीं यथार्थ जीत जाएगा। और उसके जीतते हीं मैं शून्य हो जाउंगा। खिड़की टूटने से कल्पना बिखर जाएगी। कल्पनाओं को समेटना ईमानदार सरकार चुनने जितना मुश्किल है।
मैं इंतजार करूंगा उसके वापस आने का।
-पीयूष चतुर्वेदी