सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, April 8, 2020

"फूआ का जीवन"

फूआ, नहीं सिर्फ फूआ हीं नहीं बहुत कुछ….। ये नाइंसाफी होगी फूआ के साथ क्योंकि उन्होंने ने बहुत से रिश्ते निभाएं है उम्र को मात देते हुए। जिन रिश्तों में मैंने हमेशा प्यार पाया है, भरपूर प्यार, इतना की अगर कोई मुझसे छीनना चाहे तो भी उतना खुद में पाऊंगा जो मेरे लिए सदैव आशिर्वाद का माध्यम बना रहेगा। उनके रिश्ते निभाने के मध्य उम्र की दलीलें कभी जीत नहीं पाईं। उम्र की सीमाओं से ऊपर उठकर कहीं फूआ ने स्वयं को स्थापित किया है। नाम हीं पूजा है। पूजनीय, बंदनीय मेरा लगाव उस स्तर का है जहां मुझे सिर झुकाने के लिए कारण नहीं ढूंढ़ना पड़ता। आपके बारे में जब भी लिखता हूं शब्दों की कमी हर बार हो जाती है। आपका जीवन एक कोरा कागज के समान है वो कागज़ जिस पर लिखने कि कोई सीमा नहीं। मेरे शब्द हर बार हार जाते हैं। उंगलियों में थकान महसूस करता हूं लेकिन मन आनंद से भर जाता है। आज भी लिखते वक्त कोरे कागजों में हर पल कुछ नया जन्म लेता है। हर रोज लिखने बैठा जाए तो प्रतिदिन कुछ ना कुछ नया लिखने को मिले। अंतिम सांस तक। अपनी कहूं तो मैं शब्द के बंधन में आपको कभी नहीं बांध सकता कोरे कागज का अंत मेरे लिए ढूंढना मुश्किल है। मैं बस शब्दों से आपका श्रंगार कर सकता हूं। आपकी तारीफ कर सकता हूं।आपका जीवन समुद्र की तरह हैं।‌ एक छोर से अंतिम छोर तक समान स्वाद लिए। मैं उस स्वाद का परिचय नहीं देना चाहता पर वो स्वाद मुझे पसंद है। समुद्र बनना मेरे लिखने जीतना आसान नहीं होता। बारिश की बूंदों से झरने का रूप फिर पहाड़ों से लड़ती हुई नदी का रूप लिए आज समुंद्र का अस्तित्व है। कुछ ऐसा हीं जीवन आपका है। बचपन से लेकर आजतक की पहाड़ों से आपकी लड़ाई का मैं साक्षी हूं। आपकी आंखों में हर दिन नया ख्वाब होता है। उन ख़्वाबों को पूरा करने की भरपूर कोशिश होती है। उन कोशिशों का नतीजा चेहरे पर साफ नजर आता है। मस्तिष्क पर लकीरों का ना होना भितर की उलझनों से लड़ाई की निशानी है। जो उम्र की बंदिशों को हराते आए हैं। मैं कभी इस मस्तिष्क पर लकीरों की कल्पना नहीं करना चाहता। डोर (दरवाजा) की स्पेलिंग याद करने से लेकर कई दरवाजों को पार करते हुए एक नए रास्ते पर चल पड़ने का सफर आसान नहीं होता। मैं उस सफर की कल्पना आपके आंसूओं में करता हूं। एक ऐसा चरित्र जो मेरे लिए एक शब्द है। जिसकी अलौकिकता में मैं असंख्य परिभाषाएं गढ़ सकता हूं। एक शब्द में मैं आपको सीता से सुसज्जित करना चाहता हूं। उस क्षण तक जब तक मैं रहूं। आज भी मेरे शब्द हार रहे हैं। आपका जीवन, आपका चरित्र स्वयं आप जीत रहीं हैं। आपकी इस जीत में मेरी खुशी है। 

-पीयूष चतुर्वेदी 




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