सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, April 6, 2020

पेड़ों पर अपना नाम लिख आंऊ

हर बार इनमें खुद को खोने जैसा लगता है। कभी सोचता हूं कुछ पेड़ों पर अपना नाम लिख आंऊ। और जब भी आंऊ उन्हें गहरा बना जांऊ। इतना गहरा जितनी गहरी इसकी जड़ें हैं। उन पर अपना हक जताने के लिए नहीं बस एक पहचान के लिए कि मैं इन्हें देखता था। इन्हें देख खुशी मिलती थी। स्थाई या अस्थाई फर्क नहीं पड़ता बस इन्हें यादों में जगह देना चाहता हूं। मेरा लिखना तो बस मेरा स्वार्थ है। जिसमें मैं अपना जीवन तलाशता हूं। सच कहूं तो डर सा लगता है कि कहीं आने में देरी हुई और किसी ने मेरा लिखा मिटा दिया तो? क्योंकि स्वयं के लिखे में मैं अपनी खुशी ढूंढता हूं। किसी ने छीन लिया तो? एक डर सा बना रहता है मेरे भीतर सब कुछ समाप्त हो जाने का।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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