हर बार इनमें खुद को खोने जैसा लगता है। कभी सोचता हूं कुछ पेड़ों पर अपना नाम लिख आंऊ। और जब भी आंऊ उन्हें गहरा बना जांऊ। इतना गहरा जितनी गहरी इसकी जड़ें हैं। उन पर अपना हक जताने के लिए नहीं बस एक पहचान के लिए कि मैं इन्हें देखता था। इन्हें देख खुशी मिलती थी। स्थाई या अस्थाई फर्क नहीं पड़ता बस इन्हें यादों में जगह देना चाहता हूं। मेरा लिखना तो बस मेरा स्वार्थ है। जिसमें मैं अपना जीवन तलाशता हूं। सच कहूं तो डर सा लगता है कि कहीं आने में देरी हुई और किसी ने मेरा लिखा मिटा दिया तो? क्योंकि स्वयं के लिखे में मैं अपनी खुशी ढूंढता हूं। किसी ने छीन लिया तो? एक डर सा बना रहता है मेरे भीतर सब कुछ समाप्त हो जाने का।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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