सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Wednesday, September 27, 2023

यथार्थ और कल्पना

"स्याही वाला कमरा"
कमरे के रोशनदान से भीतर आती सूर्य की किरणें यथार्थ है।
मैं उस रोशनदान से बाहर झांकता हुआ उस यथार्थ को पा सकूं यह मात्र कल्पना।
खिड़की से भीतर आती ध्रुव तारे की रोशनी यथार्थ है।
मैं उसे लाखों तारों के मध्य ठीक-ठीक पहचानता हूं यह कल्पना। 
सामने पेड़ों पर पंक्षियो की बातें यथार्थ हैं।
मैं उन्हें समझ सकता हूं यह मेरी कल्पना।
मैं यथार्थ हूं।
मेरा जीना, मेरी कल्पना। 
मैं हूं यह यथार्थ है।
मेरा होना, मेरी कल्पना।
-पीयूष चतुर्वेदी

Monday, June 27, 2022

आम को लेकर मेरी यादें गर्मी से ज्यादा गांव से जुड़ी हैं

आम को लेकर मेरी यादें गर्मी से ज्यादा गांव से जुड़ी हैं। गर्मी मेरे स्कूल की छुट्टियां से जुड़ा है। और छुट्टियां आम के बगीचे से। 
खाश तौर पर आम, सीधा मेरे गांव के बागीचे से जुड़ा है। 
बचपन में गांव के कुलबुल बाबा बागीचे की रखवाली करते थे। सभी उन्हें दरोगा जी कहते थे इसलिए नहीं कि वो दरोगा थे। इस कारण की उनके बड़े भाई दरोगा थे और उनके भीतर भी तेवर दरोगा वाले थे। मदिरा सेवन के बाद वो कलेक्टर की भूमिका में आ जाते। जिन लोगों का हिस्सा था उन्हें बराबर आम बांटे जाने की जिम्मेदारी दरोगा बाबा की थी जो कलेक्टर बनकर उसका बराबर बंटवारा करते। किसी के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय ना होने पाए और कहीं से भी असंतोष की गंध आम में ना घुलने पाए। लेकिन आंधी से टूटे आमों का बंटवारा गांव के बच्चे आपस में करते। उस पर कोई कानूनी हस्तक्षेप नहीं हुआ करता था। भोर की आंधी सभी घरों में सुबह तक आम परोस जाती थी। बड़े बाबा अपने बगल में बड़ी संख्या में आम लेकर बैठते और भोजन के बाद गुठलियों के दाम लगाते। मैं उन गुठलियों को गिनता और बागीचा की ओर भाग जाता।
सलईनियां
कलवरिया
तलवरिया
बूढ़वा 
जैसे तमाम नाम वाले आम के पेड़ फलों से लदे रहते थे। उन्हीं के बीच एक जामुन का पेड़ हुआ करता था। अब भी है लेकिन अब लगभग सारे पेड़ बागीचे के बूढ़े हो चुके हैं। उनमें अब सूखी लकड़ियां हीं शेष रह गई हैं। कुछ एक पेड़ हैं जिनसे अचार का आम निकल जाता है। बच्चन सौ रूपया सैकड़ा के दाम पर आम को तोड़ता है और गिर कर फट चुके आम को घर ले जाता है। घर ले जाने का हर वर्ष उसका एक हीं कारण होता है घरे छोट लईकन बड़न, सब तनी घुमउव्वल खईहें नमक और लाल मिर्चा मिलाके , पाना बनावल जाई बड़ी गर्मी पड़त हई। लूह मार देव लई तुरंत धाम धूम के दिन में। अब उसके बच्चे बड़े हो गए हैं लेकिन उसका बहाना अब भी इतना हीं छोटा है। बच्चन का बेटा मेरा छोटा दोस्त है वह भी पेड़ पर चढ़ता है लेकिन आम के नहीं बेल के पेड़ पर। 
जामुन के पेड़ पर कोई नहीं चढ़ता। बच्चन भी नहीं। सभी डरते हैं। मेरा दोस्त नहीं डरता लेकिन वो अभी जामुन के लिए छोटा है। शायद जामुन के पेड़ पर चढ़ने के लिए उसे आम जीतना बड़ा होना पड़ेगा जो थोड़ा चोट सह पाए।
उस डर के पिछे बचपन से मैं एक कहानी सुनता आया हूं। सुशील चाचा कहते थे एक बार हमन छोट में पुरनका घर पर जामुन खाए गईल रही तोर पिताजी चढ़ल रहन पेड़ पर गिर गईलन उनकर हाथ टूट गईल रहे। चाचा अपने बचपन की बात मेरे बचपन में बता रहे थे लेकिन मैं उनके बचपन से हमेशा से अंजान रहा हूं। मेरे पास मेरे पिताजी के बचपन की तस्वीर है जो मैंने उनकी मृत्यु के बाद एल्बम से चुराकर अपने डायरी में रख लिया था। लेकिन चाचा को मैंने जब से देखा है सफेद बालों में हीं देखा है। जैसे बगीचे का बुढ़वा आम, वो अब भी उतना हीं बूढ़ा है जितना १० साल पहले था। एक बार चाचा ने तस्वीर के माध्यम से अपनी जवानी का परिचय मुझसे कराया था। कहा था ओह समय हम मिर्जापुर में रही, पढ़ावत रही, एकदम स्मार्ट फ्रेंच कट दाढ़ी रखत रही उस समय। मैंने उस तस्वीर को अपलक कुछ मिनट देखा इस आस में जहां मैं उनके बचपन के दिनों में बगीचे में पहुंच जाऊं। जहां उनका आम खाना और जामुन तोड़ना देख सकूं लेकिन यह असंभव था। पिताजी का हाथ टूटना पिताजी की तस्वीर से मैंने कल्पना कर लिया था। तस्वीरें हमारे जीवन का झरोखा होती हैं। मैंने उस झरोखों से अक्सर बाहर कूद जाता हूं। सपनों में भटकता हूं फिर वापस आ जाता हूं। 
शायद यहीं कारण है कि मेरे लिए आम गर्मी से नहीं गांव से जुड़ा है।
मुझे लगता है मुझे सच में जामुन खाना था लेकिन पिताजी के गिरने से मेरे मुठ्ठी खाली रह गई। फिर चाचा ने बच्चन को बोला होगा जामुन पर मत चडिंहे ओकर डाली कमजोर होला गिर जईबे। और बच्चन ने उस दिन से आम तोड़ना शुरू कर दिया। अचार वाले आम सौ रूपया सैकड़ा और पके वाले दो सौ रूपया सैकड़ा। आज वहीं आम बाजार में बिक रहे हैं। मेरे गांव के आम, मेरे बगीचे के आम और उन आमों में जामुन की खाश सुगंध सनी होती है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Sunday, May 15, 2022

नदी हो जाऊं


मुझे मात्र उतना मजबूत बनना है कि कोई मुझसे पूछे कैसे हो? और मैं ढ़़ह जाऊं।
फिर सामने खड़ा व्यक्ति मेरे आशुओं को इकट्ठा कर किसी नदी में मिला आए।
मेरा सारा दुख समुद्र में मिल जाए और मैं खाली हो जाऊं। 
फिर द्वारिका मेरे स्याही वाले कमरे की खिड़की से झांकता हुआ मुझसे बोले और भैया का हाल चाल बा? 
और मैं उससे बोलूं अब ठीक हूं। तुम थोड़े बड़े नजर आ रहे हो।
फिर मैं उसमें लिपटे गांव की खुशबू को अपनी नज़र में उतार नदी हो जाऊं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Wednesday, April 27, 2022

रिश्तों की धूल को खिड़की की नहीं घोंसले की जरूरत होती है

घर में घोंसला का होना खिड़कियों के होने से ज्यादा जरूरी होता है।
बनते बिगड़ते घोंसलों को देख घर को संवारे रखने की धूल हमसे चिपकी रहती है। 
रिश्तों की धूल को खिड़की की नहीं घोंसले की जरूरत होती है। खिड़की की जरूरत चिड़िया को है वो भी बिना जाली वाली खिड़की की। हमें दरवाजे की जरूरत है। हम खिड़की से भागेंगे तो चिड़िया बन जाएंगे। चिड़िया दरवाजे से बाहर जाएगा तो इंसान बन जाएगा। चिड़िया को चिड़िया रहना है। इंसान को इंसान। हमें घोंसले से सिखना है और चिड़ियों को घर से।
-पीयूष चतुर्वेदी

Sunday, February 27, 2022

हां, बस इतनी सी शांति है।

बस इतनी सी शांति है। 
कोंपलों की आपस में वार्ता की पहल।
बूढ़े हो चुके पत्तों का प्रतिरोध शून्य होकर पृथ्वी से मिल जाने का संगीत। 
चिड़ियों के चहचहाहट में बेघर हो जाने की वेदना।
ग्रामवासियों के उदर को तृप्त करती चक्की के कुप्प-कुप्प की ध्वनि।
खलिहान में दौरी करते बैलों के गले कि घंटी का स्वर।
किसान के मुख से निकलती हुर्र-हुर्र तत् नन् की पुकार। 
ए हो, का हो से आरंभ होती बहस की आवाज।
मंदिर से उठता शंखनाद। 
हवा की सुरसुरी। 
मेरे पैरो की आवाज। 
मेरे अंतरमन का शोर। 
बाहर का पसरा संगीत।




हां, बस इतनी सी शांति है।
-पीयूष चतुर्वेदी
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Thursday, May 6, 2021

बबूल का पेड़

एक मित्र ने दूसरे से पूछा तुम्हारे गांव में अमलताश का पेड़ है? उसने कहा नहीं, मेरे गांव में बबूल का पेड़ है। फिर तो उस पर पतरंगी चिड़िया नहीं बैठती होगी? उसने कहा पहले कभी गांव में दिख जाती थी अब नहीं दिखती। मेरे गांव में बबूल के पेड़ हैं वो ज्यादा घने नहीं हैं। वो बस खुद से और चिड़ियों के बीट से उग आए हैं। कांटों से भरपूर। 
दूसरे ने कहा फिर उसका क्या उपयोग करते हैं सब? कांटों को निकालकर दातून करते हैं। गरीब लड़के उसके बीज इकट्ठा कर बाजार में किलो के भाव बेचते हैं। गर्मी के दिनों में बच्चे लासा छुड़ाते हैं।
क्या पेड़ का कोई उपयोग नहीं? उसपर चिड़िया नहीं बैठती? 
नहीं-नहीं पेड़ का उपयोग है। वह लड़ाई करने के काम आती है। प्रकृति प्रदत्त पेड़ को सभी अपना बताते हैं। उसे काटते नहीं बस हर नज़र देखते हैं। कभी भूखे के भोजन बनाने के काम और मृत को जलाने के काम आती है लेकिन उसपर चिड़िया का घोंसला नहीं बनता। बस लंबी दूरी तय कर थके हुए पंक्षी टहनियों पर बैठ आराम कर लेते हैं। फिर भी समय-समय पर लोग टहनियां काटते रहते हैं। पंक्षी आराम ना कर सके इस कारण नहीं कुल्हाड़ी की मार से यह मेरा पेड़ है का बोध कराने के लिए। 
तो क्या चिड़ियों का घोंसला तुम्हारे गांव में नहीं है? नहीं मेरे गांव में अमलताश का पेड़ हीं नहीं है। बूढ़े कहते हैं कभी बहुत सारे थे फिर लोगों ने पेड़ों को काटकर घर बनाए और बबूल चिड़ियों के द्वारा भारी मात्रा में उग आए। शायद वो सारे बबूल के पेड़ पतरंगी चिड़िया के प्रतिक हैं। अब लोग बबूल के कांटे दातून से अलग निकालते हैं और अपने दिल में छुपा लेते हैं। 
बबूल सांस तो देगा होगा? 
हां शायद तभी तो हम जिंदा हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Sunday, December 20, 2020

बूढ़ा पेड़ और बूढ़ी औरत

गांव की मुख्य सड़क से मेरे घर को एक कच्ची सड़क जोड़ती है। उस सड़क के किनारे एक बड़ा सा घना चिलबील का पेड़ वर्षों से अपनी छांव देता आया है। बहती तेज हवा के साथ आस-पास के घरों में अपना फल पहुंचाता आ रहा है। 
आज बुढ़े हो चुकी इस पेड़ के नीचे उसकी हल्की धूप छांव में बैठा बचपन को याद कर रहा था। 
उसके मीठे फल के स्वाद के साथ याद आईं कुछ अठखेलियां जो मुझे अब लगती हैं। पहले एक डरावनी कहानी हुआ करती थी। कहानी यह कि उसमें प्रेत का वास है। लोगों को कहते सुना था कि उस पेड़ से काली रात्रि में आती है एक बूढ़ी औरत के रोने की आवाज़। मैंने वह आवाज आज तक कभी नहीं सुनी। शायद कहने वाले ने भी ना सुनी हो। पर ना जाने कितनों को यह किस्सा सुनाया गया है। आज भी कुछ धूंधला सा याद है मुझे जब सड़क पर एक डंडा पिटता में इसके बगल से रात में गुजरा तो उस बूढ़ी औरत के कल्पना मात्र से अपनी सारी ताकत झोंक तेजी से भाग निकला। कोई आवाज नहीं थी बस डर था, कल्पना थी। 
हमेशा से अनेक बच्चों का बचपन ऐसी ना जानें कितनी हीं डरावनी कहानियों के इर्द-गिर्द घूमती है। कभी पागल हाथी तो कभी मुंह नोचवा तो कभी बच्चों को उठाने वाला बेतरतीब बूढ़े आदमी की कहानी लिए तमाम बच्चे बड़े होते हैं। और वह कहानियां अपने हम उम्र में फैलाती जाती हैं। जैसे फैलती है कोई झूठी अफवाह। 
ऐसी न जाने कितनी अफवाहों को साथ लेकर बड़े होते हम उसे सच मान लेते हैं। और वो सच कभी-कभी बड़े डर का रूप लिए हमारे साथ चिपका हुआ फिरता है। शायद तब-तक जब-तक हमारा ज्ञान इस सच से बड़ा नहीं हो जाता। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Monday, October 12, 2020

झूठ

मैंने हर बार झूठ बोला है। 
मैं जितनी भी बार कोशिश करता सच बोलने की। मेरे आस-पास का सारा कुछ बिखर जाता उस सच के बाढ़ में। 
मैंने बार-बार झूठ बोला है। 
जिस हद तक बोल सकता था वहां तक बोला है।
पर यह सारा झूठ मैंने खुद से बोला है। 
मैं हमेशा से एक झूठ के साथ जीता आया।
मैंने झूठ की चादर ओढ़ ली कि कोई दूसरा चैन से सो सके।
इस कल्पना में कि मेरा झूठ बहुत कुछ संभाले हुए है। इस जिद में कि एक रोज सब शांत हो जाएगा।
फिर एक रोज पता चला जो मैं अब तक खुद से बोलते आया वह झूठ नहीं। बस सच का एक समझदार रूप था। जो‌ अब शांत रहने से डरने लगा है।
अब वह सच बाहर आना चाहता है और मैं वापस से कुछ झूठ अंदर लेना चाहता हूं। 
इस बार सच का झूठ भीतर लेना चाहता हूं। सच का समझदार रूप नहीं।
क्योंकि मैं इस सच-झूठ की ऊहापोह में बहुत कुछ बिखरते हुए देख रहा हूं। 
-पीयूष चतुर्वेदी

गांव की नदी

मेरे गांव में एक नदी बहती है।
उसी नदी किनारे एक ऊंचा पहाड़ आकाश से सारे गांव की बातें करता है। बादल उस पहाड़ से खेलते हैं।
जब भी गांव जाता हूं। नदी किनारे अवश्य जाता हूं। मैं पहाड़ को नहीं, नदी देखने जाता हूं। उसके समर्पण को देख उसके साथ बहने जाता हूं। पहाड़ का अभिमान कभी मुझे प्रेरित नहीं कर पाया। मैं नदी में समर्पित हो सकता हूं। पर्वतों में नहीं।
मैं ग्रहण कर सकता हूं नदी बनकर, गहराई को जन्म देकर।
पहाड़ पर जमा सारा ज्ञान कभी टिक हीं नहीं सकता। वो सारा कुछ बहता हुआ नदी में उतरता है। 
पर्वत ग्रहण नहीं कर सकता नदी कर सकती है। नदी करती है।
सूख जाती है कभी-कभी दूसरों के दुश्कर्मोंं से परन्तु सूखना स्थायी नहीं होता।
मैं बहना चाहता हूं।
उस सच के साथ जिसे कोई मिटा नहीं सकता। झूठला नहीं सकता।
बस कुछ समय के लिए उसे सूखाया जा सकता है। परंतु समय की बाढ़ पहाड़ों से उतरती उसे वापस हरा कर देती है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Monday, June 22, 2020

धरती सा

मैं मानों धरती सा। तुम मेरी सूरज बन जाना। 
मैं बंजर जमीन सा मानों। तुम उस पर नदी सी बह जाना। 
मैं शांत पत्तों सा जड़ हुआ। तुम हल्की हवा का झोंका दे जाना। 
मैं पंछी सा दर-दर भटकता हुआ। तुम मुझे अपने, आंचल का सहारा दे जाना। 
मैं मौन हो जाऊंगा उस पल में कहीं। तुम अपने स्पर्श से मुझे चंचल कर जाना।

Sunday, June 14, 2020

मैंने अभी-अभी दुनिया देखी है

मैंने अभी-अभी दुनिया देखी है। मेरा जीवन मुझमें बसा है, मेरे पंखों के आस-पास कहीं। मैं डर रहीं हूं। उन सब से जो घूम रहे हैं मेरे आस-पास कहीं। अभी अपने पंखों पर पूरा विश्वास नहीं। बाकीयों पर जरा भी नहीं। हमेशा नजरें टिकी हुई हैं। घोंसले के आस-पास कहीं। मैं रास्ता भटक गई हूं। मेरी सांसें अटक गई हैं। मैं बेसुध आवाज लगा रहीं हूं। कोई सुन रहा है इसे। मेरे आस-पास कहीं। -


पीयूष चतुर्वेदी

Tuesday, June 9, 2020

कितना और कब तक?

कभी पेड़ भी पूछता होगा... बरसात में अपने साथ मिट्टी को बहा ले जाती नदी से। कितना और कब तक? कितना बचा है मेरा जीवन? नदी उस पल बरसात के मद में चूर कहती होगी, बस कुछ दिन और। इस ज़बाब को सुन पेड़ अपनी जड़ों को कसकर जमीन में गाड़े रखता होगा। उसे मालूम है कि वह सुरक्षित नहीं पर उम्मीद और जज्बा दोनों लिए बैठा रहता होगा। फिर नदी बंध जाती होगी मनुष्य के अहंकार से। पेड़ को हल्की राहत मिलती होगी नदी के अत्याचार से। फिर नदी सूख जाती है। पेड़ अपना बचा हुआ थोड़ा समेटने लगता है। और मनुष्य ?? मनुष्य इंतजार करता है उस पेड़ के गिरने का। या ढूंढने लगता है बहाने उस पेड़ को काटने का। -पीयूष चतुर्वेदी

Saturday, June 6, 2020

थकान

वर्तमान अपनी दिन भर की थकान लिए हर शाम एक पेड़ के नीचे अपने सबसे अच्छे दोस्त भविष्य से मिलने जाता है। जहां वो अपना दिन भर का सारा बिता भविष्य को सुना खुद का मन हल्का करता है। भविष्य मुस्कुराता हुआ बोलता है। बस इतना हीं, मेरे चक्कर में ना पड़ भाई। मेरा कोई भरोसा नहीं। मेरी सुनेगा तो मुझसे मिलने कभी नहीं आएगा। वतर्मान उसके कंधे पर हाथ फेरता अपने पिछे की लगी धुल को झांडते हूए उठता है और अपने बीते को याद कर रात की नींद में खो जाता है। और हां, यह रोज होता है।

Sunday, May 17, 2020

बिल्ली

घर के अंदर से कुछ गिरने की आवाज आई मां ने आंगन में खुद को काम में व्यस्त रखते हुए आवाज लगाई बिल्ल.... बिल्ल भीतर से बिल्ली खिड़की से डाकती हुई बाहर निकली। मैं यह सब छत से देख रहा था।उसे देख मन से आवाज उठी कि हमने ना जाने इसी तरह से कितने नियम बनाए होंगे? हर जानवर के लिए एक अलग शब्द। और जानवर भी उसका अनुसरण करता आदि बन चुका है। क्या हम इंसान सिर्फ सीखाते आए हैं? अपनी सुविधा के अनुसार व्यवस्था बनाते आए हैं? बस वहीं करते गए जो हमें ठीक लगा। लगे हाथ इस कृत्य से स्वयं को जानकार समझ बैठे। और उस झूठी जानकारी की ओश को पूर्ण ज्ञान समझ हमने सिखना बंद कर दिया? बिल्ली के पूर्वजों ने उस बिल्ल... बिल्ल को अब तक संभाले रखा है और आगे भी जारी रहेगा। और हम?? हम अागे भी बिल्ल... बिल्ल... करके स्वयं को जानकार बताते रहेंगे। जानवर ज्ञानी होते जाएंगे और हम जानवर। -पीयूष चतुर्वेदी Https://itspc1.blogspot.com

Friday, May 8, 2020

रात्रि

जुगनू की रोशनी।झींगुर की आवाज।मेंढ़क की टर्र-टर्र।और उसमें खुद को सुनाई देती अपनी सांसे। शांति भरा एक लंबा मौन और गहरी चुप्पी। आकास रूपी अनंत में सुबह का इंतजार करतीं आंखें।यहीं तो सहारा है। घनघोर अंधेरे वाली काल रात्रि का।                                                       -पीयूष चतुर्वेदी

Saturday, April 25, 2020

सुबह

एक सुबह है, जिसे जल्दी है जिम्मेदारी की पगडंडी पकड़ रात के घर जाकर अपनी थकान मिटाने की। एक रात है जिसे जल्दी है नींद के घर पहुंच, चैन की नींद सो जाने की। एक नींद है जिसका लक्ष्य है सपने के घर खुद को टिकाए सपनों में खो जाने की। एक सपना है जिसका साथी मैं हूं। जिसका सपना है मुझे इन सबसे एक साथ मिलाने की।एक सुबह है जो थका हुआ है। एक रात है जो सोया हुआ है। एक नींद है जो खोया हुआ है। एक सपना है जो जागा हुआ इन सब को एक दिशा दे रहा है। एक मैं हूं जो सपना देख रहा हूं और इन सबको एक बस्ते में बंद कर ढोता हुआ हिसाब से खर्च कर रहा हूं। -पीयूष चतुर्वेदी https://itspc1.blogspot.com

प्यास

एक प्यास है मुझमें समुद्र जितना।एक समुद्र है मुझमें नदी जितनी।एक नदी है मुझमें कुआं जीतना। मैं उसी कुएं में डुबकी लगाकर अपनी गलतियां सुधारता हूं।

Friday, April 24, 2020

घर-घर

घर के सबसे नजदीक वाले पुलिया पर या घर के पास के सबसे घने पेड़ के नीचे। गांव में आपको बच्चों की एक टुकड़ी घर-घर खेलते हुए मिल जाएगी। जहां दीवारें नहीं होतीं। आसमान और धरती के मध्य असिमीत दूरी में फैला एक आशियाना होता है। रिश्तों की काल्पनिकता होती है। बचपन में हमने भी यह खेल खेला था। जहां कुछ, पत्तों, दिये, डब्बों, कुछ मिट्टी के बर्तन,और मिट्टी के सहारे इस खेल को प्रारंभ किया जाता है। भोजन बनता है। उसे चखा नहीं जाता। पर बनाने की विधि समान होती है। इन कल्पनाओं में जो खुशी प्राप्त होती है उसका अनुभव मात्र बच्चे हीं कर सकते हैं। आज इन्हें देख बचपन का दिन आंखों में उतर आया। बहुत मजेदार खेल होता है। इतना मजेदार कि एक समय के लिए हम काल्पनिक रिश्तों में खो जाते हैं। और अपने असली घर को भूल जाते हैं। शायद यहीं कारण है कि गांव के बच्चों में आज भी घर के लिए अलग भावना होती है। वो मकान,बंगला, कोठी जैसे शब्दों से अंजान होता है। पर एक सत्य यह भी है कि इस घर-घर के खेल में घर कहीं छीन लिया जाता है। जिम्मेदारीयों की मार शहर की भीड़ में खींच लाती है। वहां घर समाप्त होकर कमरा का रूप ले बैठता है। फिर एक इंतजार होता है घर का। घर आने का। जो त्यौहार या कुछ खास कार्यक्रम में हमें शामिल कर लेता है। लेकिन घर कहीं छूट जाता है। बचपन कहीं कमरे से घर के बीच के रास्तों में गुम हो जाता है। -पीयूष चतुर्वेदी    

Wednesday, April 15, 2020

रोशनी

पुराना है, तब का जब बचपन मुझसे दूर जा रहा था। बचपन के साथ यह भी छूटता गया। इसकी रोशनी ज्यादा नहीं होती थी पर गहरी और एकाग्र होती थी। जहां मिट्टी के तेल से ज्यादा महत्व बाती का होता था। लोग एकाग्र होकर देखते थे। आज आधुनिक आविष्कार के बाद हमनें देखना बंद कर दिया। रोशनी चारों तरफ फैली है पर एकाग्रता समाप्त हो चुकी है। इतनी कम कि हमने खुद को देखना हीं बंद कर दिया। दूर तो बस प्रकाश हीं प्रकाश है, इतना प्रकाश की आंखें चौंधिया जाती हैं। भटकाव ज्यादा है। कुछ समय निकालकर इस एकाग्रता में जीने का प्रयास हम सब को करना चाहिए। एक बार इसके प्रकाश में एकाग्र होकर जरूरत है ख़ुद को देखने का। -पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

Monday, April 6, 2020

पेड़ों पर अपना नाम लिख आंऊ

हर बार इनमें खुद को खोने जैसा लगता है। कभी सोचता हूं कुछ पेड़ों पर अपना नाम लिख आंऊ। और जब भी आंऊ उन्हें गहरा बना जांऊ। इतना गहरा जितनी गहरी इसकी जड़ें हैं। उन पर अपना हक जताने के लिए नहीं बस एक पहचान के लिए कि मैं इन्हें देखता था। इन्हें देख खुशी मिलती थी। स्थाई या अस्थाई फर्क नहीं पड़ता बस इन्हें यादों में जगह देना चाहता हूं। मेरा लिखना तो बस मेरा स्वार्थ है। जिसमें मैं अपना जीवन तलाशता हूं। सच कहूं तो डर सा लगता है कि कहीं आने में देरी हुई और किसी ने मेरा लिखा मिटा दिया तो? क्योंकि स्वयं के लिखे में मैं अपनी खुशी ढूंढता हूं। किसी ने छीन लिया तो? एक डर सा बना रहता है मेरे भीतर सब कुछ समाप्त हो जाने का।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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