गांव की मुख्य सड़क से मेरे घर को एक कच्ची सड़क जोड़ती है। उस सड़क के किनारे एक बड़ा सा घना चिलबील का पेड़ वर्षों से अपनी छांव देता आया है। बहती तेज हवा के साथ आस-पास के घरों में अपना फल पहुंचाता आ रहा है।
आज बुढ़े हो चुकी इस पेड़ के नीचे उसकी हल्की धूप छांव में बैठा बचपन को याद कर रहा था।
उसके मीठे फल के स्वाद के साथ याद आईं कुछ अठखेलियां जो मुझे अब लगती हैं। पहले एक डरावनी कहानी हुआ करती थी। कहानी यह कि उसमें प्रेत का वास है। लोगों को कहते सुना था कि उस पेड़ से काली रात्रि में आती है एक बूढ़ी औरत के रोने की आवाज़। मैंने वह आवाज आज तक कभी नहीं सुनी। शायद कहने वाले ने भी ना सुनी हो। पर ना जाने कितनों को यह किस्सा सुनाया गया है। आज भी कुछ धूंधला सा याद है मुझे जब सड़क पर एक डंडा पिटता में इसके बगल से रात में गुजरा तो उस बूढ़ी औरत के कल्पना मात्र से अपनी सारी ताकत झोंक तेजी से भाग निकला। कोई आवाज नहीं थी बस डर था, कल्पना थी।
हमेशा से अनेक बच्चों का बचपन ऐसी ना जानें कितनी हीं डरावनी कहानियों के इर्द-गिर्द घूमती है। कभी पागल हाथी तो कभी मुंह नोचवा तो कभी बच्चों को उठाने वाला बेतरतीब बूढ़े आदमी की कहानी लिए तमाम बच्चे बड़े होते हैं। और वह कहानियां अपने हम उम्र में फैलाती जाती हैं। जैसे फैलती है कोई झूठी अफवाह।
ऐसी न जाने कितनी अफवाहों को साथ लेकर बड़े होते हम उसे सच मान लेते हैं। और वो सच कभी-कभी बड़े डर का रूप लिए हमारे साथ चिपका हुआ फिरता है। शायद तब-तक जब-तक हमारा ज्ञान इस सच से बड़ा नहीं हो जाता।
No comments:
Post a Comment