सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, December 21, 2020

बिखरता मौन

ज्यादा नहीं कुछ 25 वर्ष पहले जब मैं अबोध था पर था, बस देखता हुआ।  मेरा होना बस मेरे देखने तक सिमीत था। समझने तक नहीं। बड़े कहते हैं गांव से शहर की ओर एक पगडंडी पकड़ लोग जाया करते थे। यातायात की भारी असुविधा थी पर शांति हर कोने से घर में झांकती थी। मैंने कच्ची सड़क पर सफर तय किया है। मेरी समझ की हल्की विकास होने तक एक कच्ची सड़क का निर्माण और उस चलती कुछ एकाध छोटे वाहन मेरे गांव को शहर से जोड़ते थे। मैंने कभी उन सड़कों पर बैलगाड़ी दौड़ते भी देखा है। मैं आज भी इस सड़क किनारे बैठ नजारों को ताकता अपने भीतर मौन को सजाता हूं। जब सारा सजा हुआ मौन मुझे बाहर नजर आने लगता है। शांति जब मेरे भीतर मिठी करवट लेता है तो वह सारा सजा हुआ मौन मैं घर लेकर वापस लौट आता हूं। लेकिन अब सड़क चौड़ी होने लगी है। मौन बिखरने लगा है शांति दूर कहीं हवाओं में उड़ने लगा है। मैं अब भी सड़क किनारे वाहनों के आवागमन के बीच मौन को सजा रहा हूं। पर अब मेरा सजाया हर बार अधूरा है। मैं उस अधूरेपन को लिए घर लौट आता हूं।
-पीयूष चतुर्वेदी

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