पुराना है, तब का जब बचपन मुझसे दूर जा रहा था। बचपन के साथ यह भी छूटता गया। इसकी रोशनी ज्यादा नहीं होती थी पर गहरी और एकाग्र होती थी। जहां मिट्टी के तेल से ज्यादा महत्व बाती का होता था। लोग एकाग्र होकर देखते थे। आज आधुनिक आविष्कार के बाद हमनें देखना बंद कर दिया। रोशनी चारों तरफ फैली है पर एकाग्रता समाप्त हो चुकी है। इतनी कम कि हमने खुद को देखना हीं बंद कर दिया। दूर तो बस प्रकाश हीं प्रकाश है, इतना प्रकाश की आंखें चौंधिया जाती हैं। भटकाव ज्यादा है। कुछ समय निकालकर इस एकाग्रता में जीने का प्रयास हम सब को करना चाहिए। एक बार इसके प्रकाश में एकाग्र होकर जरूरत है ख़ुद को देखने का। -पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Wednesday, April 15, 2020
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