घर के सबसे नजदीक वाले पुलिया पर या घर के पास के सबसे घने पेड़ के नीचे। गांव में आपको बच्चों की एक टुकड़ी घर-घर खेलते हुए मिल जाएगी। जहां दीवारें नहीं होतीं। आसमान और धरती के मध्य असिमीत दूरी में फैला एक आशियाना होता है। रिश्तों की काल्पनिकता होती है। बचपन में हमने भी यह खेल खेला था। जहां कुछ, पत्तों, दिये, डब्बों, कुछ मिट्टी के बर्तन,और मिट्टी के सहारे इस खेल को प्रारंभ किया जाता है। भोजन बनता है। उसे चखा नहीं जाता। पर बनाने की विधि समान होती है। इन कल्पनाओं में जो खुशी प्राप्त होती है उसका अनुभव मात्र बच्चे हीं कर सकते हैं। आज इन्हें देख बचपन का दिन आंखों में उतर आया। बहुत मजेदार खेल होता है। इतना मजेदार कि एक समय के लिए हम काल्पनिक रिश्तों में खो जाते हैं। और अपने असली घर को भूल जाते हैं। शायद यहीं कारण है कि गांव के बच्चों में आज भी घर के लिए अलग भावना होती है। वो मकान,बंगला, कोठी जैसे शब्दों से अंजान होता है। पर एक सत्य यह भी है कि इस घर-घर के खेल में घर कहीं छीन लिया जाता है। जिम्मेदारीयों की मार शहर की भीड़ में खींच लाती है। वहां घर समाप्त होकर कमरा का रूप ले बैठता है। फिर एक इंतजार होता है घर का। घर आने का। जो त्यौहार या कुछ खास कार्यक्रम में हमें शामिल कर लेता है। लेकिन घर कहीं छूट जाता है। बचपन कहीं कमरे से घर के बीच के रास्तों में गुम हो जाता है। -पीयूष चतुर्वेदी
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Friday, April 24, 2020
घर-घर
घर के सबसे नजदीक वाले पुलिया पर या घर के पास के सबसे घने पेड़ के नीचे। गांव में आपको बच्चों की एक टुकड़ी घर-घर खेलते हुए मिल जाएगी। जहां दीवारें नहीं होतीं। आसमान और धरती के मध्य असिमीत दूरी में फैला एक आशियाना होता है। रिश्तों की काल्पनिकता होती है। बचपन में हमने भी यह खेल खेला था। जहां कुछ, पत्तों, दिये, डब्बों, कुछ मिट्टी के बर्तन,और मिट्टी के सहारे इस खेल को प्रारंभ किया जाता है। भोजन बनता है। उसे चखा नहीं जाता। पर बनाने की विधि समान होती है। इन कल्पनाओं में जो खुशी प्राप्त होती है उसका अनुभव मात्र बच्चे हीं कर सकते हैं। आज इन्हें देख बचपन का दिन आंखों में उतर आया। बहुत मजेदार खेल होता है। इतना मजेदार कि एक समय के लिए हम काल्पनिक रिश्तों में खो जाते हैं। और अपने असली घर को भूल जाते हैं। शायद यहीं कारण है कि गांव के बच्चों में आज भी घर के लिए अलग भावना होती है। वो मकान,बंगला, कोठी जैसे शब्दों से अंजान होता है। पर एक सत्य यह भी है कि इस घर-घर के खेल में घर कहीं छीन लिया जाता है। जिम्मेदारीयों की मार शहर की भीड़ में खींच लाती है। वहां घर समाप्त होकर कमरा का रूप ले बैठता है। फिर एक इंतजार होता है घर का। घर आने का। जो त्यौहार या कुछ खास कार्यक्रम में हमें शामिल कर लेता है। लेकिन घर कहीं छूट जाता है। बचपन कहीं कमरे से घर के बीच के रास्तों में गुम हो जाता है। -पीयूष चतुर्वेदी
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मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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