सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, October 12, 2020

गांव की नदी

मेरे गांव में एक नदी बहती है।
उसी नदी किनारे एक ऊंचा पहाड़ आकाश से सारे गांव की बातें करता है। बादल उस पहाड़ से खेलते हैं।
जब भी गांव जाता हूं। नदी किनारे अवश्य जाता हूं। मैं पहाड़ को नहीं, नदी देखने जाता हूं। उसके समर्पण को देख उसके साथ बहने जाता हूं। पहाड़ का अभिमान कभी मुझे प्रेरित नहीं कर पाया। मैं नदी में समर्पित हो सकता हूं। पर्वतों में नहीं।
मैं ग्रहण कर सकता हूं नदी बनकर, गहराई को जन्म देकर।
पहाड़ पर जमा सारा ज्ञान कभी टिक हीं नहीं सकता। वो सारा कुछ बहता हुआ नदी में उतरता है। 
पर्वत ग्रहण नहीं कर सकता नदी कर सकती है। नदी करती है।
सूख जाती है कभी-कभी दूसरों के दुश्कर्मोंं से परन्तु सूखना स्थायी नहीं होता।
मैं बहना चाहता हूं।
उस सच के साथ जिसे कोई मिटा नहीं सकता। झूठला नहीं सकता।
बस कुछ समय के लिए उसे सूखाया जा सकता है। परंतु समय की बाढ़ पहाड़ों से उतरती उसे वापस हरा कर देती है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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