मैंने हर बार झूठ बोला है।
मैं जितनी भी बार कोशिश करता सच बोलने की। मेरे आस-पास का सारा कुछ बिखर जाता उस सच के बाढ़ में।
मैंने बार-बार झूठ बोला है।
जिस हद तक बोल सकता था वहां तक बोला है।
पर यह सारा झूठ मैंने खुद से बोला है।
मैं हमेशा से एक झूठ के साथ जीता आया।
मैंने झूठ की चादर ओढ़ ली कि कोई दूसरा चैन से सो सके।
इस कल्पना में कि मेरा झूठ बहुत कुछ संभाले हुए है। इस जिद में कि एक रोज सब शांत हो जाएगा।
फिर एक रोज पता चला जो मैं अब तक खुद से बोलते आया वह झूठ नहीं। बस सच का एक समझदार रूप था। जो अब शांत रहने से डरने लगा है।
अब वह सच बाहर आना चाहता है और मैं वापस से कुछ झूठ अंदर लेना चाहता हूं।
इस बार सच का झूठ भीतर लेना चाहता हूं। सच का समझदार रूप नहीं।
क्योंकि मैं इस सच-झूठ की ऊहापोह में बहुत कुछ बिखरते हुए देख रहा हूं।
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