सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, October 21, 2020

सेवक

गांव-गांव , गली-गली... जहां देखो खलबली मची है। 
माहौल के अनुसार सेवकों की संख्या में आश्चर्य रूप से वृद्धि हुई है। अब जीतने सेवक पैदा हो रहें हैं... सभी प्रधान बनने की दौड़ में अपना हर दिन गुजार रहे हैं। वहां कोई सेवक है जो प्रधान है। 
तो वहीं दूसरी जगह एक प्रधान है जो सेवक है। 
अंतर बस सेवक प्रधान और प्रधान सेवक का है।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। सेवा के नाम पर सत्ता में आना आजादी के पहले से चला आ रहा है। एक समय देश ने प्रथम सेवक को भी देखा है। किसान को भी देश ने सेवा का अवसर प्रदान किया लेकिन इन‌ सब राजनीतिक दांव-पेंच के मध्य बस परिवर्तन नजर नहीं आता। जैसे कुछ दिनों पहले देश में चौकीदारों की संख्या अनंत को छूने दौड़ी थी। लेकिन ना अपराध कम हुए ना परिवर्तन हुआ। एक समय के लिए मैं डर गया था कि कहीं पुराने चौकीदारों की नौकरी कोई लेपेट ना बैठे। परंतु ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ। देश के विषय में पता नहीं पर चौकीदारों के विषय में कुछ अच्छा हुआ। 
कुछ चौकीदारों की नौकरी बच गई कुछ को सत्ता मिल गई। 
अब बारी सेवकों की है। देखते हैं किसके हाथ क्या लगता है। 
क्योंकि मेरे लिए यह समझना बड़ा मुश्किल है कि अब तक देश में कौन किसकी सेवा करता आया है। 
जिसने किया है वह कभी बोल नहीं पाया और जिसने बोला उसने कभी किया नहीं। 
इसी उहापोह में कर्ता ने कर्म को हमेशा पिछे छोड़ अपना जंग लगा हुआ ताला खोला है। 
पर कोई इन दोनों से अलग बैठा है। पसीना पोंछता भीड़ भरी पंक्ति में अपनी ऊंगली रंगवाने के लिए। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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