सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, February 27, 2022

हां, बस इतनी सी शांति है।

बस इतनी सी शांति है। 
कोंपलों की आपस में वार्ता की पहल।
बूढ़े हो चुके पत्तों का प्रतिरोध शून्य होकर पृथ्वी से मिल जाने का संगीत। 
चिड़ियों के चहचहाहट में बेघर हो जाने की वेदना।
ग्रामवासियों के उदर को तृप्त करती चक्की के कुप्प-कुप्प की ध्वनि।
खलिहान में दौरी करते बैलों के गले कि घंटी का स्वर।
किसान के मुख से निकलती हुर्र-हुर्र तत् नन् की पुकार। 
ए हो, का हो से आरंभ होती बहस की आवाज।
मंदिर से उठता शंखनाद। 
हवा की सुरसुरी। 
मेरे पैरो की आवाज। 
मेरे अंतरमन का शोर। 
बाहर का पसरा संगीत।




हां, बस इतनी सी शांति है।
-पीयूष चतुर्वेदी
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