बस इतनी सी शांति है।
कोंपलों की आपस में वार्ता की पहल।
बूढ़े हो चुके पत्तों का प्रतिरोध शून्य होकर पृथ्वी से मिल जाने का संगीत।
चिड़ियों के चहचहाहट में बेघर हो जाने की वेदना।
ग्रामवासियों के उदर को तृप्त करती चक्की के कुप्प-कुप्प की ध्वनि।
खलिहान में दौरी करते बैलों के गले कि घंटी का स्वर।
किसान के मुख से निकलती हुर्र-हुर्र तत् नन् की पुकार।
ए हो, का हो से आरंभ होती बहस की आवाज।
मंदिर से उठता शंखनाद।
हवा की सुरसुरी।
मेरे पैरो की आवाज।
मेरे अंतरमन का शोर।
बाहर का पसरा संगीत।
हां, बस इतनी सी शांति है।
-पीयूष चतुर्वेदी
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