गांव में अब भीड़ कम दिखती है।
भीड़ हीं नहीं जरूरत की हर वस्तु कम दिखती है।
रंग बिरंगे फूल भी सूख गए हैं।
फलदार वृक्षों में दीमक लगने लगी है।
बेर,बबूल और परास के पेड़ सबसे अधिक उग आए हैं।
परास के पत्तों से बच्चे आज भी अपने खिलौने बनाते हैं। आज भी की जिक्र इसलिए क्योंकि हम भी बनाया करते थे।
बबूल के पेड़ का बीज गरीब बच्चे बाजार में किलो के भाव बेच आते हैं। उससे निकलने वाला तरल पदार्थ लाशा वो स्वाद लेकर खा जाते हैं। कभी-कभी अपनी फटी पुस्तकों को चिपकाने के लिए भी।
बेर के फल सभी साथ मिलकर खाते हैं। परंतु वहां भी लड़ाई उपस्थित रहती है मिठे बेरों की।
खिलाने के लिए नहीं खाने के लिए। अब गांव में राम और शबरी नहीं मिलते। सिर्फ बेर मिलते हैं।
देश में भी सिर्फ रामराज्य की भाषणबाजी होती है। राम हीं नहीं अब तमाम देवी-देवता लोगों के सपनों में आते हैं।
लेकिन सपनों में आना और हकीकत में आना दोनों अलग-अलग बातें होती हैं। सपने में अमेरिकी को देखा जा सकता है लेकिन जाया नहीं जा सकता। जाने के लिए सच का होना जरूरी है।
बेर और बबूल में कांटे होते हैं यह सच है।
फिर बेर और बबूल के कांटों का उपयोग एक दूसरे को चुभाने के उपयोग में करते हैं।
परास के पत्तों से अबोध खेलते हैं शायद इसलिए उसमें कांटे नहीं है। बुद्धिमानों ने सिर्फ कांटों को जन्म दिया है।
उन कांटों के चुभने पर रक्त नहीं बहता बस इंसान ढ़ह जाता है। जैसे पुरानी जर्जर इमारतें।
फिर ढ़हा हुआ इंसान एक रोज ईश्वर को प्राप्त कर लेता है।फिर बबूल और बेर के लकड़ियों का इस्तेमाल उन्हें अग्नि भेंट करने के लिए किया जाता है।
-पीयूष चतुर्वेदी
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