सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, December 13, 2024

सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां?
कानेपुर ना?

हां,बाबा। 

हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना?

हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल? 

का पता हो, कानपुर रहे।

हां लेकिन कानपुर तो बहुत बड़ा बा। उससे काफी गांव और कस्बा लगल बा। 

हमन बचपन में किताब में पढ़ले रही हो कि.. रमेश के पापा कानपुर में रहते हैं। कानपुर बहुत बड़ा शहर है। रमेश कानपुर से गांव घूमने को आया।
नदी में नहाया।
बग़ीचे में फल तोड़ा।
और कथी त माय सब लिखल रहई। अब देख तोहन कानपुर में रहल।
बाबा ने शायद कभी ध्यान नहीं दिया होगा लेकिन वो हर बार मिलने के बाद यहीं समान कस्सा अपने यादों के दीरखा से बाहर निकालते हैं। पहले के किस्से बंगाल से जुड़े हुए हुआ करते थे। 

जीने के बहुत से तरीके हो सकते हैं। 
बाबा के किताब में पढ़ें हुए शहर को मैं जी रहा हूं और मेरे जिए हुए को वो मेरी ज़बाब में देख रहे हैं। 

मेरे साथ वो कानपुर को देखते हैं। किसी दूसरे शहर में थकते आदमी से वो मिलते होंगे तो उस शहर को जीने लगते होंगे। 
जिस रोज शहर से गांव आना लोग बंद कर देंगे, गांव जिंदा हो जाएगा और शहर.. शहर शांत। 
अभी गांव में कस्बों से आती हुई उम्मीद की थकान है। धीरे-धीरे शहर का बुढ़ापा गांव को निगल जाएगा। 
फिर एक सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी। 
मकानों के जंगल में सजाए हुए दीवार नदी का पानी सोंख लेंगी। 

#अरविंद_बाबा

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