सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, February 26, 2022

बदलाव




नज़रें वहीं ढूंढती है जो हमने पहले कभी देखा था। पुराना जिया हुआ आंखों पर मंडराने लगता है। शहर तो हर रोज बदलता है। उसे बदलने की खबर वहां रहने वाले लोगों को होती है फिर भी उन्हें बदलाव नजर नहीं आता। बदलाव नजर आता है ठहराव के बाद। समयांतराल के बाद। धीरे-धीरे घटती घटनाएं कब हमारा दिनचर्या बन जाती हैं हमें खबर तक नहीं लगती। या उसी शहर में रहने पर वहां की खबरों से अंजान रखने की चालाकी हमें आसपास से दूर कर देती है। यह भी कारण हो सकता है। आजकल तो यह चलन में है। कानपुर में दिल्ली की खबर चलती है जैसे भारत में पाकिस्तान की। ऐसा ही एक शहर था इलाहाबाद। यहां की कुछ स्मृतियां हैं मेरी। बहुत दिनों बाद देखने पर सारा घटा हुआ घटनाओं सा लग रहा है। दिनचर्या का कोई स्थान नहीं। अब मैं यहां की सड़कों पर हर सुबह नहीं निकलता। आज दूर से हीं देखा। बहुत कुछ बदल चुका है। नई दुकानों ने जगह को और छोटा कर लिया है। शायद अगले कुंभ में उन्हें हटा दिया जाए। स्टेशनों पर भीड़ कम दिखती है शायद भीड़ रैलियों में गई होगी या महामारी की त्रासदी ने उन्हें घर में कैद कर दिया होगा। मैं भी ट्रेन में कैद रहा। दरवाजे बंद हो जाएंगे की लगातार घोषणा ने मुझे निचे उतरने से रोक लिया। जो अपनों को ट्रेन में छोड़ने आए थे वह भी ट्रेन के भीतर प्रवेश नहीं कर सके। शायद उन्होंने भी यहीं घोषणा सुन ली होगी। मैं यह बदलाव देख थोड़ा मायूस हुआ लेकिन लोगों का डर देख मन को शांति मिली। शांति इस बात की कि और भी लोग हैं जिन्हें दरवाजा बंद होने का डर है। लेकिन दरवाजा बंद होने के बाद एक और घटना घटी। वह यह कि ट्रेन चल पड़ी। बदलाव फिर हुआ। आगे चलकर एक बोर्ड दिखा जिसे देख समाचार पत्रों की मुख्य लाइन याद आई "इलाहाबाद अब प्रयागराज हो गया है"।

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