हमारा जन्म वास्तव में लड़ने के लिए होता है। दोस्ती का हम मात्र नाटक करते हैं।
नाटक इसलिए की हमें कोई जानवर ना कह सके।
दो पैर और चार पैर वालों के मध्य अंतर बरकरार रहे।
व्यवहारिक विपन्नता की संपन्नता को विक्षुब्ध सोच से सदैव हराया है।
सामाजिकता की ओस में दानवता के जीवंत बाढ़ को छुपाने के लिए।
लेकिन हमारे झूठ का बादल फट जाता है और सारा पानी हमारे घर में प्रवेश कर जाता है।
फिर हम पेड़ों की टहनियों को पकड़े ऊंचाई की ओर भागते हैं।
कोई जरूरतमंद आकर उन टहनियों को काट ले जाता है। हम फिर बहते हुए चले जाते हैं शून्य की ओर।
-पीयूष चतुर्वेदी
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