सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Showing posts with label जीवन. Show all posts
Showing posts with label जीवन. Show all posts

Thursday, February 10, 2022

शून्य की ओर


हमारा जन्म वास्तव में लड़ने के लिए होता है। दोस्ती का हम मात्र नाटक करते हैं।  
नाटक इसलिए की हमें कोई जानवर ना कह सके।
दो पैर और चार पैर वालों के मध्य अंतर बरकरार रहे।
व्यवहारिक विपन्नता की संपन्नता को विक्षुब्ध सोच से सदैव हराया है।
सामाजिकता की ओस में दानवता के जीवंत बाढ़ को छुपाने के लिए। 
लेकिन हमारे झूठ का बादल फट जाता है और सारा पानी हमारे घर में प्रवेश कर जाता है।
फिर हम पेड़ों की टहनियों को पकड़े ऊंचाई की‌ ओर भागते हैं। 
कोई जरूरतमंद आकर उन टहनियों को काट ले जाता है। हम फिर बहते हुए चले जाते हैं शून्य की ओर।
-पीयूष चतुर्वेदी

Thursday, November 25, 2021

सत्य

मेरे लिए प्रभात एक संदेश लेकर आता है।
देश,शहर,गली से जुड़ी तमाम जानकारी।
यह सब किसी कागज पर लिखा नहीं होता ना हीं किसी पोस्टर पर सरकारी वादों सा चमकता है। ना बिकी हुई खबरों के जैसा अखबारों पर चमकता है।
सारा कुछ एक व्यक्ति के मुख से बिना किसी रूकावट आस-पास फैलता रहता है। वो आवाज़ स्वयं अपना राह तय करता है। सुनने वाले सुनते हैं बाकी अपनी राह चल पड़ते हैं। 
अंगिठी के सामने बैठा बड़बड़ाता हुआ वृद्ध अपनी धुन में सच्चाई को वाचता है। शब्दों की लकीर दूर से दूर तक पहुंचती है। मानों उसने शून्य को प्राप्त कर लिया हो। 
जैसे जीवन को इतने करीब से देखा हो जहां मृत्यु के लिए स्थान न बचा हो। जैसे यथार्थ के सभी झूठ को विष की भांति स्विकार कर लिया हो और सत्य धारा प्रवाह आकाश में हवाओं सी घुल रही हो।
-पीयूष चतुर्वेदी

Friday, February 12, 2021

"इंसान और हम"

कितनी खूबसूरत रही होगी धरती।
जब यहां स्वच्छ नदी पत्थरों से लड़ती हुई चंचल धारा लिए बहती थी। अपने भीतर जल छुपाए बादल उड़ते थे। सूरज उन‌ बादलों से निचे झांकता हुआ हर सुबह लोगों जगाता था। बहु घने पेड़ थे जो जिवन देते थे। चांद की चमक में लोग लाखों सपनें बुनते थे। रंग बिरंगे पक्षी की मधुर संगीत में अपने सपने चुनते थे। छोटी हरी घासों पर पड़ी ओश की बूंदें आंखों में चमक लातीं थी। जब इस धरती पर केवल इंसान थे। 
फिर अचानक से यहां अलग-अलग धर्मों के लोग बसने लगे। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन,बुद्ध जैसे तमाम..... कुछ ने तिलक लगाया किसी ने चादर ओढ़ ली। कुछ ने पगड़ी पहना तो किसी ने वस्त्र हीं त्याग दिया। जिस रोज से इन्होंने बसना आरंभ किया इंसान विलुप्त होते चले गए। इंसानियत आज भी बादलों में छुपी बैठी है जो कभी-कभी बरसती है। वो समाते चले गए स्वच्छ निले आकाश को ताकते उसी खूबसूरत धरती में। उनके आंसू आज भी नदियों में शामिल हैं जो हमारा पोषण कर रहीं हैं। उनका क्रोध आज भी उग्र सूरज की तपती रोशनी से हमें जला रही है। गुनगुनाती पंक्षिया अब शांत हैं मानों किसी ने उनकी हत्या कर दी हो। वो गुदगुदाती हरी घास अब पथरीली हो गई है। वहां नंगे पांव चल पाना मुश्किल हो गया है। पेड़ों को काटकर हमनें दरवाजे बना लिए हैं और उसमें खुद को कैद कर लिया है जहां बहुतों का दम घुट रहा है। .....और चांद?... चांद अब भी सब ताक रहा है वो रात भर हमें देखता है फिर सुबह जाता है इंसानों से मिलने। उन्हें हमारी खबर देने। वो हर रोज इस बात की पुष्टि करता है कि अब धरती पर इंसान नहीं रहते। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Thursday, December 24, 2020

नदी और आकाश

आसमान हर पल बदलता है। वह दूसरे पल पहले जैसा कभी दोबारा नजर नहीं आता। बादल हर रोज तितली बनकर उड़ता है। पक्षियां बादलों में लुक्का छुप्पी का खेल खेलती हैं। बादल हारी हुई लड़ाइयां लड़ता है पर्वतों से। हवाओं में तैरता है। मैं आकाश का बदलना किसी मुंडेर पर खुद को टिकाए हर रोज देखता हूं।
मुझे आसमान का बदलना हमेशा से पसंद है। नदी भी हर दिन बदलती है लेकिन नदी को बदलते हुए देखने का संयम मुझमें हमेशा से नहीं रहा। और अब भी अपना सारा संयम आकाश में उड़ते पंछियों में गुम होते देखता हूं। नदी किनारे जाकर मैं मात्र कुछ चिकनी पत्थरों को पानी पर फ़ेंक तैराता हूं और कुछ पत्थरों को जेब में रखकर घर वापस चला आता हूं। 
परंतु आकाश में बादलों को उड़ता देख मेरे भीतर का छुपा एक पक्षी बार-बार उड़ने को होता है।
इस ऊहापोह में मैं हर रोज पक्षी बनता हूं और नदी का पानी चख आकाश में उड़ता अपने मुंडेर पर वापस बैठ जाता हूं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Monday, May 25, 2020

जीवन का दोस्त था अनुभव

Sunday, April 12, 2020

रेखाएं

हमारे जीवन में रेखाएं अपना खेल बड़े आनंद से खेलती हैं।‌ और इसका अहसास हमें तब होता है जब हम थक चुके होते हैं। वो थकान एक दिन में पैदा नहीं होती वो थकान स्थायी होती है। जो आराम करने पर दूर नहीं होती। तब मानों हम बूढ़े हो जाते हैं।बचपन में जो लकीरें हमारे हाथों में हमारा भविष्य बताने में लगीं रहतीं हैं। जिसे देख पंडित हमारे सपने संवारते हैं वो समय के साथ हमारे चेहरे पर अपना घर बनाने लगती हैं। चेहरे पर अजीब सी रेखाओं का बनना हमारे बूढा़पे की निशानी होती है। तब हमें अहसास होता है कि हम थक चुके हैं।‌ हमारे बची हुई जिंदगी पर रेखाएं पहरा डाल देती हैं। हमारा आने वाला कल उन रेखाओं पर निर्भर होता जाता है। उन रेखाओं को देख सामने वाले भी हमें बूढ़ा मान बैठते हैं। पर ऐसा कहना हमारी भूल होगी। हमारे जीवन में रेखाओं का अपना अलग संघर्ष होता है और हमारा उन पर कभी नजर हीं नहीं जाता। उन रेखाओं के संघर्ष में हमारा संघर्ष छिपा होता है। हमारे मेहनत की रेखाएं भी चेहरे पर साफ नजर आती हैं। लेकिन हमसब बचपन से उनमें अपना भविष्य, अच्छा,भला खोजने में लगे रहते हैं। कुछ रेखाओं की स्थिति बदलती है तो हमें हमारा भविष्य भी बदलता नजर आने लगता हो मानों। लेकिन वो रेखाएं अपनी चाल चल रही होती हैं जो नियत है उनमें हमारा कोई भविष्य निहित नहीं होता। उनमें हमारा वर्तमान होता है और हम उसे हर बार ना अपनाने की भूल कर बैठते हैं। पर मैं सिर्फ वर्तमान में मानता हूं। सच कहूं तो रेखाएं अपना स्थान बदलतीं हैं।‌ हमें अहसास दिलाना चाहतीं हैं हमारे बड़े होने का। लेकिन हम उलझे रहते हैं उन रेखाओं के खेल में और जब चेहरे पर रेखाओं के जाल के मध्य हंसी धुंधली पड़ जाती है, कमर में हल्के दर्द के साथ सिहरन पैदा होती है तो हम हार चुके होते हैं। ना सिर्फ खुद से उन रेखाओं से भी। और हमारे अंतिम सांस लेते हीं वो रेखाएं जीत जाती हैं। इससे साफ नजर आता है कि हम जीवन के उस दौड़ में शामिल होते हैं जहां हमारी हार निश्चित होती है। रेखाओं का उम्र से कोई वास्ता नहीं, रेखाओं का वास्ता संघर्ष से होता है जिसमें रेखाओं का जीतना हीं सत्य है। जरूरत है उन रेखाओं में जीने का ना कि उनमें भविष्य खोजने का। -पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

Saturday, October 26, 2019

कारण


बिना कारण मैं कारण बन गया। हिस्सों से किस्सों का किनारा बन गया। चाहत और आहत की दूरी कुछ यूं कम हुई। मैं किसी के सहारे से नकारा बन गया। अतिविश्वास से विश्वास फिर विश्वास से नफरत का पैमाना बन गया। मुझे तलाश नहीं किसी की, अपने नजरों में नजारा हूं। पर नाराज़ हूं खुद से जो नजारों को देख न सका। .. हिस्सों से किस्सों का किनारा बन गया।

Popular Posts

सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा।  हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल?  का पता हो,...