हमारे जीवन में रेखाएं अपना खेल बड़े आनंद से खेलती हैं। और इसका अहसास हमें तब होता है जब हम थक चुके होते हैं। वो थकान एक दिन में पैदा नहीं होती वो थकान स्थायी होती है। जो आराम करने पर दूर नहीं होती। तब मानों हम बूढ़े हो जाते हैं।बचपन में जो लकीरें हमारे हाथों में हमारा भविष्य बताने में लगीं रहतीं हैं। जिसे देख पंडित हमारे सपने संवारते हैं वो समय के साथ हमारे चेहरे पर अपना घर बनाने लगती हैं। चेहरे पर अजीब सी रेखाओं का बनना हमारे बूढा़पे की निशानी होती है। तब हमें अहसास होता है कि हम थक चुके हैं। हमारे बची हुई जिंदगी पर रेखाएं पहरा डाल देती हैं। हमारा आने वाला कल उन रेखाओं पर निर्भर होता जाता है। उन रेखाओं को देख सामने वाले भी हमें बूढ़ा मान बैठते हैं। पर ऐसा कहना हमारी भूल होगी। हमारे जीवन में रेखाओं का अपना अलग संघर्ष होता है और हमारा उन पर कभी नजर हीं नहीं जाता। उन रेखाओं के संघर्ष में हमारा संघर्ष छिपा होता है। हमारे मेहनत की रेखाएं भी चेहरे पर साफ नजर आती हैं। लेकिन हमसब बचपन से उनमें अपना भविष्य, अच्छा,भला खोजने में लगे रहते हैं। कुछ रेखाओं की स्थिति बदलती है तो हमें हमारा भविष्य भी बदलता नजर आने लगता हो मानों। लेकिन वो रेखाएं अपनी चाल चल रही होती हैं जो नियत है उनमें हमारा कोई भविष्य निहित नहीं होता। उनमें हमारा वर्तमान होता है और हम उसे हर बार ना अपनाने की भूल कर बैठते हैं। पर मैं सिर्फ वर्तमान में मानता हूं। सच कहूं तो रेखाएं अपना स्थान बदलतीं हैं। हमें अहसास दिलाना चाहतीं हैं हमारे बड़े होने का। लेकिन हम उलझे रहते हैं उन रेखाओं के खेल में और जब चेहरे पर रेखाओं के जाल के मध्य हंसी धुंधली पड़ जाती है, कमर में हल्के दर्द के साथ सिहरन पैदा होती है तो हम हार चुके होते हैं। ना सिर्फ खुद से उन रेखाओं से भी। और हमारे अंतिम सांस लेते हीं वो रेखाएं जीत जाती हैं। इससे साफ नजर आता है कि हम जीवन के उस दौड़ में शामिल होते हैं जहां हमारी हार निश्चित होती है। रेखाओं का उम्र से कोई वास्ता नहीं, रेखाओं का वास्ता संघर्ष से होता है जिसमें रेखाओं का जीतना हीं सत्य है। जरूरत है उन रेखाओं में जीने का ना कि उनमें भविष्य खोजने का। -पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Sunday, April 12, 2020
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