सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, April 11, 2020

द्वारिका

आज शाम सड़कों पर धूप-छांव के बीच खुशी फिर मिल गई। आज उसके गाड़ी के पहिए पूरे थे। खुशीयों को समेटने वाला डब्बा नया था। उसमें उसकी खुशीयां भरपूर मात्रा में भरीं थी। कोई चिंता नहीं आज उसमें भरपूर खुशी थी। जो चेहरे पर मुस्कान लिए पूरे शरीर को अलग दिशा दे रहा था। साथ में उसके दोस्तों का जत्था था। उनके मुट्ठी में अलग खुशी थी। मुट्ठी में भरे पत्थरों में वो अपनी खुशी ढूंढ रहे थे। कभी सटिक निशाना लगाकर तो कभी हाथों से फेंक गए पत्थर की दूरी को नापकर। उन मुट्ठी भर खुशी में मेरे लिए जीवन भर की खुशी छिपी हुई है। ऐसी खुशी की तलाश मुझे हर रोज रहती है। मैंने ऐसी खुशी अपने बचपन में भी महसूस किया था जब जेब में पड़े चंद सिक्कों की आवाज मुझे धरती का सबसे अमीर आदमी बनाती थी। इन सबों से जब भी मिलता हूं और खुश हो जाता हूं। मानों बचपन की खुशी मिल गई हो और मैं उसे ठहर कर वापस जीना चाहता हूं।   -पीयूष चतुर्वेदी           

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