हम किसी से रूष्ट होकर क्या करते हैं? 
बस बातें बंद कर देते हैं। आंखें जो कभी अच्छा बुरा सामने से देख लिया करती थीं वो कनखियों से देखती हैं।
कान जो पहले सब सुना करते थे जुबान को सक्रिय रखने के लिए वो नाखुश होकर भी सुनते हैं। उसे हमारे अनसुना करने की शक्ति, बातें हमारी मुख तक नहीं आने देती।
नाराज़ होकर बस हम खान-पान, आन-जान और बोल-चाल का समझौता करते हैं। 
हम जानना सब चाहते हैं। सुनना सब चाहते हैं बस कुछ कहना नहीं चाहते। 
क्यों, क्योंकि हम नाराज़ हैं। 
वास्तव में नाराज़ हम नहीं हमारी महत्त्वकांक्षा है। हम बस उसके गुलाम मात्र हैं। 
और हम उसके इतने गुलाम हो चुके हैं कि हमारा यह बोलना कि "मैं उससे नाराज़ हूं" हमें आजीवन प्रतिबंधित कर देता है आजादी के मूल्यों से।
नाराज़ होकर हमें कुछ प्राप्त नहीं होता बल्कि हम खोते हैं अपनों को। 
तोड़ते हैं रिश्तों को। 
बिखेरते हैं विश्वास को।
नोचते हैं अपनेपन को।
मृत्यु करते हैं एकता की।
क्या हम अब भी नाराज़ हैं??
  
  
#खुशी खुशी आज अपनी पुरानी तस्वीरें देखने की इच्छा जता रहा था। यह कहते हुए कि जब वह बड़ा होकर नया मोबाइल लेगा तो सारी तस्वीर उसे वापस चाहिए।  वो दिखाएगा अपने दोस्तों को, कैमरे में क़ैद अपना बचपन।  उस बचपन की खुशी जो वो खुद दिनों बाद शायद खो देगा।  असल में हम सभी को खुशियों को इकट्ठा करने का प्रयास करना चाहिए।  मोबाइल में तस्वीर के रूप में नहीं या किसी गुल्लक में नहीं, बस यादों की एक पोटली बनाकर उसे अपने हथेली में छुपा देना चाहिए। उसे कोई देख ना सके हमारे सिवाय।  बस उसपर हमारा अधिकार हो। अपनी खुशियों के स्वामी हम स्वयं बनें रहें। मैं यह बात इसे बताना चाहता था। लेकिन मेरी खुद की पोटली कहीं गुम हो गई है। तलाश जारी है। -पीयूष चतुर्वेदी
खुशी, जेब में बज रहे कंचो की आवज से खुश होता हुआ। वहीं कंचे जो इसने अपनी गाड़ी देकर दोस्त से बदले में प्राप्त की है। उस प्राप्ति में अफसोस की हवा भी बह रही है। जिसमें कष्ट है उन कंचो के साथ अकेले खेलने का। जेब में रखे कंचे का साथ पाकर भी ऐसी त्रासदी का सामना करना कि खुशी प्रभावित हो जाए, बचपन को खोने जैसा है।                                     -पीयूष चतुर्वेदी   
  

आज फिर खुशी मिल गया अपनी खुशी ढूंढते। इस बार उसकी खुशी  पैर में पहने जाने वाली चप्पल के पहियों से बनी गाड़ी में थी। लम्बी डंडे के सहारे उसको चलाता। पिछे दो डब्बे लगाए हुए जिसमें वो सब कुछ रखना चाहता है जो उसके पसंद की है जो उसे खुशी प्रदान करती है। नियत दिशा में चलना चाहता है अपनी चिंता को भूलता हुआ। आज खुशी में थोड़ी चिंता भी थी। एक पहिए के खो जाने की और उस डब्बे के कमजोर हो जाने की जिसमें वो अपनी खुशियों को इकट्ठा कर रहा था। सड़कों पर घिसते हुए डब्बे से खुशियां बाहर निकलती जा रही थीं। मैं सड़क पर गिरते उन खुशियों को देख रहा था। वो वापस उन खुशियों को डब्बे में भरता जा रहा था और मैं मुस्कुरा रहा था। कितना मुश्किल होता है खुशियों को इकट्ठा करना? मानों खुद से लड़ाई कर बैठें हो। जितनी मिले उतनी हीं कम लगती है और लड़ाई और पाने की चाह में बढ़ती जाती है। ऐसा हीं कुछ इसके द्वारा किया जा रहा था। मैं बस देखता रहा इसे खुशियों से लड़ते हुए।