सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Wednesday, July 15, 2020

नाराज

हम किसी से रूष्ट होकर क्या करते हैं? 
बस बातें बंद कर देते हैं। आंखें जो कभी अच्छा बुरा सामने से देख लिया करती थीं वो कनखियों से देखती हैं।
कान जो पहले सब सुना करते थे जुबान को सक्रिय रखने के लिए वो नाखुश होकर भी सुनते हैं। उसे हमारे अनसुना करने की शक्ति, बातें हमारी मुख तक नहीं आने देती।
नाराज़ होकर बस हम खान-पान, आन-जान और बोल-चाल का समझौता करते हैं। 
हम जानना सब चाहते हैं। सुनना सब चाहते हैं बस कुछ कहना नहीं चाहते। 
क्यों, क्योंकि हम नाराज़ हैं। 
वास्तव में नाराज़ हम नहीं हमारी महत्त्वकांक्षा है। हम बस उसके गुलाम मात्र हैं। 
और हम उसके इतने गुलाम हो चुके हैं कि हमारा यह बोलना कि "मैं उससे नाराज़ हूं" हमें आजीवन प्रतिबंधित कर देता है आजादी के मूल्यों से।
नाराज़ होकर हमें कुछ प्राप्त नहीं होता बल्कि हम खोते हैं अपनों को। 
तोड़ते हैं रिश्तों को। 
बिखेरते हैं विश्वास को।
नोचते हैं अपनेपन को।
मृत्यु करते हैं एकता की।
क्या हम अब भी नाराज़ हैं??
-पीयूष चतुर्वेदी

Thursday, July 9, 2020

गांव, मैं और सुकून

बीते दिनों जब मैं गांव था। तो हर सुबह-शाम कहीं बाहर अकेले निकल जाता। पहाड़ों पर जाकर निचे कभी अपना गांव देखता। तो किसी रोज नदी किनारे जाकर वहां से अपना घर ढूंढ़ता। घर पेड़ों के पिछे छिप जाता तो उसकी तस्वीर उतार लेता और उसे बडा़कर अनुमान लगाता किसी पेड़ के पिछे अपने घर होने की।

इसी आने-जाने के दौड़ में सड़क पर चलता हुआ पंछियो की आवाज में खो रहा होता। सड़क का श्रृंगार करती पेड़-पौधों को देखता। खुद में कुछ बुदबुदा रहा होता। तभी अचानक से कानों पर एक मिठी आवाज आती। 
भैया... ऐ भैया... कने....? इस आवाज को सुन मैं पिछे मुड़ता और वो सब भूल जाता जिसके लिए मैं निकला था। ना पहाड़ होता, न नदी ना पंछियों की आवाज न सड़क किनारे पेड़ पौधों का श्रृंगार। मस्तिष्क से कहीं दूर हो जाता और इस लड़के को देख मेरी आंखों में बस जाता।
मानों सारा कुछ यहीं है मेरे सामने और मैं भटक रहा हूं। बिल्कुल मस्तमौला, चंचल सा बिना चप्पल साईकिल कैंची चलाता हुआ। इसे देखते हीं सारा तनाव एक समय के लिए शरीर से बाहर निकल हवाओं में जा घुलता।
कभी-कभी जब मेरी कहीं जाने की इच्छा नहीं होती थी, तो सोचता था इससे मिल आंऊ। 
मिलते हीं कहता भैया... कुछ दिहूं नई... मैं कहता, का लेबे? 
कुछु टाफी-साफी ला। तनी-मनी।
मेरे पास हिसाब नहीं मैंने कितना इसे दिया है। 
पर उसने जो मुझे खुशी और महत्व दिया मैं कभी नहीं भूल सकता।
-पीयूष चतुर्वेदी

Wednesday, June 10, 2020

इच्छा

#खुशी खुशी आज अपनी पुरानी तस्वीरें देखने की इच्छा जता रहा था। यह कहते हुए कि जब वह बड़ा होकर नया मोबाइल लेगा तो सारी तस्वीर उसे वापस चाहिए। वो दिखाएगा अपने दोस्तों को, कैमरे में क़ैद अपना बचपन। उस बचपन की खुशी जो वो खुद दिनों बाद शायद खो देगा। असल में हम सभी को खुशियों को इकट्ठा करने का प्रयास करना चाहिए। मोबाइल में तस्वीर के रूप में नहीं या किसी गुल्लक में नहीं, बस यादों की एक पोटली बनाकर उसे अपने हथेली में छुपा देना चाहिए।‌ उसे कोई देख ना सके हमारे सिवाय। बस उसपर हमारा अधिकार हो। अपनी खुशियों के स्वामी हम स्वयं बनें रहें। मैं यह बात इसे बताना चाहता था। लेकिन मेरी खुद की पोटली कहीं गुम हो गई है। तलाश जारी है। -पीयूष चतुर्वेदी

Wednesday, April 22, 2020

कंचे

खुशी, जेब में बज रहे कंचो की आवज से खुश होता हुआ। वहीं कंचे जो इसने अपनी गाड़ी देकर दोस्त से बदले में प्राप्त की है। उस प्राप्ति में अफसोस की हवा भी बह रही है। जिसमें कष्ट है उन कंचो के साथ अकेले खेलने का। जेब में रखे कंचे का साथ पाकर भी ऐसी त्रासदी का सामना करना कि खुशी प्रभावित हो जाए, बचपन को खोने जैसा है। -पीयूष चतुर्वेदी   

Monday, April 20, 2020

अबे पागल हो गया है क्या?

अपनी धुन में। कुछ मेरे जैसा , कुछ खुद के जैसा। पागलों सा। उस पागलपन में लम्बी डुबकी लगाता हुआ। जब तक कोई ऊपर से आवाज ना दे। अबे पागल हो गया है क्या? मैं उसी पागलपन का आदि होना चाहता हूं। जहां कोई मुझसे आकर बोले, अबे पागल हो गया है क्या? और मैं चेहरे पर लम्बी मुस्कान लिए बोलूं नहीं बस आनंद में हूं। 

 -पीयूष चतुर्वेदी                 

Thursday, April 16, 2020

खुशी

खुशी आज खाली हाथ था। पर आज वो भरपूर खुश था। उसकी गाड़ी उसने अपने दोस्त को देकर उससे कंचे मिलने का इंतजार कर रहा है। उस इंतजार में उसकी खुशी है। और कंचे मिलने के बाद वो दोगुनी हो जाएगी। अदला बदली के खेल में खुशी हर बार जीत जाती है और मैं खुश हो जाता हूं। -पीयूष चतुर्वेदी 

Saturday, April 11, 2020

द्वारिका

आज शाम सड़कों पर धूप-छांव के बीच खुशी फिर मिल गई। आज उसके गाड़ी के पहिए पूरे थे। खुशीयों को समेटने वाला डब्बा नया था। उसमें उसकी खुशीयां भरपूर मात्रा में भरीं थी। कोई चिंता नहीं आज उसमें भरपूर खुशी थी। जो चेहरे पर मुस्कान लिए पूरे शरीर को अलग दिशा दे रहा था। साथ में उसके दोस्तों का जत्था था। उनके मुट्ठी में अलग खुशी थी। मुट्ठी में भरे पत्थरों में वो अपनी खुशी ढूंढ रहे थे। कभी सटिक निशाना लगाकर तो कभी हाथों से फेंक गए पत्थर की दूरी को नापकर। उन मुट्ठी भर खुशी में मेरे लिए जीवन भर की खुशी छिपी हुई है। ऐसी खुशी की तलाश मुझे हर रोज रहती है। मैंने ऐसी खुशी अपने बचपन में भी महसूस किया था जब जेब में पड़े चंद सिक्कों की आवाज मुझे धरती का सबसे अमीर आदमी बनाती थी। इन सबों से जब भी मिलता हूं और खुश हो जाता हूं। मानों बचपन की खुशी मिल गई हो और मैं उसे ठहर कर वापस जीना चाहता हूं।   -पीयूष चतुर्वेदी           

Saturday, April 4, 2020

खुशी

आज फिर खुशी मिल गया अपनी खुशी ढूंढते। इस बार उसकी खुशी पैर में पहने जाने वाली चप्पल के पहियों से बनी गाड़ी में थी। लम्बी डंडे के सहारे उसको चलाता। पिछे दो डब्बे लगाए हुए जिसमें वो सब कुछ रखना चाहता है जो उसके पसंद की है जो उसे खुशी प्रदान करती है। नियत दिशा में चलना चाहता है अपनी चिंता को भूलता हुआ। आज खुशी में‌ थोड़ी चिंता भी थी। एक पहिए के खो जाने की और उस डब्बे के कमजोर हो जाने की जिसमें वो अपनी खुशियों को इकट्ठा कर रहा था। सड़कों पर घिसते हुए डब्बे से खुशियां बाहर निकलती जा रही थीं। मैं सड़क पर गिरते उन खुशियों को देख रहा था। वो वापस उन खुशियों को डब्बे में भरता जा रहा था और मैं मुस्कुरा रहा था। कितना मुश्किल होता है खुशियों को इकट्ठा करना? मानों खुद से लड़ाई कर बैठें हो। जितनी मिले उतनी हीं कम लगती है और लड़ाई और पाने की चाह में बढ़ती जाती है। ऐसा हीं कुछ इसके द्वारा किया जा रहा था। मैं बस देखता रहा इसे खुशियों से लड़ते हुए।

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