हम किसी से रूष्ट होकर क्या करते हैं?
बस बातें बंद कर देते हैं। आंखें जो कभी अच्छा बुरा सामने से देख लिया करती थीं वो कनखियों से देखती हैं।
कान जो पहले सब सुना करते थे जुबान को सक्रिय रखने के लिए वो नाखुश होकर भी सुनते हैं। उसे हमारे अनसुना करने की शक्ति, बातें हमारी मुख तक नहीं आने देती।
नाराज़ होकर बस हम खान-पान, आन-जान और बोल-चाल का समझौता करते हैं।
हम जानना सब चाहते हैं। सुनना सब चाहते हैं बस कुछ कहना नहीं चाहते।
क्यों, क्योंकि हम नाराज़ हैं।
वास्तव में नाराज़ हम नहीं हमारी महत्त्वकांक्षा है। हम बस उसके गुलाम मात्र हैं।
और हम उसके इतने गुलाम हो चुके हैं कि हमारा यह बोलना कि "मैं उससे नाराज़ हूं" हमें आजीवन प्रतिबंधित कर देता है आजादी के मूल्यों से।
नाराज़ होकर हमें कुछ प्राप्त नहीं होता बल्कि हम खोते हैं अपनों को।
तोड़ते हैं रिश्तों को।
बिखेरते हैं विश्वास को।
नोचते हैं अपनेपन को।
मृत्यु करते हैं एकता की।
क्या हम अब भी नाराज़ हैं??
No comments:
Post a Comment