सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, April 4, 2020

खुशी

आज फिर खुशी मिल गया अपनी खुशी ढूंढते। इस बार उसकी खुशी पैर में पहने जाने वाली चप्पल के पहियों से बनी गाड़ी में थी। लम्बी डंडे के सहारे उसको चलाता। पिछे दो डब्बे लगाए हुए जिसमें वो सब कुछ रखना चाहता है जो उसके पसंद की है जो उसे खुशी प्रदान करती है। नियत दिशा में चलना चाहता है अपनी चिंता को भूलता हुआ। आज खुशी में‌ थोड़ी चिंता भी थी। एक पहिए के खो जाने की और उस डब्बे के कमजोर हो जाने की जिसमें वो अपनी खुशियों को इकट्ठा कर रहा था। सड़कों पर घिसते हुए डब्बे से खुशियां बाहर निकलती जा रही थीं। मैं सड़क पर गिरते उन खुशियों को देख रहा था। वो वापस उन खुशियों को डब्बे में भरता जा रहा था और मैं मुस्कुरा रहा था। कितना मुश्किल होता है खुशियों को इकट्ठा करना? मानों खुद से लड़ाई कर बैठें हो। जितनी मिले उतनी हीं कम लगती है और लड़ाई और पाने की चाह में बढ़ती जाती है। ऐसा हीं कुछ इसके द्वारा किया जा रहा था। मैं बस देखता रहा इसे खुशियों से लड़ते हुए।

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