इसी पेड़ के नीचे मैं आजकल घंटों बैठा करता हूं। पत्तों से शर्माती हुई धूप हल्की जमीन तक पहुंचती है तो कुछ को पत्तियां खुद में खपा लेती हैं। इन्हीं पत्तों और धूप के मध्य मैं बैठा खुद को समय देता हूं। उस समय में कभी-कभी मैं इतना व्यस्त हो जाता हूं और स्वयं के इतना करीब हो जाता हूं जैसे मैं एक पेड़ बन गया हूं। मेरे पैर मानों धरती से जा जुड़े हों। एक पल के लिए ऐसा लगता है जैसे मेरा एक नए वृक्ष के रूप में मेरा विकास हो रहा हो। मैं उस विकास से आनंदित महसूस करता हूं। वास्तव में पेड़ बनने में अलग हीं शांति है जो पक्षियों को घर देती है। और मानव के घर को एक पूर्ण रूप। पत्ते और तनें छांव देते हैं। फल भूख मिटाते हैं। और जड़ें मिट्टी के हर कण को आपस में कसे हुए होते हैं। अपना कण-कण वो सेवा में समर्पित कर देती है। मैं इस समर्पण से जुड़ना चाहता हूं। मैं खुद को तमाम उलझनों से निकालकर अपने जीवन को अपने शरीर के हर कण को समर्पित करना चाहता हूं। पेड़ जैसे अंतिम स्थिति तक उसी प्रकार सेवा करता है ठीक वैसा। पर मेरा सर्वाथ हर बार मुझे विचलित कर देता है। मेरे लगभग वृक्ष बनने के अंतिम पड़ाव में मेरी तमाम इक्छाओं का जन्म होने लगता है। सपनों की सौदेबाजी वापस प्रारंभ हो जाती है। मैं पुनः अपने प्रारंभिक स्थिति में पहुंच जाता हूं जहां मेरा पेड़ होना कहीं वापस छूट जाता है। पैर के नीचे की मिट्टी का कसाव समाप्त हो जाता है। पर मैं प्रयासरत हूं अब भी अपना कण-कण समर्पित करने के लिए। अपना संपूर्ण जीवन सेवा और त्याग में झोंक देने के लिए। -पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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