इसी आने-जाने के दौड़ में सड़क पर चलता हुआ पंछियो की आवाज में खो रहा होता। सड़क का श्रृंगार करती पेड़-पौधों को देखता। खुद में कुछ बुदबुदा रहा होता। तभी अचानक से कानों पर एक मिठी आवाज आती।
भैया... ऐ भैया... कने....? इस आवाज को सुन मैं पिछे मुड़ता और वो सब भूल जाता जिसके लिए मैं निकला था। ना पहाड़ होता, न नदी ना पंछियों की आवाज न सड़क किनारे पेड़ पौधों का श्रृंगार। मस्तिष्क से कहीं दूर हो जाता और इस लड़के को देख मेरी आंखों में बस जाता।
मानों सारा कुछ यहीं है मेरे सामने और मैं भटक रहा हूं। बिल्कुल मस्तमौला, चंचल सा बिना चप्पल साईकिल कैंची चलाता हुआ। इसे देखते हीं सारा तनाव एक समय के लिए शरीर से बाहर निकल हवाओं में जा घुलता।
कभी-कभी जब मेरी कहीं जाने की इच्छा नहीं होती थी, तो सोचता था इससे मिल आंऊ।
मिलते हीं कहता भैया... कुछ दिहूं नई... मैं कहता, का लेबे?
कुछु टाफी-साफी ला। तनी-मनी।
मेरे पास हिसाब नहीं मैंने कितना इसे दिया है।
पर उसने जो मुझे खुशी और महत्व दिया मैं कभी नहीं भूल सकता।
-पीयूष चतुर्वेदी
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