जब यहां स्वच्छ नदी पत्थरों से लड़ती हुई चंचल धारा लिए बहती थी। अपने भीतर जल छुपाए बादल उड़ते थे। सूरज उन बादलों से निचे झांकता हुआ हर सुबह लोगों जगाता था। बहु घने पेड़ थे जो जिवन देते थे। चांद की चमक में लोग लाखों सपनें बुनते थे। रंग बिरंगे पक्षी की मधुर संगीत में अपने सपने चुनते थे। छोटी हरी घासों पर पड़ी ओश की बूंदें आंखों में चमक लातीं थी। जब इस धरती पर केवल इंसान थे।
फिर अचानक से यहां अलग-अलग धर्मों के लोग बसने लगे। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन,बुद्ध जैसे तमाम..... कुछ ने तिलक लगाया किसी ने चादर ओढ़ ली। कुछ ने पगड़ी पहना तो किसी ने वस्त्र हीं त्याग दिया। जिस रोज से इन्होंने बसना आरंभ किया इंसान विलुप्त होते चले गए। इंसानियत आज भी बादलों में छुपी बैठी है जो कभी-कभी बरसती है। वो समाते चले गए स्वच्छ निले आकाश को ताकते उसी खूबसूरत धरती में। उनके आंसू आज भी नदियों में शामिल हैं जो हमारा पोषण कर रहीं हैं। उनका क्रोध आज भी उग्र सूरज की तपती रोशनी से हमें जला रही है। गुनगुनाती पंक्षिया अब शांत हैं मानों किसी ने उनकी हत्या कर दी हो। वो गुदगुदाती हरी घास अब पथरीली हो गई है। वहां नंगे पांव चल पाना मुश्किल हो गया है। पेड़ों को काटकर हमनें दरवाजे बना लिए हैं और उसमें खुद को कैद कर लिया है जहां बहुतों का दम घुट रहा है। .....और चांद?... चांद अब भी सब ताक रहा है वो रात भर हमें देखता है फिर सुबह जाता है इंसानों से मिलने। उन्हें हमारी खबर देने। वो हर रोज इस बात की पुष्टि करता है कि अब धरती पर इंसान नहीं रहते।
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