सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, February 7, 2021

किसान और क्रान्ति

किसान एक दौर में किसानी छोड़ सब करने को तैयार था। आज किसान किसानी करने को तैयार नहीं। मध्य काल से हीं किसान मजदूर की शक्ल में बदलता गया।वह मजदूर देखते-देखते इतना मजबूर हो चला है कि घर छूटा, खेत छूटे, बैल छूटे, हल छूटा, जमीन छूटा, शहर की भीड़ में दम घुटा। सांसें टूटी जमाने से साथ छूटी। अब कुछ छूट नहीं रहा अब छीना जा रहा है। अब किसान मजबूर नहीं क्रांतिकारी बन चला है। उन क्रांतिकारियों को कोई आतंकवादी कह रहा है।कोई खलिस्तानी। इस क्रान्ति में उनका किसान होना बहुत पिछे छूट गया है।                                                          -पीयूष चतुर्वेदी

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