सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, February 5, 2021

कलयुग और भावनाएं

कितनी नम आंखें हैं हमारे आसपास? 
कष्टों से हर पल लड़ाई लड़ते चेहरे हैं।
अवसाद से सनी हुई आंखें हैं जिनमें हमनें देखना बंद कर दिया है। 
हम खुद को व्यस्त रहने में इतने व्यस्त हो गए हैं कि हमारे बीच से हम गायब हो मैं बन चुका है। 
उस मैं का दायरा इतना सिमीत है कि हमनें अपने आसपास स्वयं से बाहर देखना हीं बंद कर दिया है। हम पर उस मैं के मय ने इसकदर नशा किया है कि देखना तो दूर हमें सुनने की भी आवश्यकता महसूस नहीं होती। शायद कलयुग है.. मशीनों का युग इसलिए.. जहां भावनाएं टूटे हुए माला की तरह बिखेर दी है हमनें क्योंकि हम कलयुग में जी रहे हैं। 
वास्तव में हमारे जीवन को एक खुली खिड़की की तरह होना था। पारदर्शी जहां से हमें भी कोई देख सके, हम भी कुछ देख सकें। पर हमने उस खिड़की पर पर्दे डाले और एक शिशे के आगे खड़े हो खुद को निहारते रहे। उस आईने ने हमें खुद से बाहर कुछ नहीं दिखाया हम बस खुद में खोते गए। चंद लोगों ने इसमें ऐसी डुबकी लगाई है कि उन्हें खुद के सिवा कुछ नजर नहीं आता। हम अगर जानवर बन जाएं तो भी कष्ट नहीं लेकिन मशीन बनना मनुष्यता के गाल पर तमाचा मारना होगा। जो अभी तो सुखद होगा लेकिन अंत बहुत कष्टदायक।
-पीयूष चतुर्वेदी

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