सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Sunday, January 22, 2023

मैं सुनना चाहता हूं

एक चुप सी जगह पर कुछ चुप से लोग इकट्ठे होते हैं। फिर साथ बैठे लोग वो जगह सब बोलने लगते हैं। चुप में लिपटा सन्नाटा हमारे बोलते हीं टूटने लगता है। उसका बिखराव चुप को तोड़ता है और हम जुड़ जाते हैं उस स्थान से। उस समय से। उस स्थिति से। एक-एक लोग बोलते हुए उठते हैं और चुप हो जाते हैं। उनके चुप होते हीं वो स्थान चुप हो जाता है। 
बनारस की भीड़ में मैंने एक चुप सी जगह ढूंढ ली है। जहां चुप बैठकर घंटों बात किया जा सकता है। 
जहां लंबी बात करके चुप रहा जा सकता है।
चुप्पी ओढ़े आप किताबों से बातें कर सकते हैं और बातें सुनते आप चुप रह सकते हैं। 
मैं सुनना चाहता हूं और मुझे कोई सुनना नहीं चाहता लेकिन मैं चुप नहीं रहना चाहता। इसलिए ज्यादातर बातें खुद से करता हूं। कुछ अधूरा सा भटकता हुआ लिखने लगता हूं।
उस बातों का असर नींद में साफ नजर आता है। मैं बड़बड़ाने लगता हूं। 
यह आदत बचपन से हैं मुझमें। बचपन में मेरे दांत भी बजते थे घर वाले मुंह में रेत भर दिया करते थे। अब मेरे दांत चुप हो गए हैं। ठंड से भी नहीं बोलते लेकिन मैं अब भी नींद में बातें करता हूं। लिखते हुए बोलता हूं। बोलते हुए सभी बोलते हैं। मैं भी बोलता हूं लेकिन कौन मुझे सुन रहा होता है यह मैं कभी नहीं जान पाया। 
सभी कहते थे रोशन को नींद में चलने की बिमारी है। वो रात की नींद में उठकर चलने लगते हैं। मैंने एक रात देखा वो चलते-चलते बोलते हैं। उन्हें चलते-चलते बोलने की आदत है। चुप होते हीं वह रूक जाते हैं। उनके चलने की भीड़ में उनका बोलना कोई नहीं सुन पाया। आज भी सभी उनके बोलने को चलना समझते हैं। 
बाबा खर्राटे लेते हैं। खर्राटे लेना बोलना नहीं होता। बाबा बोलते हैं खर्राटा थकान को दर्शाता है। या सीने पर हाथ रखने से खर्राटे तेज होने लगती हैं। खर्राटे लेते हुए नहीं बोला जा सकता। बोलते हुए खर्राटे लेने का नाटक किया जा सकता है। नाटक बोलने का भी किया जा सकता है और चुप रहने का भी। लेकिन नींद में हम जागने का नाटक नहीं कर सकते। चुप रहने का नाटक करने के लिए जागना होगा या नाटक करना छोड़कर इमानदार सोना होगा। जैसे नींद में मैं सो सकता हूं आराम नहीं कर सकता। आराम करने के लिए नींद से दूर मुझे बैठना पड़ेगा शांत, अकेला, निस्पंद। जहां आराम करते हुए मुझे नींद से समझौता ना करना पड़े। मैं आराम और नींद को अलग रखना चाहता हूं। उस आराम में सपनों की मिलावट ना हो। मेरा बड़बड़ाना उस आराम में कहीं से ना कूदने पाए। दुनिया की छुअन से दूर बिल्कुल स्वच्छ आराम। जैसे बोलना और चलते हुए बोलना। ठीक इसी क्रम में जागते हुए चुप रहने का या गहरी नींद में होने का नाटक किया जा सकता है।
मैंने बहुत से चुप लोगों को देखा है जो कभी नहीं बोलते। मुझे लगता था वो गूंगे है लेकिन वो ठीक थे। बस वो बोलते नहीं थे,शोर मचाते थे। शोर मचाने के लिए चिल्लाना पड़ता है। उन सभी को इस स्थान पर आना चाहिए वो यहां आकर बोलना और चुप रहना दोनों सीख सकते हैं। 
मैं बहुत दिन से सुनने की दिशा में आगे बढ़ रहा हूं। यहां मेरा सुनना और प्रबल हुआ है। 

#बनारस

Sunday, June 5, 2022

रिक्शा वाले के सवाल में बंगाल, बंगाल नहीं मछली था

शक्ति पुंज पकड़िए गा का?

हम्म।

कहां जाएंगे धनबाद?

नहीं हावड़ा।

हावड़ा ब्रिज?

हां, लेकिन शहर भी है। और ब्रिज के अलावा भी बहुत कुछ है। स्टेशन के पास में ब्रिज है। स्टेशन का नाम नहीं है।

अच्छा बंगाल में मछली बड़ा खाता है सब?

हां वहां आम बात है। और वहां लोग आम भी खाते हैं। हमारे यहां सब्जी जैसा हाल वहां मछलियों का है। लेकिन सब्जी ज्यादा खाते हैं और मछली रोज खाते हैं।

सब्जी रोज नहीं खाते?
तब त सब्जी की तरह बेचाता होगा मछली?

नहीं, सब्जी, सब्जी की तरह बेचा जाता है। मछली, मछली की तरह।

बाभन लोग रहता है बंगाल में?

क्या बात कर रहे हैं बहुसंख्यक है। नौ धागा वाला जनेव पहनता है।

यहां तो छः धागा वाला पहिनता है?
ऐसा काहे है? ढे़रे ज्ञानी होता है क्या सब?

हम्म।
नहीं ऐसा कुछ नहीं है। स्थान के साथ जीवन शैली भी बदलती है। यह मात्र उसी बदलाव का दर्शन है। जनेव पहनने से क्रोध और ज्ञान का कोई मेल नहीं। ना हीं मछली से है।

मनें बाभन सब भी खाता है?

हां सब लोग खाता है। बाभन से मछली का भी कोई संबंध नहीं। हम वहीं खाते हैं जो हमारे आसपास होता है। बंगाल के आसपास समुद्र हैं। उसमें मछलियां हैं। और यह सामान्य है।

आप बाभन है?

हां, लेकिन मैं नहीं खाता।

हम्म... देखिए त मनें बाभन सब भी खाने लगा? माना कोई मतलब नहीं है लेकिन किताब में अलगे लिखल है सब।

इतने में स्टेशन आ गाया।
रिक्शा वाले के सवाल में बंगाल, बंगाल नहीं मछली था।
ब्राह्मण दोषी था क्योंकि किताब ने ब्राह्मण को अलग नजरिए से दिखाया था। सात्विक पाया था। और वो किताब? किताब एक निर्देश था।
ऐसे निर्देश लिखने वाले धीरे-धीरे निर्णायक बन जाते हैं फिर वहीं समाज में कानून का रूप धर लेती है। अघोषित कानून। जिसका फैसला राह चलता कोई भी व्यक्ति कर सकता है। क्योंकि उसने कहीं कुछ पढ़ा है। जो उसका सत्य है। ब्राह्मण मछली नहीं खाते यह रिक्शा वाले का सत्य था।
-पीयूष चतुर्वेदी
#bengal
#incredibleindia
#machli
#howrahstation

Wednesday, May 18, 2022

हम भीड़ हैं

शहर हमें कभी नहीं अपनाता। 
शहर के अपनाने के किस्से हमें कहानियों में सुनने को मिलते हैं। 
बंबइया छौंका लगाकर देखने के लिए मिलती हैं। 
वास्तव में शहर को हम अपनाते हैं। हम जिस शहर में रहते हैं वहां की अच्छाई को खोजते हैं और अपनों को सुनाते हैं। 
कहते हैं देखो मेरा शहर... वास्तव में शहर किसी का नहीं होता। शहर भीड़ का होता है। हम भीड़ की स्थिरता और अस्थिरताओं के मध्य शहर में जी रहे होते हैं। हम उस शहर में शुकून ढूंढने लगते हैं जहां हम सबने मिलकर हर रोज शोर मचाया है। 
जैसे मैं लखनऊ कई बार जा चुका हूं। वहां की भीड़ में शहर हो चुका हूं। कोई पूछता है तो कहता हूं कोलकाता के बाद मेरा सबसे सबसे पसंदीदा शहर लखनऊ है। लखनऊ ने कभी अपने सबसे पसंदीदा व्यक्ति का नाम नहीं बताया होगा। और पसंदीदा शहर के साथ मेरी मात्र इतनी दोस्ती है कि मैं लखनऊ एन. आर. और लखनऊ एन. जी. में आज भी उतना भ्रमित हूं जितना कोई नया व्यक्ति। 
पिछले महिने भी लखनऊ गया था। लखनऊ का एक बड़ा हीं मशहूर चौराहा पार करते हुए फूआ ने कहा था ये देख हम बहुत घूमल हीं यहां। बहुत मशहूर चौराहा बा ये। बहुत अच्छा सा नाम बा। मैंने कहा महाराणा प्रताप चौराहा। फूआ ने कहा हां और एक टीस भरी चुप्पी ने कंठों से फंसती हुई आवाज को बाहर किया। कुछ दिनों पहले मैं उस टीस से भरा हुआ था जब फूआ ने मुझसे कंप्यूटर में कापी पेस्ट कैसे करते हैं पूछा था? मैं कुछ समय के शांत सा समय को दोष दे रहा था। क्योंकि मैंने उन्हे कुछ समय पहले तक कंम्पयूटर के बहुत नजदीक पाया था। उस नजदीकी में मैंने भी उसे चलाना सीखा था प्रिंटर कनेक्ट करना सीखा था। मैं उस अतीत से वर्तमान में कूदा तो फूआ कुछ बोल रहीं थीं। सब छूट गईल छोटू। हमार लखनऊ,हमार सबसे प्यारा शहर। सब बदल गइल। 
मानों जैसे उस उदास आवाज के साथ सामने खड़ा ईंट पत्थर से बना चौराहा भरभराकर गिर जाएगा। उस एक पल को मैंने शहर छूट जाने की टीस को आंखों में छलकता हुआ देखा। उन आंखों में शहर धुंधला दिख रहा था।  बच्चों के प्रति फूआ की चिंता और ममता प्रगाढ़। मैं यह बात उसी वक्त बोलना चाहता था कि शहर भीड़ का है। लेकिन यह मुझे मेरा छिछलापन लगा। मैंने पुरानी यादों को फूआ की आंखों में कुछ देर के लिए तैरने दिया। घर पहुंचने पर सारा जिया हुए अतित बंद कमरों के कोने में पर्दों की पिछे छुप गया। और वर्तमान रूपी बच्चे सामने खेल रहे थे। अतित उन्हें हंसता हुआ देख मुस्कुरा रहा था। उसी क्षण बच्चों की मालिश का भविष्य कमरे से बाहर निकला।
लेकिन मैं उस पल कहना चाहता था कि..
हम भीड़ हैं। 
शहर हमारी यादों में बसता है।
हम शहर की भीड़ में।
हम भटकते रहेंगे। 
शहर हमें भूल जाएगा। 
जैसे भूल गया हूं मैं डायरी में लिखी पिताजी के लिए कविता। 
जैसे सेवक भूल जाते हैं देश से किया वादा। 
जैसे भूल जाते हैं हम बचपन के सच्चे दोस्तों के नाम। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Thursday, May 12, 2022

छोटी-छोटी यात्राएं अक्सर हमारे बड़े यात्राओं को धूमिल कर देती हैं

यात्राओं का हमारे जीवन में होना भी एक घटना जैसा होता है। छोटी -छोटी यात्राएं मैं कुछ दिनों के अंतराल में करता रहता हूं। जैसे दोस्तों के साथ कहीं घूम आना। सिनेमाघरों के चक्कर काटना। सापिंग माल में घंटों की मेहनत के बाद घर कुछ टुकड़ा जैसा समेटकर ले आना। बहुत हीं छोटी यात्राएं मैं हर रोज करता हूं। जैसे हर सुबह ड्यूटी जाना। ड्यूटी जाने की यात्रा में कुछ भी भूलने जैसा शामिल नहीं होता। ना हीं छोटी-छोटी यात्राओं में। कभी कभी छोटी-छोटी यात्राओं में मैं कुछ भूलने जैसा महसूस करता अपने जेब को टटोलता उतने में कोई साथ का मेरा भूला मुझे याद दिला देता। लेकिन इस बार की लंबी यात्रा में मैं अकेला था। मेरा भटकाव अकेला था। मेरे साथ सिर्फ मेरा शरीर और मेरा मन था। शरीर स्थिर था और मन स्थान कि कल्पना और यात्रा के यायावर में डूबता-निकलता शरीर के आसपास भटकने की कोशिश कर रहा था। कल अकबरपुर से मन बनारस के लिए निकला लेकिन शरीर यह भूल गया कि उसे पहले फजलगंज जाना है। शरीर गलती से गलत बस में जाकर बैठ गया और मन को इस गलती का अहसास तब हुआ जब अपने मन और शरीर की एकाग्रता से सजे कंडक्टर ने मुझसे पूछा कि कहां जाना है? उस वक्त मेरा मन और शरीर दोनों चेतन हो गए। मैंने तुरंत बोला बनारस जाना है‌। फिर सामने से प्रश्न आया बस से या ट्रेन से? मैंने कहा बस से। फिर उसने कहा आपको पहले फजलगंज जाना होगा। 
मैं बस से उतरा और मन को समझाया मुझे बनारस नहीं फजलगंज जाना है। साथ के एक व्यक्ति की नजर मुझ पर पड़ी उन्होंने पूछा का चतुर्वेदी जी कहां? मैंने कहा रूरा से वापस आ रहा हूं। फिर उनके अच्छा कहने के साथ मेरा शरीर फजलगंज जाने वाली बस में बैठ गया। वहां जाकर मुझे लगा मैंने अपनी यात्रा पूरी कर ली। छोटी-छोटी यात्राएं अक्सर हमारे बड़े यात्राओं को धूमिल कर देती हैं। छोटी यात्राएं हमारी आदत बन जाती हैं। या हमारी आदतें हीं कभी-कभी हमारी यात्राओं का रूप धर लेती हैं।
तभी भैया का फोन आया और उन्होंने पूछा बस कितने बजे है? तभी अचानक मुझे बनारस की याद आई। बनारस के बाद सोनभद्र की याद आई। याद आया कि मुझे सोनभद्र जाना है। मैं जब बस पकड़ने गया तो मेरे मुंह से निकल गया भैया सोनभद्र की बस यहीं लगेगी? उसने मुझे एकबार देखा और बोतल की पेटी उठाते हुए बोला बनारस की लगेगी। मुझे थोड़ा अजीब लगा लेकिन संतुष्टि मिली की मैं सही जगह हूं। बनारस पहुंच कर मुझे सोनभद्र याद था। केवल सोनभद्र हीं याद था। किसी को फोन करके यह भी बताना याद नहीं था कि मैं बनारस पहुंच गया हूं। सोनभद्र की बस में बैठकर मैं अपनी गलतियों के बारे में सोचता रहा। सोचता हूं मुझे पता चला कि मैंने अभी गलतियां करना बंद नहीं किया। हम जितना अकेले होते हैं हम उतना अपने आप को जानते हैं। अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं। हमारा अकेला होना सबसे ज्यादा समय खुद की उपस्थिति को लेकर वर्तमान में खुद की अच्छाई बुराई को पहचानने की आजादी देता है। बहुत सालों से मेरा अकेला न हो पाना मुझे मेरी गलतियों से नहीं मिला पाया। मैं इन गलतियों को समेट हीं रहा था कि सोनभद्र आ गया। मैं उतरा।
मैं यहां मन और शरीर को अलग नहीं कर पाया था। लेकिन जैसे हीं बस मुझे पार करती आगे बढ़ी याद आया कि मन बस में बैठा हुआ है। क्योंकि मैं टिकट का बाकी पैसा लेना भूल गया ।
मेरी भूल मेरे मन के साथ यात्रा कर रही थी और मेरा शरीर इन यात्राओं में स्वयं को घसीट रहा था। अभी स्वयं को घसीटता हुआ यह देंह वापस कानपुर की यात्रा कर रहा है। और अभी तक यह तय है कि पहले बनारस जाना है। वहां गंगा की बहती धार के साथ अपने चंचल मन को बहने देना है। जब तक वह गंगा की निचली सतह पर पहुंच शून्य श्यानता को प्राप्त न कर ले। फिर आरती में सम्मिलित हो देंह को मन के साथ शंख की शोर में गुम कर देना है। आंख खोलकर तैरने वाले लड़के से मिलने की बहुत इच्छा है। कोशिश करूंगा भीड़ में कहीं ढूंढने की। मैं आंख खोलकर तैर पाता तो नदी में तैरकर उसे ढूंढता शायद वो दूसरे किनारे पर उस बदमाश लड़के का सोने का चैन ढूंढ रहा हो जिसने पिछली बार उसके नाव पर बालू फेंका था। या क्या पता उसे अगली सुबह हीं मिल गई हो। या वो बनारस में मिले हीं ना। फिर मैं फजलगंज की बस पकडूंगा उसके बाद अकबरपुर। पुनः सुबह एक बहुत छोटी यात्रा भी करनी है। वो यात्रा जो मैं हर रोज करता हूं। जहां मैं भटकता नहीं। थकता नहीं। हर पल नियत और नियमित रहता है। बस सुबह से शाम तक अपने काम को तकता हूं। शायद इसीलिए कि मुझे उस यात्रा के लिए पैसे मिलते हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Wednesday, March 2, 2022

आंख खोल कर तैरते हैं

स्टीमर चलने से नाव की सवारी का बहुत समस्या हो गया होगा? 
नहीं इहां हरदम नाव चलता रहेगा। 
भगवान राम को हम लोग नदी पार कराएं थे। उन्हीं का आशीर्वाद है जब ले गंगा मैया बहेंगी तब ले नाव चलता रहेगा।
वापसी में नाव का चालक ने अपने ज़बाब में कहा। 
दूसरी छोर पर कुछ श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूर्ति में स्नान करने गए थे। 
कुछ अपनी हुड़दंग की छाप छोड़ शराब का सेवन कर तत्परता से अपने पाप को धोने की क्षुधा लिए गंगा जी में डुबकी लगा रहे थे। 
मांझी से बालू नाव में फेंकने पर हल्की बहस हुई। झुंड़ ने अपने रूआब में उसे हड़काने की कोशिश की पर पानी का दोस्त उनसे लड़ता रहा। 
कुछ हीं पल में एक सोने की चैन और अंगुठी झुंड़ से अलग हो गई। जिसके गले और ऊंगली से अलग हुई वो भागता हुआ चालक के पास आया। 
शायद उसे विश्वास था कि जलमित्र जल में मिश्रित हर वस्तु तो अलग कर उसे भेंट कर सकता है परंतु केवट का ग़ुस्सा सिर्फ जल को देख शांत अपने नाव में लेटा रहा। 
फिर अपने सहकर्मियों से अपने सही का सबुत पेश करता रहा। 
देखला हो पहिले बकचोदी करत रहन सन अब कहत हैन भैया मदद कर दिजिए। 
देखिएगा भैया हमीं लोग को मिलेगा ऊ।
पानी का समान किसी को नहीं मिलने वाला।
पानी पर हमीं लोग का हक होता है। 
जाल लगाएंगे न तो सब निकल जाएगा।
नहीं तो आंख खोल के तैरेंगे तो सब दिखाएगा।
देखिएगा हमको याद है जगह कल मिल जाएगा।
पानी में आंख खोल तैरने में तो समस्या होती होगी? 
नहीं पहिले होता था। शुरू-शुरू में।
हम लोग मछली खाते हैं। मछली से आंख मजबूत होता है। रोशनी बढ़ता है। 
गुरु तुम हमारा चश्मा देख के हमीं को लपेट लिए?
नहीं भैया सही में होता है। हम लोग सब खाते हैं। 
देखिए आंख खोल कर तैरते हैं। 


इस छोर से उस छोर में जिवन का हर छोर हमारी ओर ताक रहा था। 
प्रेम
स्नेह
मित्रता
क्रोध
ईश्या
छल
माया
मिट्टी
मोक्ष 
सभी गंगा में तैर रहे थे।
किसके थे?
किसके हैं?
किसके रहे होंगे? 
अंतर कर पाना मुश्किल था।
-पीयूष चतुर्वेदी।

Saturday, February 26, 2022

बदलाव




नज़रें वहीं ढूंढती है जो हमने पहले कभी देखा था। पुराना जिया हुआ आंखों पर मंडराने लगता है। शहर तो हर रोज बदलता है। उसे बदलने की खबर वहां रहने वाले लोगों को होती है फिर भी उन्हें बदलाव नजर नहीं आता। बदलाव नजर आता है ठहराव के बाद। समयांतराल के बाद। धीरे-धीरे घटती घटनाएं कब हमारा दिनचर्या बन जाती हैं हमें खबर तक नहीं लगती। या उसी शहर में रहने पर वहां की खबरों से अंजान रखने की चालाकी हमें आसपास से दूर कर देती है। यह भी कारण हो सकता है। आजकल तो यह चलन में है। कानपुर में दिल्ली की खबर चलती है जैसे भारत में पाकिस्तान की। ऐसा ही एक शहर था इलाहाबाद। यहां की कुछ स्मृतियां हैं मेरी। बहुत दिनों बाद देखने पर सारा घटा हुआ घटनाओं सा लग रहा है। दिनचर्या का कोई स्थान नहीं। अब मैं यहां की सड़कों पर हर सुबह नहीं निकलता। आज दूर से हीं देखा। बहुत कुछ बदल चुका है। नई दुकानों ने जगह को और छोटा कर लिया है। शायद अगले कुंभ में उन्हें हटा दिया जाए। स्टेशनों पर भीड़ कम दिखती है शायद भीड़ रैलियों में गई होगी या महामारी की त्रासदी ने उन्हें घर में कैद कर दिया होगा। मैं भी ट्रेन में कैद रहा। दरवाजे बंद हो जाएंगे की लगातार घोषणा ने मुझे निचे उतरने से रोक लिया। जो अपनों को ट्रेन में छोड़ने आए थे वह भी ट्रेन के भीतर प्रवेश नहीं कर सके। शायद उन्होंने भी यहीं घोषणा सुन ली होगी। मैं यह बदलाव देख थोड़ा मायूस हुआ लेकिन लोगों का डर देख मन को शांति मिली। शांति इस बात की कि और भी लोग हैं जिन्हें दरवाजा बंद होने का डर है। लेकिन दरवाजा बंद होने के बाद एक और घटना घटी। वह यह कि ट्रेन चल पड़ी। बदलाव फिर हुआ। आगे चलकर एक बोर्ड दिखा जिसे देख समाचार पत्रों की मुख्य लाइन याद आई "इलाहाबाद अब प्रयागराज हो गया है"।

Monday, July 12, 2021

किताबें

सारी कमाई समेट ली गई है। धन के रूप में कम, संयम और ज्ञान के रूप में अधिक। ऐसा हर रोज होता होगा। किताबें पुरानी होती जाती होंगी और उन्हें बार-बार पढ़कर बूढ़े दादा का ज्ञान नया।



तस्वीर पटना जंक्शन की है।

Monday, December 14, 2020

बनारस

जीवन जीना कैसे है यह सिर्फ बनारस आकर समझा जा सकता है। तमाम दिक्कतों और झंझावात के मध्य भी कैसे जीवन के हर में बहते जाना है यह बनारस सीखाता है। 
यातायात की शोरगुल में मंदिर की घंटी कैसे भक्ति रस में डुबा जाती है। सड़कों पर पड़ी गंदगी के मध्य हर अंतराल पर खुशबू बिखेरती ना-ना प्रकार की अगरबत्तियों की सुगंध कैसे तनाव मुक्त कर जाती है। टोक्यो का सपना देखती आंखें कैसे गंगा की लहरों में खुद को बहा जाती है। बनारस को ज्यादा समझने वाले लोगों को ठेठ बनारसी "भाग भोंसड़ी के" कह कैसे चुप करा जाता है। कैसे कोई अंध भक्त भी खुले में शौच कर दांत चिआरता हुआ देश भक्ति के नारे लगा देता है। 
कैसे बनारसी पान की पीक अपने रंग बिखेरती है?
कैसे बनारस यह सब रोज जीता है?
कैसे बनारस इसे हर रोज संभालता है संवारता है?
यह सब बनारस में है और बनारस में सब है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Monday, December 7, 2020

सफर और समझौता

पिछले २० दिनों में किन्हीं निजी कारणों से मुझे चौथी बार सफर करना पड़ा। और हर सफर में तत्काल टिकट के लेने के कारण समान कोच, समान सीट का मिलना एक संयोग सा रहा। मुझे वो सब पहचाना हुआ लगने लगा जो मेरे आस-पास पहले कभी क्षणिक हुआ करता था। शायद पूरी ट्रेन हीं। ट्रेन में सफर करते लोग वो खाना बांटने वाला लड़का जिससे अब तक इशारों में बातें हुआ करती थीं वो भी कल मुझे देखते हीं बोल पड़ा का भाई साहब एक दम मनें आजकल टरेनवा खरीद लिए हैं का? रोज़े दिख जा रहे हैं? एकदम छक-छक सफर कर रहे हैं। मैंने अरे नहीं में ज़बाब दिया और वो खाने के लिए पूछ पड़ा। मैंने ना में सिर हिलाया और वो बिरयानी-बिरयानी..वेज,अण्डा,मटन,चिकन बिरयानी आवाज लगाता आगे बढ़ा।
वो बरकाकाना में स्टाल वाला जिसके पास से गुजरते हीं मुझे आवाज दी आइये साहब लिजिए कुछ। स्वास्थय ठीक ना होने के कारण मैंने इडली मांगा लेकिन छोला होने के कारण मैंने इनकार कर दिया चटनी उपलब्ध नहीं थी उसके पास लेकिन वह पास वाली दुकान से टमाटर की चटनी ले आया। पैसे देते वक्त मुझे ऐसा लगा जैसे इसकी किमत सिर्फ प्रेम है पैसा मात्र माध्यम। वो पानी वाला जो हर बार पानी के 5 ₹ बाद में दिया करता था वह आज पानी का बोतल देने से पहले हीं मुझे 5 ₹ और नरम मुस्कान दे गया। मुझे नहीं पता वह इतना विश्वास से कैसे भरा था लेकिन मैंने हर बार उसे 20 ₹ का नोट दिया है यह कारण हो सकता है। 
ऐसे अनगिनत किस्से जो कल घटे वह मात्र घटना नहीं है एक जीवन है जिसे जिने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।‌
कैसे एक बड़ी सी गाड़ी अपने भितर अलग-अलग रंग-ढंग, बोल-चाल, भाव-स्वभाव एवं विभिन्न स्थान के लोगों को साथ लाकर पृथक करती है। 
कैसे सीधी चलती ट्रेन किसी बड़े से जंक्शन पर थोड़ी देर के लिए ठहरती है और फिर उल्टे दिशा में दौड़ने लगती है।‌ और देखते-देखते अब वो उल्टा सीधा लगने लग जाता है। यह सब एक जीवन है। ट्रेन वास्तव में एक ग्रह है जहां हम कुछ समय साथ बीताते हैं। अच्छा बुरा सहते हुए। 
बच्चों की रोने की आवाजें, बूढ़ों के खांसने की, जवानों के खर्राटों की, महिलाओं की बेहिसाब बातों की भीड़ में हम कुछ समय के लिए शून्य हो जाते हैं।‌ हम उन्हें ना अपनाते हुए भी अपना लेते हैं।
इस छोटे दौर का समझौता जब इतमिनान लिए बड़ा हो जाएगा हम वास्तव में जीना सीख जाएंगे। जब हम सब कुछ अपनाना सीख जाएंगे।

-पीयूष चतुर्वेदी
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Monday, October 12, 2020

थकान

दिन भर कि थकान लिए जब हम एक कमरे में बंद होते हैं तो हमारे थकान देख छत भी थक जाती है। लेकिन हमारी उम्मीदों से सजी दीवार मजबूती से उसे थामें रहती है। वर्ना छत तो कब कि भर-भराकर गिर चुकी होती। शायद हमारी थकान में हीं जीवन है। थकान से हीं घर है। जिस रोज हमारी उम्मीद शून्य हो जाएगी। जिस दिन थकान हमारी उंगली छटकाकर भाग जाएगी उस रोज सब मुक्त हो जाएगा। आकाश में बादलों जैसा। छत भी रहेगी.... दीवारें भी होंगी....बस उम्मीद का बांध बांधने वाला बदल जाएगा।
-पीयूष चतुर्वेदी

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