सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, May 18, 2022

हम भीड़ हैं

शहर हमें कभी नहीं अपनाता। 
शहर के अपनाने के किस्से हमें कहानियों में सुनने को मिलते हैं। 
बंबइया छौंका लगाकर देखने के लिए मिलती हैं। 
वास्तव में शहर को हम अपनाते हैं। हम जिस शहर में रहते हैं वहां की अच्छाई को खोजते हैं और अपनों को सुनाते हैं। 
कहते हैं देखो मेरा शहर... वास्तव में शहर किसी का नहीं होता। शहर भीड़ का होता है। हम भीड़ की स्थिरता और अस्थिरताओं के मध्य शहर में जी रहे होते हैं। हम उस शहर में शुकून ढूंढने लगते हैं जहां हम सबने मिलकर हर रोज शोर मचाया है। 
जैसे मैं लखनऊ कई बार जा चुका हूं। वहां की भीड़ में शहर हो चुका हूं। कोई पूछता है तो कहता हूं कोलकाता के बाद मेरा सबसे सबसे पसंदीदा शहर लखनऊ है। लखनऊ ने कभी अपने सबसे पसंदीदा व्यक्ति का नाम नहीं बताया होगा। और पसंदीदा शहर के साथ मेरी मात्र इतनी दोस्ती है कि मैं लखनऊ एन. आर. और लखनऊ एन. जी. में आज भी उतना भ्रमित हूं जितना कोई नया व्यक्ति। 
पिछले महिने भी लखनऊ गया था। लखनऊ का एक बड़ा हीं मशहूर चौराहा पार करते हुए फूआ ने कहा था ये देख हम बहुत घूमल हीं यहां। बहुत मशहूर चौराहा बा ये। बहुत अच्छा सा नाम बा। मैंने कहा महाराणा प्रताप चौराहा। फूआ ने कहा हां और एक टीस भरी चुप्पी ने कंठों से फंसती हुई आवाज को बाहर किया। कुछ दिनों पहले मैं उस टीस से भरा हुआ था जब फूआ ने मुझसे कंप्यूटर में कापी पेस्ट कैसे करते हैं पूछा था? मैं कुछ समय के शांत सा समय को दोष दे रहा था। क्योंकि मैंने उन्हे कुछ समय पहले तक कंम्पयूटर के बहुत नजदीक पाया था। उस नजदीकी में मैंने भी उसे चलाना सीखा था प्रिंटर कनेक्ट करना सीखा था। मैं उस अतीत से वर्तमान में कूदा तो फूआ कुछ बोल रहीं थीं। सब छूट गईल छोटू। हमार लखनऊ,हमार सबसे प्यारा शहर। सब बदल गइल। 
मानों जैसे उस उदास आवाज के साथ सामने खड़ा ईंट पत्थर से बना चौराहा भरभराकर गिर जाएगा। उस एक पल को मैंने शहर छूट जाने की टीस को आंखों में छलकता हुआ देखा। उन आंखों में शहर धुंधला दिख रहा था।  बच्चों के प्रति फूआ की चिंता और ममता प्रगाढ़। मैं यह बात उसी वक्त बोलना चाहता था कि शहर भीड़ का है। लेकिन यह मुझे मेरा छिछलापन लगा। मैंने पुरानी यादों को फूआ की आंखों में कुछ देर के लिए तैरने दिया। घर पहुंचने पर सारा जिया हुए अतित बंद कमरों के कोने में पर्दों की पिछे छुप गया। और वर्तमान रूपी बच्चे सामने खेल रहे थे। अतित उन्हें हंसता हुआ देख मुस्कुरा रहा था। उसी क्षण बच्चों की मालिश का भविष्य कमरे से बाहर निकला।
लेकिन मैं उस पल कहना चाहता था कि..
हम भीड़ हैं। 
शहर हमारी यादों में बसता है।
हम शहर की भीड़ में।
हम भटकते रहेंगे। 
शहर हमें भूल जाएगा। 
जैसे भूल गया हूं मैं डायरी में लिखी पिताजी के लिए कविता। 
जैसे सेवक भूल जाते हैं देश से किया वादा। 
जैसे भूल जाते हैं हम बचपन के सच्चे दोस्तों के नाम। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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