सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Thursday, May 12, 2022

छोटी-छोटी यात्राएं अक्सर हमारे बड़े यात्राओं को धूमिल कर देती हैं

यात्राओं का हमारे जीवन में होना भी एक घटना जैसा होता है। छोटी -छोटी यात्राएं मैं कुछ दिनों के अंतराल में करता रहता हूं। जैसे दोस्तों के साथ कहीं घूम आना। सिनेमाघरों के चक्कर काटना। सापिंग माल में घंटों की मेहनत के बाद घर कुछ टुकड़ा जैसा समेटकर ले आना। बहुत हीं छोटी यात्राएं मैं हर रोज करता हूं। जैसे हर सुबह ड्यूटी जाना। ड्यूटी जाने की यात्रा में कुछ भी भूलने जैसा शामिल नहीं होता। ना हीं छोटी-छोटी यात्राओं में। कभी कभी छोटी-छोटी यात्राओं में मैं कुछ भूलने जैसा महसूस करता अपने जेब को टटोलता उतने में कोई साथ का मेरा भूला मुझे याद दिला देता। लेकिन इस बार की लंबी यात्रा में मैं अकेला था। मेरा भटकाव अकेला था। मेरे साथ सिर्फ मेरा शरीर और मेरा मन था। शरीर स्थिर था और मन स्थान कि कल्पना और यात्रा के यायावर में डूबता-निकलता शरीर के आसपास भटकने की कोशिश कर रहा था। कल अकबरपुर से मन बनारस के लिए निकला लेकिन शरीर यह भूल गया कि उसे पहले फजलगंज जाना है। शरीर गलती से गलत बस में जाकर बैठ गया और मन को इस गलती का अहसास तब हुआ जब अपने मन और शरीर की एकाग्रता से सजे कंडक्टर ने मुझसे पूछा कि कहां जाना है? उस वक्त मेरा मन और शरीर दोनों चेतन हो गए। मैंने तुरंत बोला बनारस जाना है‌। फिर सामने से प्रश्न आया बस से या ट्रेन से? मैंने कहा बस से। फिर उसने कहा आपको पहले फजलगंज जाना होगा। 
मैं बस से उतरा और मन को समझाया मुझे बनारस नहीं फजलगंज जाना है। साथ के एक व्यक्ति की नजर मुझ पर पड़ी उन्होंने पूछा का चतुर्वेदी जी कहां? मैंने कहा रूरा से वापस आ रहा हूं। फिर उनके अच्छा कहने के साथ मेरा शरीर फजलगंज जाने वाली बस में बैठ गया। वहां जाकर मुझे लगा मैंने अपनी यात्रा पूरी कर ली। छोटी-छोटी यात्राएं अक्सर हमारे बड़े यात्राओं को धूमिल कर देती हैं। छोटी यात्राएं हमारी आदत बन जाती हैं। या हमारी आदतें हीं कभी-कभी हमारी यात्राओं का रूप धर लेती हैं।
तभी भैया का फोन आया और उन्होंने पूछा बस कितने बजे है? तभी अचानक मुझे बनारस की याद आई। बनारस के बाद सोनभद्र की याद आई। याद आया कि मुझे सोनभद्र जाना है। मैं जब बस पकड़ने गया तो मेरे मुंह से निकल गया भैया सोनभद्र की बस यहीं लगेगी? उसने मुझे एकबार देखा और बोतल की पेटी उठाते हुए बोला बनारस की लगेगी। मुझे थोड़ा अजीब लगा लेकिन संतुष्टि मिली की मैं सही जगह हूं। बनारस पहुंच कर मुझे सोनभद्र याद था। केवल सोनभद्र हीं याद था। किसी को फोन करके यह भी बताना याद नहीं था कि मैं बनारस पहुंच गया हूं। सोनभद्र की बस में बैठकर मैं अपनी गलतियों के बारे में सोचता रहा। सोचता हूं मुझे पता चला कि मैंने अभी गलतियां करना बंद नहीं किया। हम जितना अकेले होते हैं हम उतना अपने आप को जानते हैं। अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं। हमारा अकेला होना सबसे ज्यादा समय खुद की उपस्थिति को लेकर वर्तमान में खुद की अच्छाई बुराई को पहचानने की आजादी देता है। बहुत सालों से मेरा अकेला न हो पाना मुझे मेरी गलतियों से नहीं मिला पाया। मैं इन गलतियों को समेट हीं रहा था कि सोनभद्र आ गया। मैं उतरा।
मैं यहां मन और शरीर को अलग नहीं कर पाया था। लेकिन जैसे हीं बस मुझे पार करती आगे बढ़ी याद आया कि मन बस में बैठा हुआ है। क्योंकि मैं टिकट का बाकी पैसा लेना भूल गया ।
मेरी भूल मेरे मन के साथ यात्रा कर रही थी और मेरा शरीर इन यात्राओं में स्वयं को घसीट रहा था। अभी स्वयं को घसीटता हुआ यह देंह वापस कानपुर की यात्रा कर रहा है। और अभी तक यह तय है कि पहले बनारस जाना है। वहां गंगा की बहती धार के साथ अपने चंचल मन को बहने देना है। जब तक वह गंगा की निचली सतह पर पहुंच शून्य श्यानता को प्राप्त न कर ले। फिर आरती में सम्मिलित हो देंह को मन के साथ शंख की शोर में गुम कर देना है। आंख खोलकर तैरने वाले लड़के से मिलने की बहुत इच्छा है। कोशिश करूंगा भीड़ में कहीं ढूंढने की। मैं आंख खोलकर तैर पाता तो नदी में तैरकर उसे ढूंढता शायद वो दूसरे किनारे पर उस बदमाश लड़के का सोने का चैन ढूंढ रहा हो जिसने पिछली बार उसके नाव पर बालू फेंका था। या क्या पता उसे अगली सुबह हीं मिल गई हो। या वो बनारस में मिले हीं ना। फिर मैं फजलगंज की बस पकडूंगा उसके बाद अकबरपुर। पुनः सुबह एक बहुत छोटी यात्रा भी करनी है। वो यात्रा जो मैं हर रोज करता हूं। जहां मैं भटकता नहीं। थकता नहीं। हर पल नियत और नियमित रहता है। बस सुबह से शाम तक अपने काम को तकता हूं। शायद इसीलिए कि मुझे उस यात्रा के लिए पैसे मिलते हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी

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