सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, October 12, 2020

थकान

दिन भर कि थकान लिए जब हम एक कमरे में बंद होते हैं तो हमारे थकान देख छत भी थक जाती है। लेकिन हमारी उम्मीदों से सजी दीवार मजबूती से उसे थामें रहती है। वर्ना छत तो कब कि भर-भराकर गिर चुकी होती। शायद हमारी थकान में हीं जीवन है। थकान से हीं घर है। जिस रोज हमारी उम्मीद शून्य हो जाएगी। जिस दिन थकान हमारी उंगली छटकाकर भाग जाएगी उस रोज सब मुक्त हो जाएगा। आकाश में बादलों जैसा। छत भी रहेगी.... दीवारें भी होंगी....बस उम्मीद का बांध बांधने वाला बदल जाएगा।
-पीयूष चतुर्वेदी

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