सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, January 22, 2023

मैं सुनना चाहता हूं

एक चुप सी जगह पर कुछ चुप से लोग इकट्ठे होते हैं। फिर साथ बैठे लोग वो जगह सब बोलने लगते हैं। चुप में लिपटा सन्नाटा हमारे बोलते हीं टूटने लगता है। उसका बिखराव चुप को तोड़ता है और हम जुड़ जाते हैं उस स्थान से। उस समय से। उस स्थिति से। एक-एक लोग बोलते हुए उठते हैं और चुप हो जाते हैं। उनके चुप होते हीं वो स्थान चुप हो जाता है। 
बनारस की भीड़ में मैंने एक चुप सी जगह ढूंढ ली है। जहां चुप बैठकर घंटों बात किया जा सकता है। 
जहां लंबी बात करके चुप रहा जा सकता है।
चुप्पी ओढ़े आप किताबों से बातें कर सकते हैं और बातें सुनते आप चुप रह सकते हैं। 
मैं सुनना चाहता हूं और मुझे कोई सुनना नहीं चाहता लेकिन मैं चुप नहीं रहना चाहता। इसलिए ज्यादातर बातें खुद से करता हूं। कुछ अधूरा सा भटकता हुआ लिखने लगता हूं।
उस बातों का असर नींद में साफ नजर आता है। मैं बड़बड़ाने लगता हूं। 
यह आदत बचपन से हैं मुझमें। बचपन में मेरे दांत भी बजते थे घर वाले मुंह में रेत भर दिया करते थे। अब मेरे दांत चुप हो गए हैं। ठंड से भी नहीं बोलते लेकिन मैं अब भी नींद में बातें करता हूं। लिखते हुए बोलता हूं। बोलते हुए सभी बोलते हैं। मैं भी बोलता हूं लेकिन कौन मुझे सुन रहा होता है यह मैं कभी नहीं जान पाया। 
सभी कहते थे रोशन को नींद में चलने की बिमारी है। वो रात की नींद में उठकर चलने लगते हैं। मैंने एक रात देखा वो चलते-चलते बोलते हैं। उन्हें चलते-चलते बोलने की आदत है। चुप होते हीं वह रूक जाते हैं। उनके चलने की भीड़ में उनका बोलना कोई नहीं सुन पाया। आज भी सभी उनके बोलने को चलना समझते हैं। 
बाबा खर्राटे लेते हैं। खर्राटे लेना बोलना नहीं होता। बाबा बोलते हैं खर्राटा थकान को दर्शाता है। या सीने पर हाथ रखने से खर्राटे तेज होने लगती हैं। खर्राटे लेते हुए नहीं बोला जा सकता। बोलते हुए खर्राटे लेने का नाटक किया जा सकता है। नाटक बोलने का भी किया जा सकता है और चुप रहने का भी। लेकिन नींद में हम जागने का नाटक नहीं कर सकते। चुप रहने का नाटक करने के लिए जागना होगा या नाटक करना छोड़कर इमानदार सोना होगा। जैसे नींद में मैं सो सकता हूं आराम नहीं कर सकता। आराम करने के लिए नींद से दूर मुझे बैठना पड़ेगा शांत, अकेला, निस्पंद। जहां आराम करते हुए मुझे नींद से समझौता ना करना पड़े। मैं आराम और नींद को अलग रखना चाहता हूं। उस आराम में सपनों की मिलावट ना हो। मेरा बड़बड़ाना उस आराम में कहीं से ना कूदने पाए। दुनिया की छुअन से दूर बिल्कुल स्वच्छ आराम। जैसे बोलना और चलते हुए बोलना। ठीक इसी क्रम में जागते हुए चुप रहने का या गहरी नींद में होने का नाटक किया जा सकता है।
मैंने बहुत से चुप लोगों को देखा है जो कभी नहीं बोलते। मुझे लगता था वो गूंगे है लेकिन वो ठीक थे। बस वो बोलते नहीं थे,शोर मचाते थे। शोर मचाने के लिए चिल्लाना पड़ता है। उन सभी को इस स्थान पर आना चाहिए वो यहां आकर बोलना और चुप रहना दोनों सीख सकते हैं। 
मैं बहुत दिन से सुनने की दिशा में आगे बढ़ रहा हूं। यहां मेरा सुनना और प्रबल हुआ है। 

#बनारस

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