सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, June 27, 2022

आम को लेकर मेरी यादें गर्मी से ज्यादा गांव से जुड़ी हैं

आम को लेकर मेरी यादें गर्मी से ज्यादा गांव से जुड़ी हैं। गर्मी मेरे स्कूल की छुट्टियां से जुड़ा है। और छुट्टियां आम के बगीचे से। 
खाश तौर पर आम, सीधा मेरे गांव के बागीचे से जुड़ा है। 
बचपन में गांव के कुलबुल बाबा बागीचे की रखवाली करते थे। सभी उन्हें दरोगा जी कहते थे इसलिए नहीं कि वो दरोगा थे। इस कारण की उनके बड़े भाई दरोगा थे और उनके भीतर भी तेवर दरोगा वाले थे। मदिरा सेवन के बाद वो कलेक्टर की भूमिका में आ जाते। जिन लोगों का हिस्सा था उन्हें बराबर आम बांटे जाने की जिम्मेदारी दरोगा बाबा की थी जो कलेक्टर बनकर उसका बराबर बंटवारा करते। किसी के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय ना होने पाए और कहीं से भी असंतोष की गंध आम में ना घुलने पाए। लेकिन आंधी से टूटे आमों का बंटवारा गांव के बच्चे आपस में करते। उस पर कोई कानूनी हस्तक्षेप नहीं हुआ करता था। भोर की आंधी सभी घरों में सुबह तक आम परोस जाती थी। बड़े बाबा अपने बगल में बड़ी संख्या में आम लेकर बैठते और भोजन के बाद गुठलियों के दाम लगाते। मैं उन गुठलियों को गिनता और बागीचा की ओर भाग जाता।
सलईनियां
कलवरिया
तलवरिया
बूढ़वा 
जैसे तमाम नाम वाले आम के पेड़ फलों से लदे रहते थे। उन्हीं के बीच एक जामुन का पेड़ हुआ करता था। अब भी है लेकिन अब लगभग सारे पेड़ बागीचे के बूढ़े हो चुके हैं। उनमें अब सूखी लकड़ियां हीं शेष रह गई हैं। कुछ एक पेड़ हैं जिनसे अचार का आम निकल जाता है। बच्चन सौ रूपया सैकड़ा के दाम पर आम को तोड़ता है और गिर कर फट चुके आम को घर ले जाता है। घर ले जाने का हर वर्ष उसका एक हीं कारण होता है घरे छोट लईकन बड़न, सब तनी घुमउव्वल खईहें नमक और लाल मिर्चा मिलाके , पाना बनावल जाई बड़ी गर्मी पड़त हई। लूह मार देव लई तुरंत धाम धूम के दिन में। अब उसके बच्चे बड़े हो गए हैं लेकिन उसका बहाना अब भी इतना हीं छोटा है। बच्चन का बेटा मेरा छोटा दोस्त है वह भी पेड़ पर चढ़ता है लेकिन आम के नहीं बेल के पेड़ पर। 
जामुन के पेड़ पर कोई नहीं चढ़ता। बच्चन भी नहीं। सभी डरते हैं। मेरा दोस्त नहीं डरता लेकिन वो अभी जामुन के लिए छोटा है। शायद जामुन के पेड़ पर चढ़ने के लिए उसे आम जीतना बड़ा होना पड़ेगा जो थोड़ा चोट सह पाए।
उस डर के पिछे बचपन से मैं एक कहानी सुनता आया हूं। सुशील चाचा कहते थे एक बार हमन छोट में पुरनका घर पर जामुन खाए गईल रही तोर पिताजी चढ़ल रहन पेड़ पर गिर गईलन उनकर हाथ टूट गईल रहे। चाचा अपने बचपन की बात मेरे बचपन में बता रहे थे लेकिन मैं उनके बचपन से हमेशा से अंजान रहा हूं। मेरे पास मेरे पिताजी के बचपन की तस्वीर है जो मैंने उनकी मृत्यु के बाद एल्बम से चुराकर अपने डायरी में रख लिया था। लेकिन चाचा को मैंने जब से देखा है सफेद बालों में हीं देखा है। जैसे बगीचे का बुढ़वा आम, वो अब भी उतना हीं बूढ़ा है जितना १० साल पहले था। एक बार चाचा ने तस्वीर के माध्यम से अपनी जवानी का परिचय मुझसे कराया था। कहा था ओह समय हम मिर्जापुर में रही, पढ़ावत रही, एकदम स्मार्ट फ्रेंच कट दाढ़ी रखत रही उस समय। मैंने उस तस्वीर को अपलक कुछ मिनट देखा इस आस में जहां मैं उनके बचपन के दिनों में बगीचे में पहुंच जाऊं। जहां उनका आम खाना और जामुन तोड़ना देख सकूं लेकिन यह असंभव था। पिताजी का हाथ टूटना पिताजी की तस्वीर से मैंने कल्पना कर लिया था। तस्वीरें हमारे जीवन का झरोखा होती हैं। मैंने उस झरोखों से अक्सर बाहर कूद जाता हूं। सपनों में भटकता हूं फिर वापस आ जाता हूं। 
शायद यहीं कारण है कि मेरे लिए आम गर्मी से नहीं गांव से जुड़ा है।
मुझे लगता है मुझे सच में जामुन खाना था लेकिन पिताजी के गिरने से मेरे मुठ्ठी खाली रह गई। फिर चाचा ने बच्चन को बोला होगा जामुन पर मत चडिंहे ओकर डाली कमजोर होला गिर जईबे। और बच्चन ने उस दिन से आम तोड़ना शुरू कर दिया। अचार वाले आम सौ रूपया सैकड़ा और पके वाले दो सौ रूपया सैकड़ा। आज वहीं आम बाजार में बिक रहे हैं। मेरे गांव के आम, मेरे बगीचे के आम और उन आमों में जामुन की खाश सुगंध सनी होती है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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