सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, July 4, 2022

जीवित रहना घटना नहीं है, विकल्प है

मुझे वाराणसी जाने के लिए कभी भी तैयारी नहीं करना पड़ता। मैं कानपुर से घर जाने वक्त और घर से कानपुर जाते समय बनारस को छूकर निकलता हूं। इससे अलग बीमार होने पर दवाईयां और जरूरत के अच्छे सामान भी बनारस से हीं जाते हैं। 
उस छू के निकलने में गंगा जी को ताकते हुए जाना और बाबा विश्वनाथ के लिए लहरों को प्रणाम कर आगे बढ़ने का शिष्टाचार शामिल होता है। मुझे लगता है मां गंगा अपनी लहरों के‌ साथ मेरे प्रणाम को‌ शंकर जी तक पहुंचा देंगी फिर मैं कभी किसी रोज़ गंगा किनारे पर नदी में उतरता हुआ लहरों से उनके आशीर्वाद को बटोरकर अपने साथ घर ले जाऊंगा। 
मुझे ऐसा सोचने में भी छीछलापन महसूस होता है लेकिन मैं ऐसा करता हूं। मैं नदी के जल को किसी पात्र में एकत्रित नहीं करता बस पानी को अपनी अंजुली में थोड़ी देर के लिए स्थान देता हूं और उन्हें अपनी हस्त रेखाओं के सतह तक कम होता हुआ देखता हूं। कुछ पानी निचे नदी में मिल जाता है और कुछ हाथों में। हाथों का पानी सूखता हुआ आशिर्वाद का रूप लेता है ऐसी मेरी कल्पना है। 
मेरे लिए यथार्थ और कल्पना की लड़ाई में केवल मैं यथार्थ हूं बाकी मेरा सारा जिया हुआ कल्पना है। मैं कल कैसे जियूंगा की कल्पना मेरे अभी में स्थान लिए हुए होता है। जैसे मेरा शरीर यथार्थ है और सोच कल्पना और सोचा हुआ करना एक घटना समान है। जिसे घटना था, है और उसे घटना होगा।
जैसे मेरा आज गंगा स्नान करना घटना है। मेरा आशिर्वाद बटोरना कल्पना। मेरा बनारस जाना और कुछ करना यथार्थ जो वहां पहुंचने से पहले तक निविड़ कल्पना थी।
लेकिन पहली बार मेरा बनारस के घाट पर जाना कल्पना नहीं यथार्थ था। जिस यथार्थ की मैंने कल्पना नहीं की थी। जिस यथार्थ को यथार्थ नहीं होना था। उसे कल्पना रहना था ऐसी कल्पना जिसे मैं महसूस ना करूं। जिसे मुझे अंगीकार नहीं करना था। लेकिन कल्पना कभी न कभी यथार्थ से हार हीं जाती है। कल्पना की हार अपने साथ एक त्रासदी लेकर आती है। पहली बार मेरा घाट पर आना यथार्थ नहीं त्रासदी थी। मैं उस त्रासदी में अपने पिता की अस्थियां समेटे पहली बार दशाश्वमेध घाट पर पहुंचा था। उन अस्थियों को मैंने पिता की जल चुकी देंह रूपी राख से एकत्रित किया था। जिन्हें नदी से पानी डालकर ठंडा किया गया था। उन पर पानी की आवाज पड़ते हीं एक जोर की छन्न की आवाज आई थी जैसे वो अपनी अंतिम भारी सघन श्वांस ले रहे हों एक लंबे और निश्चित मौन के लिए। मैं इसके लिए कभी भी तैयार नहीं था। अब भी नहीं हूं। मैं दुख झेलने के लिए तैयार हूं लेकिन दुख को जीने के तरीके से सहमत नहीं। बीच गंगा जी में नाव का सहारा लिए मैंने उन अस्थियों को प्रवाहित किया था। पास हीं एक व्यक्ति एक पात्र में गंगा जल एकत्र कर रहा था। पंडित मोक्ष प्राप्ति के मार्ग बता रहे थे। पिताजी को मुक्ति मिली या नहीं मैं इस बात से अब तक अंजान हूं। हर वो व्यक्ति अंजान है जो मुक्ति की कल्पना करता है। मुक्ति मिली या नहीं इस सच को सिर्फ मृत्यु प्राप्त व्यक्ति हीं जान पाता है। और उसका जाना हुआ जानना हीं सच है बाकी सब झूठ। हम उसी झूठ के सहारे गंगा में अपना सच जानने जाते हैं और गंगा जल लेकर घर आ जाते हैं। यदि जल कुछ समय में खराब होने वाला होता तो शायद हम वह भी लेकर नहीं आते। जैसे हमनें अपने गांव की नदियां को अपने घर में स्थान नहीं दिया है। जैसे हमनें अपनों को स्थान नहीं दिया है। अपने गांव को स्थान नहीं दिया है। हमनें बनारस को स्थान दिया है। जरूरी भी है, क्योंकि बनारस हमें भेद भाव से ऊपर उठना सिखाता है। लेकिन वह ज्ञान गंगा जी से निकलते हीं जल में कहीं बह जाता है। बनारस से बाहर निकलते हीं गुम होता है। यह एक मीठी सच्चाई है जिसे सभी अपनाते हैं। कड़वी होती तो सभी इंकार करते। मैं भी करता। जब मैं पहली बार घाट पर देंह को जलते देखा था तो मानों जन्म मृत्यु का ज्ञान प्राप्त कर घर लौटा था। ऐसे विचार के साथ कि सब झूठ है। जीवन यहीं है। जीवन मृत्यु के बाद दूसरे सफर पर निकलता है। परंतु जब भी किसी अपने को खोता हूं तो दिल भारी हो जाता है। व्याकुलता मन को बांध देती है। माया का संसार उजड़ जाता है। पूरा अतीत एक पल में मेरे सामने भरभरा कर गिरता है। मैं उसमें से अपनी सबसे प्रगाढ़ और प्रिय यादों को इकठ्ठा करने का बेवकूफी भरा प्रयास करता हूं। और यह सभी महसूस करते हैं बनारस वासी भी करते हैं घाटों पर मरघट से पनघट तक का ज्ञान देने वाले लोग भी सोचते हैं। इससे कोई नहीं बचा, बनारस भी नहीं।
लगभग १० वर्ष बाद मैंने गंगा स्नान किया। इस बार आशिर्वाद को मैंने पूरे देंह से स्विकार किया। पहले किनारे बैठा हाथों से हीं स्पर्श करता आया था। इस बार मैंने पूरे शरीर पर पानी को सूखने दिया। गंगा में पहली डुबकी लगाकर मैंने अंतिम समय तक अपनी सांस रोकी। ऊपर से पानी को सूंघता रहा। मैं नदी में अपने पिताजी की खूशबू ढूंढ रहा था। लेकिन मेरा ऐसा करना मात्र पागलपन है। ना जाने कितने लोग अपने पुरखों की खुशबू ढूंढते होंगे। गंगा ने तो असंख्य लोगों को मृत्यु पश्चात अपनाया है। उस अपनाए में अपनों को ढूंढना पागलपन हीं है। क्योंकि समुद्र गंगाजी को अपनाता है और समुद्र की गहराई में अपनों को ढूंढ़ना गुजरे हुए की हत्या करने के समान है। एक प्रकार की जिद जिसमें अपने द्वारा चखे गए मिठी यादों का खारा होना निश्चित है। और वह खारापन कब वापस बादलों से गिरता हुआ मीठे जल के रूप में किस नदी में समाहित होगी इस ज्ञान को उपलब्ध करना काले घने,भयंकर बादलों में खो जाने जैसा है। 
उसी पागलपन में अक्सर अकेला होता हूं तो पिताजी की खूशबू ढूंढ़ता हूं लेकिन सच्चाई यह है कि पिताजी की खुशबू केवल मां से आती है परंतु मेरे लालच का संसार हर बार मुझे मजबूर कर देता है। मां के सिवा पिताजी की खूशबू उनके कपड़ों से आती है। मैंने उन कपड़ों को घर के बक्से में कैद कर दिया है। फिर भी मैं पिताजी की सुगंध को नदी में ढूंढ रहा था। 
नदी के जन्में आशिर्वाद में अब शायद पिताजी का भी आशिर्वाद शामिल हो? मुझे इस आशिर्वाद का क्या फल मिलता है? मैं कभी यह नहीं समझ पाया। लेकिन ठीक-ठाक अनुमान यह है कि आशिर्वाद हमें बूढ़ा करता है। हमारी उम्र में समय को जोड़ता है। आशिर्वाद से भविष्य का संवरना जुड़ा है इसलिए मैं भी जुड़ा हूं। मैं बनारस से जुड़ा हूं यह ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है लेकिन मैं यथार्थ से जुड़ा हूं यह सत्य है। उस यथार्थ से जो घटने तक कल्पना रहती है। उस कल्पना से जो कभी कल्पना नहीं था। जो सीधा यथार्थ रूप में घटित हुआ। उसी यथार्थ और कल्पना के मध्य मेरा जीवित रहना शामिल है। जीवित रहना घटना नहीं है, विकल्प है। बनारस शहर नहीं है, घटना है। मैं बनारस घटने जाता हूं। सभी घटने जाते हैं। सभी सदैव के लिए बसने जाते हैं। मर कर घटने जाते हैं। ।
-पीयूष चतुर्वेदी

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