सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Thursday, May 6, 2021

बबूल का पेड़

एक मित्र ने दूसरे से पूछा तुम्हारे गांव में अमलताश का पेड़ है? उसने कहा नहीं, मेरे गांव में बबूल का पेड़ है। फिर तो उस पर पतरंगी चिड़िया नहीं बैठती होगी? उसने कहा पहले कभी गांव में दिख जाती थी अब नहीं दिखती। मेरे गांव में बबूल के पेड़ हैं वो ज्यादा घने नहीं हैं। वो बस खुद से और चिड़ियों के बीट से उग आए हैं। कांटों से भरपूर। 
दूसरे ने कहा फिर उसका क्या उपयोग करते हैं सब? कांटों को निकालकर दातून करते हैं। गरीब लड़के उसके बीज इकट्ठा कर बाजार में किलो के भाव बेचते हैं। गर्मी के दिनों में बच्चे लासा छुड़ाते हैं।
क्या पेड़ का कोई उपयोग नहीं? उसपर चिड़िया नहीं बैठती? 
नहीं-नहीं पेड़ का उपयोग है। वह लड़ाई करने के काम आती है। प्रकृति प्रदत्त पेड़ को सभी अपना बताते हैं। उसे काटते नहीं बस हर नज़र देखते हैं। कभी भूखे के भोजन बनाने के काम और मृत को जलाने के काम आती है लेकिन उसपर चिड़िया का घोंसला नहीं बनता। बस लंबी दूरी तय कर थके हुए पंक्षी टहनियों पर बैठ आराम कर लेते हैं। फिर भी समय-समय पर लोग टहनियां काटते रहते हैं। पंक्षी आराम ना कर सके इस कारण नहीं कुल्हाड़ी की मार से यह मेरा पेड़ है का बोध कराने के लिए। 
तो क्या चिड़ियों का घोंसला तुम्हारे गांव में नहीं है? नहीं मेरे गांव में अमलताश का पेड़ हीं नहीं है। बूढ़े कहते हैं कभी बहुत सारे थे फिर लोगों ने पेड़ों को काटकर घर बनाए और बबूल चिड़ियों के द्वारा भारी मात्रा में उग आए। शायद वो सारे बबूल के पेड़ पतरंगी चिड़िया के प्रतिक हैं। अब लोग बबूल के कांटे दातून से अलग निकालते हैं और अपने दिल में छुपा लेते हैं। 
बबूल सांस तो देगा होगा? 
हां शायद तभी तो हम जिंदा हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी

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